प्राचीन भारत

प्राचीन भारत

प्राचीन भारतीयों इतिहास
पाषाण युग
पाषाण युग से तात्पर्य ऐसे काल से है जब लोग पत्थरों पर आश्रित थे। पत्थर के औज़ार, पत्थर की गुफा ही उनके जीवन के प्रमुख आधार थे। यह मानव सभ्यता के आरंभिक काल में से है जब मानव आज की तरह विकसित नहीं था। इस काल में मानव प्राकृतिक आपदाओं से जूझता रहता था और शिकार तथा कन्द-मूल फल खाकर अपना जीवन बसर करता था।
पुरापाषाण
भारत का पुरापाषाण युग
हिमयुग का अधिकांश भाग पुरापाषाण काल में बीता है। भारतीय पुरापाषाण युग को औजारों, जलवायु परिवर्तनों के आधार पर तीन भागों में बांटा जाता है -
आरंभिक या निम्न पुरापाषाण युग (25,00,000 ईस्वी पूर्व - 100,000 ई. पू.)
मध्य पुरापाषाण युग (1,00,000 ई. पू. - 40,000 ई. पू.)
उच्च पुरापाषाण युग (40,000 ई.पू - 10,000 ई.पू.)
आदिम मानव के जीवाश्म भारत में नहीं मिले हैं। महाराष्ट्र के बोरी नामक पर मिले तथ्यों से अंदेशा होता है कि मानव की उत्पत्ति 14 लाख वर्ष पूर्व हुई होगी। यह बात लगभग सर्वमान्य है कि अफ़्रीका की अपेक्षा भारत में मानव बाद में बसे। यद्दपि यहां के लोगों का पाषाण कौशल लगभग उसी तरह विकसित हुआ जिस तरह अफ़्रीका में। इस समय का मानव अपना भोजन कठिनाई से ही बटोर पाता था। वह ना तो खेती करना जानता था और ना ही घर बनाना। यह अवस्था 9000 ई.पू. तक रही होगी।
पुरापाषाण काल के औजार छोटानागपुर के पठार में मिले हैं जो 1,00,000 ई.पू. तक हो सकते हैं। आंध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में 20,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू. के मध्य के औजार मिले हैं। इनके साथ हड्डी के उपकरण और पशुओं के अवशेष भी मिले हैं। उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जिले की बेलन घाटी में जो पशुओं के अवशेष मिले हैं उनसे ज्ञात होता है कि बकरी, भेड़, गाय, भैंस इत्यादि पाले जाते थे। फिर भी पुरापाषाण युग की आदिम अवस्था का मानव शिकार और खाद्य संग्रह पर जीता था। पुराणों में केवल फल और कन्द मूल खाकर जीने वालों का जिक्र है। इस तरह के कुछ लोग तो आधुनिक काल तक पर्वतों और गुफाओं में रहते आए हैं।
नवपाषाण युग
भारत मे नवपाषाण युग के अवशेष सम्भवतः 6000 ई०पू० से 1000 ई०पू के है।विकास कि यह अवधि भारतीय उपमहाद्वीप मे कुछ देर से आयी क्योकि ऐसा माना जाता है कि विश्व के बडे भूभाग( south west Asia) मे यह युग 8000-7000 ई०पू० के आसपास पनपा, यहाँ से नील घाटी (Egypt) होते हुए यूरोप पहुंचा। इस युग मे मानव पत्थर कि बनी हाथ कि कुल्हाड़ियां आदि औजार पत्थर को छिल घीस और चमकाकर तैयार करता था, उत्तरी भारत मे नवपाषाण युग का स्थल बुर्जहोम (कश्मीर) मे पाया गया है। भारत मे नव पाषाण काल के प्रमुख चार स्थल है
ताम्र पाषाण युग
नवपाषाण युग का अन्त होते होते धातुओं का प्रयोग शुरू हो गया था। ताम्र पाषाणिक युग में तांबा तथा प्रस्तर के हथियार ही प्रयुक्त होते थे। इस समय तक लोहा या कांसे का प्रयोग आरम्भ नहीं हुआ था। भारत में ताम्र पाषाण युग की बस्तियां दक्षिण पूर्वीराजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण पूर्वी भारत में पाई गई है। और सारे भारत में जंगल ही था
कांस्य युग और सिंधु घाटी सभ्यता
सिंधु घाटी सभ्यता
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक इतिहासकारों की यह मान्यता थी कि वैदिक सभ्यता भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता है। परन्तु सर दयाराम साहनी के नेतृत्व में १९२१ में जब हड़प्पा (पंजाब के माँन्टगोमरी जिले में स्थित) की खुदाई हुई तब इस बात का पता चला कि भारत की सबसे पुरानी सभ्यता वैदिक नहीं वरन सिन्धु घाटी की सभ्यता है। अगले साल अर्थात १९२२ में राखालदास बनर्जी के नेतृत्व में मोहनजोदड़ो (सिन्ध के लरकाना जिले में स्थित) की खुदाई हुई। हड़प्पा टीले के बारे में सबसे पहले चार्ल्स मैसन ने १९२६ में उल्लेख किया था। मोहनजोदड़ो को सिन्धी भाषा में मृतकों का टीला कहा जाता है। १९२२ में राखालदास बनर्जी ने और इसके बाद १९२२ से १९३० तक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में यहां उत्खनन कार्य करवाया गया।
सिंधु घाटी सभ्यता (2500 ईसापूर्व से 1750 ईसापूर्व तक) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता है। सम्मानित पत्रिका नेचर में प्रकाशित शोध के अनुसार यह सभ्यता कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है। यह हड़प्पा सभ्यता और 'सिंधु-सरस्वती सभ्यता' के नाम से भी जानी जाती है। इसका विकास सिंधु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ।मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थे। दिसम्बर २०१४ में भिर्दाना को अबतक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया सिंधु घाटी सभ्यता का। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं।
इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहां शासक वर्ग का परिवार रहता था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक एक उससे निम्न स्तर का शहर था जहां ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहाँ के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहाँ के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देख कर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान् थे।
मोहनजोदड़ो का अब तक का सबसे प्रसिद्ध स्थल है विशाल सार्वजनिक स्नानागार, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है।
उत्पत्ति
इतनी विस्तृत सभ्यता होने के बावजूद भी इसकी उत्पत्ति को लेकर आज भी विद्वानों में मतैक्य का अभाव है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हड़प्पा संस्कृति के जितने भी स्थलों की अब तक खुदाई हुई है वहां सभ्यता के विकास अनुक्रम का चिन्ह स्पष्ट नही मिलता है अर्थात इस सभ्यता के अवशेष जहां कहीं भी मिले हैं अपनी पूर्ण विकसित अवस्था में ही मिले हैं।
सर जॉन मार्शल, गार्डन चाईल्ड, मार्टीमर व्हीलर आदि इतिहासकारों की मान्यता है कि हड़प्पा सभ्यता की उत्पत्ति में विदेशी तत्व का हाथ रहा है। इन इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा की उत्पत्ति मेसोपोटामिया की शाखा सुमेरिया की सभ्यता की प्रेरणा से हुई है। इन दोनो सभ्यताओं में कुछ समानताएं भी देखने को मिलती है जो इस प्रकार है -
(१) दोनो ही सभ्यता नगरीय है।
(२) दोनो ही सभ्यताओं के निवासी कांसे और तांबे के साथ साथ पाषाण के लघु उपकरणों का प्रयोग करते थे।
(३) दोनों ही सभ्यताओं के भवन निर्माण में कच्चे और पक्के दोनो ही प्रकार के ईंटों का प्रयोग हुआ है।
(४) दोनो को लिपि का ज्ञान था।
इन्ही समानताओं के आधार पर व्हीलर ने सैन्धव सभ्यता को सुमेरियन सभ्यता का एक उपनिवेश बताय़ा था। लेकिन इन समानताओं के बावजूद कुछ ऐसी असमानताएं भी हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना सुमेरिया की सभ्यता से अधिक सुव्यवस्थित है। दोनो ही सभ्यताओं में आम उपयोग की चीजें काफी भिन्न हैं जैसे बर्तन, उपकरण, मूर्तियां, मुहरें आदि। फिर दोनों ही सभ्यताओं के लिपि में भी अंतर है। जहां सुमेरियाई लिपि में ९०० अक्षर हैं वहीं सिन्धु लिपि में केवल ४०० अक्षर हैं। इन विभिन्नताओं के होते हुए दोनो सभ्यताओं को समान मानना समुचित नहीं लगता।
वैदिक काल
 वैदिक सभ्यता
सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे ही आर्य (Aryan) अथवा वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization) के नाम से जाना जाता है। इस काल की जानकारी हमे मुख्यत: वेदों से प्राप्त होती है, जिसमे ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वैदिक काल को ऋग्वैदिक काल या पूर्व वैदिक काल (1500 -1000 ई.पु.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000 - 600 ई.पु.) में बांटा गया है। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल 5000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व के बीच मे मानत है|
उत्तरवैदिक काल
(१०००-६०० ई०पू०)
ऋग्वैदिक काल में आर्यों का निवास स्थान सिन्धु तथा सरस्वती नदियों के बीच में था। बाद में वे सम्पूर्ण उत्तर भारत में फ़ैल चुके थे। सभ्यता का मुख्य क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का मैदान हो गया था। गंगा को आज भारत की सबसे पवित्र नदी माना जाता है। इस काल में विश् का विस्तार होता गया और कई जन विलुप्त हो गए। भरत, त्रित्सु और तुर्वस जैसे जन् राजनीतिक हलकों से ग़ायब हो गए जबकि पुरू पहले से अधिक शक्तिशाली हो गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ नए राज्यों का विकास हो गया था, जैसे - काशी, कोसल, विदेह (मिथिला), मगध और अंग।
ऋग्वैदिक काल में सरस्वती नदी को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। ग॓गा और यमुना नदी का उल्लेख केवल एक बार हुआ है। इस काल मे कौसाम्बी नगर मे॓ पहली बार पक्की ईटो का प्रयोग किया गया। इस काल मे वर्ण व्यासाय के बजाय जन्म के आधार पे निर्धारित होने लगे।
वैदिक साहित्य
वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है।
वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है।
वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है।
ऋग्वेद
1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है।
यजुर्वेद
यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्यवीद्या का उल्लेख है।
यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है।
इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है।
इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है।
यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है।
यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद।
कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता।
यह 40 अध्याय में विभाजित है।
इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है।
सामवेद
सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी।
इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं।
सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय।
सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।
अथर्व वेद
इस वेद में रहस्यमई विद्याओं, चमत्कार, जादू टोने, आयुर्वेद जड़ी बूटियों का वर्णन मिलता है।
इसमें कुल 20 अध्याय में 5687 मंत्र हैं।
अथर्ववेद आठ खंड में विभाजित है। इसमें भेषज वेद और धातु वेद दो प्रकार मिलते हैं।
बौद्ध और जैन धर्म
: बौद्ध धर्म
ईसा पूर्व छठी सदी तक वैदिक कर्मकांडों की परंपरा का अनुपालन कम हो गया था। उपनिषद ने जीवन की आधारभूत समस्या के बारे में स्वाधीनता प्रदान कर दिया था। इसके फलस्वरूप कई धार्मिक पंथों तथा संप्रदायों की स्थापना हुई। उस समय ऐसे किसी 62 सम्प्रदायों के बार में जानकारी मिलती है। लेकिन इनमें से केवल 2 ने भारतीय जनमानस को लम्बे समय तक प्रभावित किया - जैन और बौद्ध।
जैन धर्म पहले से ही विद्यमान था। दोनो श्रमण संस्कृति पर आधारित है। वैदिको ने श्रमण संस्कृति को बाद मे उपनिषदो मे अपनाया।
जैन धर्म
जैन धर्म के दो तीर्थकरों - ऋषभनाथ तथा अरिष्टनेमि- का उल्लेख ऋग्वेद में पाया जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि हड़प्पा की खुदाई में जो नग्न धड़ की मूर्ति मिली है वो किसी तीर्थकर की है। पार्श्वनाथ तेइसवें तीर्थकर तथा भगवान महावीर चौबीसवें तीर्थकर थे। वर्धमान महावीर जो कि जैनों के सबसे प्रमुख तथा अन्तिम तीर्थकर थे, का जन्म 540 ईसापूर्व के आसपास वैशाली के पास कुंडग्राम में हुआ था। 42 वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य (परम ज्ञान) प्राप्त हुआ।
महावीर ने पार्श्वनाथ के चार सिद्धांतों को स्वीकार किया -
अहिंसा - जीव हत्य न करना
अमृषा - झूठ न बोलना
अस्तेय - चोरी न करना
अपरिग्रह - सम्पत्ति इकठ्ठा न करना
इसके अतिरिक्त उन्होंने अपना पांचवा सिद्धांत भी अपने उपदेशों में जोड़ा -
ब्रह्मचर्य - इंद्रियों पर नियंत्रण
इस सम्प्रदाय के दो अंग हैं - श्वेताबर तथा दिगंबर
बौद्ध
जैन धर्म की तरह इसका मूल भी एक उच्चवर्गीय क्षत्रिय परिवार से था। गौतम नाम से जन्में महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ईसापूर्व में शाक्यकुल के राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। इन्होने भी सांसारिक जीवन जीने के बाद एक दिन (या रात) अचानक से अपना गार्हस्थ छोड़कर सत्य की खोज में चल पड़े।
बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य समाहित हैं -
दुख
दुख समुद्दय
दुख निरोध
दुख निरोध गामिनी प्रतिपदा।
उन्होंने अष्टांगिक मार्ग का सुझाव दिया जिसका पालन करके मनुष्य पुनर्जन्म के बंधन से दूर हो सकता है -
सम्यक वाक्
सम्यक कर्म
सम्यक आजीविका
सम्यक व्यायाम
सम्यक स्मृति
सम्यक समाधि
सम्यक संकल्प
सम्यक दृष्टि
बौद्ध धर्म का प्रभाव भारत के बाहर भी हुआ। अफ़ग़ानिस्तान (उस समय फ़ारसी शासकों के अधीन), चीन, जापान तथा श्रीलंका के अतिरिक्त इसने दक्षिण पूर्व एशिया में भी अपनी पहचान बनाई।
यूनानी तथा फारसी आक्रमण
उस समय उत्तर पश्चिमी भारत में कोई खास संगठित राज्य नहीं था। लगातार शक्तिशाली हो रहे फ़ारसी साम्राज्य की नज़र इधर की ओर भी गई। हंलांकि अब तक फ़ारस पर राज कर रहे चन्द्र राजा यूनान, पश्चिमी एशिया तथा मध्य एशिया की ओर बढ़ रहे थे, उन्होंने भारत की अनदेखी नहीं की थी। शक्तिशाली अजमीड/हखामनी (Achaemenid) शासकों की निगाह इस क्षेत्र पर थी और Kuru-s कुरुस साईरस (558ईसापूर्व - 530 ईसापूर्व) ने हिंदूकुश के दक्षिण के रजवाड़ो को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद दारयवाहु (डेरियस, 522-486 ईसापूर्व) के शासनकाल में फ़ारसी शासन के विस्तार के साक्ष्य मिलते हैं। इसके उत्कीर्ण लेखों में दो ज़ग़ह हिन्दू को इसके राज्य का हिस्सा बताया गया है। इस संदर्भ में हिन्दू शब्द का सही अर्थ बता पाना कठिन है पर इसका तात्पर्य किसा ऐसे प्रदेश से अवश्य है जो सिंधु नदी के पूर्व में हो।
ईसापूर्व चौथी सदी में जब यूनानी और फ़ारसी शासक पश्चिम एशिया (आधुनिक तुर्की का क्षेत्र) पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। मकदूनिया के राजा सिकंदर के हाथों हखामनी शासक डेरियस तृतीय के हारने के पश्चात स्थिति में परिवर्तन आ गया। सिकंदर पश्चिम एशिया जीतने के बाद अरब, मिस्र तथा उसके बाद फ़ारस के केन्द्र (ईरान) तक पहुंच गया। इतने से भी जब उसको संतोष नहीं हुआ तो वो अफ़गानिस्तान होते हुए 326 ईसा पूर्व में पश्चिमोत्तर भारत पहुँच गया।
सिकंदर के भारत आने के बारे में कोई भारतीय स्रोत उपलब्ध नहीं है। सिकंदर के विजय अभियान की बात केवल यूनानी तथा रोमन स्रोतों में उपलब्ध है तथा उन्हें सत्य के करीब मान कर ये सब लिखा गया है। यूनानी ग्रंथ तो सिकंदर के भारत अभियान का विस्तार से वर्णन करते हैं पर वे कौटिल्य के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखते हैं।
सिकंदर जब भारत पहुंचा तो पंजाब (अविभाजित पंजाब) में रावलपिंडी के पास का राजा उसकी सहायता के लिए पहँच गया। अन्य लगभग सभी राजाओं ने सिन्दर का डटकर मुकाबला किया पर वे सिकन्दर की अनुभवी सेनाओं से हार गए। यूनानी लेखकों ने इन राजाओं के वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इसके बाद झेलम और चिनाब के बीच स्थित प्रदेश का राजा पोरस (जो कि पौरव का यूनानी नाम लगता है) ने सिकंदर का वीरता पूर्वक सामना किया। 326 ईस्वी पूर््व का यह झेलम नदी के तट पर हुआ पोरस व सिकंदर के मध्य का युद्ध हाइडेस्पीच का युद्ध कहलाता है ।कहा जाता है कि युद्ध हारने के बाद जब पोरस बन्दी बनकर सिकन्दर के सामने प्रस्तुत हुआ तो उससे पूछा गया - तुम्हारे साथ कैसा सुलूक (वर्ताव) किया जाय। तो उसने साहसी उत्तर दिया -" जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है "। उसके उत्तर पर मुग्ध होकर सिकन्दर ने उसका हारा हुआ प्रदेश लौटा दिया। इसके बाद जब उसे भारत के वीर योद्धा चन्द्रगुप्त मोर्य(मगध का नंद राजा-चंद्रगुप्त नही) की विशाल सेना का सामना करना था तब भय से ग्रसित सेना को लेकर सिकन्दर आगे नहीं बढ़ सका और वापस लौट गया।
महाजनपदमहाजनपद
बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय के अनुसार कुल सोलह महाजनपद थे - अवन्ति,अश्मक या अस्सक, अंग, कम्बोज, काशी, कुरु, कोशल, गांधार, चेदि, वज्जि या वृजि, वत्स या वंश, पांचाल, मगध, मत्स्य या मच्छ, मल्ल, सुरसेन।
इनमें सत्ता के लिए संघर्ष चलता रहता था।
नंदमौर्य साम्राज्
मौर्य वंश
ईसापूर्व छठी सदी के प्रमुख राज्य थे - मगध, कोसल, वत्स के पौरव और अवंति के प्रद्योत। चौथी सदी में चन्द्रगुप्त मौर्य ( चंद्र नंद ) मोत्तर भारत को यूनानी शासकों से मुक्ति दिला दी। इसके बाद उसने मगध की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया जो उस समय नंदों के शासन में था। जैन ग्रंथ परिशिष्ठ पर्वन में कहा गया है कि सम्राट धनानंद ने चाणक्य को अपने राजमहल से बाहर निकाल दिया इसलिए चंद्रगुप्त मौर्य को बड़का कर अपने ही बड़े भाई धनानंद को मरवा दिया चंद्र नंद से चंद्रगुप्त मौर्य बन गया इसके बाद चन्द्रगुप्त ने दक्षिण की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के क्षत्रप सेल्यूकस को हाराया था जिसके फलस्वरूप उसने हेरात, कंदहार, काबुल तथा बलूचिस्तान के प्रांत चंद्रगुप्त को सौंप दिए थे।
चन्द्रगुप्त के बाद बिंदुसार के पुत्र अशोक ने मौर्य साम्राज्य को अपने चरम पर पहुँचा दिया। कर्नाटक के चित्तलदुर्ग तथा मास्की में अशोक के शिलालेख पाए गए हैं। चुंकि उसके पड़ोसी राज्य चोल, पांड्य या केरलपुत्रों के साथ अशोक या बिंदुसार के किसा लड़ाई का वर्णन नहीं मिलता है इसलिए ऐसा माना जाता है कि ये प्रदेश चन्द्रगुप्त के द्वारा ही जीता गया था। अशोक के जीवन का निर्णायक युद्ध कलिंग का युद्ध था। इसमें उत्कलों से लड़ते हुए अशोक को अपनी सेना द्वारा किए गए नरसंहार के प्रति ग्लानि हुई और उसने बौद्ध धर्म को अपना लिया। फिर उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भी करवाया।
चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में यूनानी राजदूत मेगास्थनीज़ , सेल्यूकस के द्वारा उनके दरबार में भेजा गया। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य तथा उसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) का वर्णन किया है। इस दौरान कला का भी विकास हुआ
मौर्यों के बाद
मौर्यों के पतन के बाद शुंग राजवंश ने सत्ता सम्हाली। ऐसा माना जाता है कि मौर्य राजा वृहदृथ के सेनापति पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या कर दी थी जिसके बाद शुंग वंश की स्थापना हुई। शुंगों ने 187 ईसापूर्व से 75 ईसापूर्व तक शासन किया। इसी काल में महाराष्ट्र में सातवाहनों का और दक्षिण में चेर, चोल और पांड्यों का उदय हुआ। सातवाहनों के साम्राज्य को आंध्र भी कहते हैं जो अत्यन्त शक्तिशाली था।
पुष्यमुत्र के शासनकाल में पश्चिम से यवनों का आक्रमण हुआ। इसी काल के माने जाने वाले वैयाकरण पतंजलि ने इस आक्रमण का उल्लेख किया है। कालिदास ने भी अपने मालविकाग्निमित्रम् में वसुमित्र के साथ यवनों के युद्ध का चर्चा किया है। इन आक्रमणकारियों ने भारत की सत्ता पर कब्जा कर लिया। कुछ प्रमुख भारतीय-यूनानी शासक थे - यूथीडेमस, डेमेट्रियस तथा मिनांडर। मिनांडर ने बौद्ध धर्म अपना लिया था तथा उसका प्रदेश अफगानिस्तान से पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था।
इसके बाद पह्लवों का शासन आया जिनके बारे में अधिक जानकारी उपल्ब्ध नहीं है। तत्पश्चात शकों का शासन आया। शक लोग मध्य एशिया के निवासी थे जिन्हें यू-ची नामक कबीले ने उनके मूल निवास से खदेड़ दिया गया था। इसके बाद वे भारत आए। इसके बाद यू-ची जनजाति के लोग भी भारत आ गए क्योंकि चीन की महान दीवार के बनने के बाद मध्य एशिया की परिस्थिति उनके अनूकूल नहीं थी। ये कुषाण कहलाए। कनिष्क इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था। कनिष्क ने ७८ ईसवी से 101 ईस्वी तक राज किया।
समकालीन दक्षिण भारत
दक्षिण में चेर, पांड्य तथा चोल के बीच सत्ता संघर्ष चलता रहा था। संगम साहित्य इस समय की सबसे अमूल्य धरोहर थी। तिरूवल्लुवर द्वारा रचित तिरुक्कुरल तमिल भाषा का प्राचीनतम ग्रंघ माना जाता है। धार्मिक सम्प्रदायों का प्रचलन था और मुख्यतः वैष्णव, शैव, बौद्ध तथा जैन सम्प्रदायों के अनुयायी थे।
गुप्त वंश
सन् ३२० ईस्वी में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना जिसने गुप्त वंश की नींव डाली। इसके बाद समुद्रगुप्त (३४० इस्वी), चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (४१३-४५५ इस्वी) और स्कंदगुप्त शासक बने। इसके करीब १०० वर्षों तक गुप्त वंश का अस्तित्व बना रहा। ६०६ इस्वी में हर्ष के उदय तक किसी एक प्रमुख सत्ता की कमी रही। इस काल में कला और साहित्य का उत्तर तथा दक्षिण दोनों में विकास हुआ। इस काल का सबसे प्रतापी शासक "समुद्रगुप्त" था जिसके शासनकाल में भारत को "सोने की चिड़िया" कहा जाने लगा।
ग्यारहवीं तथा बारहवीं सदी में भारतीय कला, भाषा तथा धर्म का प्रचार दक्षिणपूर्व एशिया में भी हुआ।
प्राचीन भारत के राजवंश और उनके संस्थापक
वंश राजधनी संस्थापक
गुहिल(सिसौदिया)
मेवाड(चितौड)
बप्पा रावल (कालभोज)

हर्यक वंश
राजगृह, पाटलिपुत्र
बिम्बिसार

शिशुनाग वंश
पाटलिपुत्र, वैशाली शिशुनाग

नन्द वंश
पाटलिपुत्र महापद्मनन्द
मौर्य वंश
पाटलिपुत्र चंद्रगुप्त मौर्य
शुंग वंश
विदिशा पुष्यमित्र शुंग
कण्व वंश
पाटलिपुत्र वसुदेव
सातवाहन वंश
पैठन सिमुक
चेदि वंश
सोत्थवती महामोघवाहन
हिंद-यवन शाकल ( सियालकेट ) डेमेट्रियस
कुषाण वंश
पुरुषपुर पेशावर कुजुल कडफिसेस
कदम्ब वंश
बनवासी मयूरशर्मन
गंग वंश
तलकाड कोंकणिवर्मा
गुप्त वंश
पाटलिपुत्र श्रीगुप्त
मौखरी वंश
कन्नौज ईशानवर्मा
हूण वंश
स्यालकोट तोरमाण
मैत्रक वंश
वल्लभी भट्टारक
उत्तरगुप्त वंश
पाटलिपुत्र कृष्णगुप्त
गौड़ वंश
कर्णसुवर्ण, मुर्शिदाबाद शशांक
पुष्यभूति वंश
थानेश्वर प्रभाकरवर्धन
पाल वंश
मुंगेर
गोपाल
सेन वंश
राढ़ सामन्तसेन
राष्ट्रकूट वंश
मान्यखेत दन्तिवर्मन
गुर्जर प्रतिहार वंश
कन्नौज नागभट्ट प्रथम
कलचुरी चेदि वंश
त्रिपुरी कोक्कल प्रथम
परमार वंश
धारा कृष्णराज/ उपेन्द्र
लोदी वंश
मोहली
सोलंकी वंश
अन्हिलवाड़ मूलराज प्रथम
चन्देल वंश
खजुराहो (महोबा) नन्नुक
गहड़वाल वंश
कन्नौज चन्द्रदेव
चौहान वंश
अजमेर वासुदेव
तोमर वंश
ढिल्लिका अनंगपाल
चालुक्य वंश (बादामी)
बादामी पुलकेशिन प्रथम
चालुक्य वंश (कल्याणी) मान्यखेत तैलप द्वितीय
चालुक्य वंश (वेंगि) वेंगि विष्णुवर्धन
पल्लव वंश
कांची
सिंहवर्मा

चोल वंश
तंजौर, तंजावुर
विजयालय


प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थाएं
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सच होने के बावजूद यह तथ्य बहुत-से लोगों को चौंका सकता है कि प्राचीन भारत औद्योगिक विकास के मामले में शेष विश्व के बहुत से देशों से कहीं अधिक आगे था। रामायण और महाभारत काल से पहले ही भारतीय व्यापारिक संगठन न केवल दूर-देशों तक व्यापार करते थे, बल्कि वे आर्थिकरूप से इतने मजबूत एवं सामाजिक रूप से इतने सक्षम संगठित और शक्तिशाली थे कि उनकी उपेक्षा कर पाना तत्कालीन राज्याध्यक्षों के लिए भी असंभव था। रामायण के एक उल्लेख के अनुसार राम जब चौदह वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या वापस लौटते हैं तो उनके स्वागत के लिए आए प्रजाजनों में श्रेणि प्रमुख भी होते हैं।
प्राचीन ग्रंथों में इस तथ्य का भी अनेक स्थानों उल्लेख हुआ है कि उन दिनों व्यक्तिगत स्वामित्व वाली निजी और पारिवारिक व्यवसायों के अतिरिक्त तत्कालीन भारत में कई प्रकार के औद्योगिक एवं व्यावसायिक संगठन चालू अवस्था में थे, जिनका व्यापार दूरदराज के अनेक देशों तक विस्तृत था। उनके काफिले समुद्री एवं मैदानी रास्तों से होकर अरब और यूनान के अनेक देशों से निरंतर संपर्क बनाए रहते थे। उनके पास अपने अपने कानून होते थे। संकट से निपटने के लिए उन्हें अपनी सेनाएं रखने का भी अधिकार था। सम्राट के दरबार में उनका सम्मान था। महत्त्वपूर्ण अवसरों पर सम्राट श्रेणि-प्रमुख से परामर्श लिया करता था। उन संगठनों को उनके व्यापार-क्षेत्र एवं कार्यशैली के आधार पर अनेक नामों से पुकारा जाता था। गण, पूग, पाणि, व्रात्य, संघ, निगम अथवा नैगम, श्रेणि जैसे कई नाम थे, जिनमें श्रेणि सर्वाधिक प्रचलित संज्ञा थी। ये सभी परस्पर सहयोगाधारित संगठन थे, जिन्हें उनकी कार्यशैली एवं व्यापार के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था।
भारतीय धर्मशास्त्रों में प्राचीन समाज की आर्थिकी का भी विश्लेषण किया गया है। उनमें उल्लिखित है कि हाथ से काम करने वाले शिल्पकार, व्यवसाय चलाने वाली जातियां व्यवस्थित थीं। सामूहिक हितों के लिए संगठित व्यापार को अपनाकर उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय दिया था। इसी कारण वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से काफी समृद्ध भी थीं। आचार्य पांडुरंग वामन काणे ने उस समय के विभिन्न व्यावसायिक संगठनों की विशेषताओं का अलग-अलग वर्णन किया है। कात्यायन ने श्रेणि, पूग, गण, व्रात, निगम तथा संघ आदि को वर्ग अथवा समूह माना है। 1 लेकिन आचार्य काणे उनकी इस व्याख्या से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार ये सभी शब्द पुराने हैं। यहां तक कि वैदिक साहित्य में भी ये प्रयुक्त हुए हैं। यद्यपि वहां उनका सामान्य अर्थ दल अथवा वर्ग ही है। 2 इसी प्रकार कौषीतकिब्राह्मण उपनिषद् में पूग को रुद्र की उपमा दी गई है। 3 आपस्तंब धर्मसूत्र में संघ को पारिभाषित करते हुए उसकी कार्यविधि और भविष्य को देखने हुए, अन्य संगठनों के संदर्भ में उसके अंतर को समझा जा सकता है। 4
पाणिनिकाल तक संघ, व्रात, गण, पूग, निगम आदि नामों के विशिष्ट अर्थ ध्वनित होने लगे थे। उन्होंने श्रेणि के पर्यायवाची अथवा विभिन्न रूप माने जाने वाले उपर्युक्त नामों की व्युत्पत्ति आदि की विस्तृत चर्चा की है। इस तथ्य का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं कि श्रेणियों की पहुंच केवल आर्थिक कार्यकलापों तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि उनकी व्याप्ति धार्मिक, राजनीति और सामाजिक सभी क्षेत्रों में थी। इसलिए कार्यक्षेत्र को देखते हुए उन्हें विभिन्न संबोधनों से पुकारा जाना भी स्वाभाविक ही था। दूसरी ओर यह भी सच है कि पूग, व्रात्य, निगम, श्रेणि इत्यादि विभिन्न नामों से पुकारे जाने के बावजूद सहयोगाधारित संगठनों के बीच उनके कार्यकलापों अथवा श्रेणिधर्म के आधार पर कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं थी। दूसरे शब्दों में ये नाम विशिष्ट परिस्थितियों में कार्यशैली एवं कार्यक्षेत्र के अनुसार अपनाए तो जाते थे, परंतु उनके बीच स्पष्ट कार्य-विभाजन का अभाव था। संगठन के विभिन्न नामों के कारण उनके बीच अनौपचारिक-से भेद एवं उनसे ध्वनित होने प्रचलित अर्थ को आगे के अनुच्छेदों में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है-

अनुक्रम
1व्रात्य
2पूग
3संघ
4गण
5नैगम अथवा निगम
6पण
7श्रेणि
8उपसंहार
9संदर्भानुक्रमणिका
10इन्हें भी देखें
11बाहरी कड़ियाँ
व्रात्य
यह नाम प्राचीन काल से ही संघ अथवा वैकल्पिक सरकार के रूप में प्रचलित रहा है। इसमें आंतरिक लोकतंत्र की भावना प्रधान होती थी। पाणिनी ने अपने महाभाष्य में ऐसे लोगों को व्रात्य माना है, जिनका कोई विशिष्ट व्यवसाय नहीं था, जो अपने तात्कालिक हितों के लिए किसी भी प्रकार का व्यवसाय अपना सकते थे। दूसरे शब्दों में उन्हें कई व्यवसायों का कार्यसाधक ज्ञान होता था। और समय तथा उपयोगिता के अनुसार वे अपना कोई भी व्यवसाय चुन सकते थे। व्रात्य प्रायः अपने शारीरिक बल से ही अपनी जीविका चलाते थे। वे विविध जातियों से आए हुए दक्ष शिल्पकार थे और अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए आपस में संगठित होकर रहना आवश्यक मानते थे। कात्यायन ने व्रात्यों को विचित्र अस्त्रधारी सैनिकों का झुंड माना है। इससे कुछ विभिन्न विक्रमादित्य खन्ना ने किरन कुमार थपल्याल एवं मजुमदार के हवाले से एक ही परिक्षेत्र में रहने वाले, आर्थिक हितों के लिए प्रयासरत, समूह को व्रात्य एवं पूग की संज्ञा दी है। उनके अनुसार— ‘व्रात्य एवं पूग एक ही नगर अथवा गांव के निवासियों के सामान्यतः एक ही व्यवसाय में लगे, समान आर्थिक हितों के लिए गठित समूह थे।’5 स्पष्ट है कि व्रात्य समानधर्मा लोग थे, जिनको एकाधिक व्यवसायों की जानकारी होती थी। अपने परंपरागत उद्यम में अनुकूल अवसर न देख वे सहयोगी संगठन के गठन की ओर उन्मुख होते थे। उनके संगठन अधिक लोकतांत्रिक और उदार होते थे।
पूग
आचार्य काणे ने अपने वृहद् ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में उल्लेख किया है कि व्रात्य की भांति पूग भी विभिन्न जातियों से आए हुए लोग थे। वे आवश्यकता पड़ने पर मिस्त्री से लेकर श्रमिक तक, कुछ भी काम कर सकते थे। कशिका के अनुसार वे धनलोलुप और कामी थे, जिनका कोई स्थिर व्यवसाय नहीं था। कात्यायन ने पूग को व्यापारियों का समुदाय स्वीकार किया है। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में एक स्थान पर सैनिकों एवं श्रमिकों में अंतर दर्शाया गया है। उनके अनुसार सौराष्ट्र एवं कांबोज राज्य के सैनिकों की श्रेणियां अलग-अलग वर्गों में विभाजित थीं। उनमें से कुछ आयुध के सहारे अपनी आजीविका चलाने वाली थीं, तो कुछ की आजीविका का माध्यम कृषि था— पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का समुदाय है और श्रेणि विभिन्न जातियों के लोगों का समुदाय है—जैसे हेलाबुकों, तांबूलिकों, कुविंदों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियां. चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में हेलाबुकों को प्रत्येक घोड़े के लिए एक द्रम्म देने का वृत्तांत मिलता है।’6 पूग संभवतः ऐसे व्यक्तियों का संगठन होता था, जिनका पैत्रिक व्यवसाय युद्ध अथवा सेवाकर्म था; अर्थात ऐसे लोग जो वर्ण-विभाजन की दृष्टि से वाणिज्यकर्म के लिए अधिकृत नहीं थे। कृषक एवं सैनिक जातियों के लोग अपने व्यवसाय से हताश होकर, परिवर्तन अथवा अपेक्षाकृत अधिक आर्थिक लाभ के लिए संगठन का निर्माण करते थे। इस बात की भी पर्याप्त संभावना है कि वाणिज्यिक अनुभव की कमी तथा शिल्पकलाओं के ज्ञान के अभाव में शूद्रवर्ग एवं सेना से निकाले गए लोगों के संगठन को पूग माना गया हो. ऐसे लोग युद्धक अथवा गैरव्यावसायिक श्रेणियों के गठन को प्राथमिकता देते थे। इस तरह पूग एवं व्रात्य कहे जाने वाले संगठनों में सैद्धांतिक दृष्टि से कोई खास अंतर नहीं था।
संघ
संघ को सामान्यतः विशिष्ट लोगों के संगठन का पर्याय माना गया है। प्राचीन भारत में गणतांत्रिक सत्ता के ध्रुवों को संघ के नाम से पुकारने की परंपरा रही है। संघों के सदस्यों का चयन बहुमत के आधार पर किया जाता था। तथापि वह सीमित गणतंत्र था। उनके सदस्य प्रायः वर्णव्यवस्था में ऊपर के क्रम पर आने वाली जातियों से संबद्ध होते थे, जो अपने आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक हितों की प्राप्ति हेतु संगठन का निर्माण करते थे। लगभग यही आशय गण का भी रहा है। प्रारंभ में इन दोनों के बीच कोई सैद्धांतिक विभाजन था भी नहीं. प्रकारांतर में गण और संघ में भेद अवश्य किया जाने लगा था। लेकिन गण को एकवचन के रूप में भी स्वीकारा जाता रहा है, जबकि संघ की संज्ञा विवेकवान लोगों के समूह के लिए सुरक्षित रही है, जो अपने निर्णय सिद्धांततः आमसहमति के आधार पर लेते हों. विशेषकर बौद्धधर्म के अभ्युध्य के पश्चात ब्राह्मणों ने स्वयं को उनसे अलग दिखाने के लिए, उनके संगठनों को संघ कहना प्रारंभ कर दिया था। मनु ने संघ का प्रयोग संगठित समाज के लिए किया है। जबकि कात्यायन के अनुसार संघ बौद्धों तथा जैनों का समाज है। डा॓. रमेशचंद्र मजुमदार एवं डा॓. किरन कुमार थपल्याल, दोनों ने इसी मत की संस्तुति की है। इन दोनों के हवाले से विक्रमादित्य खन्ना लिखते हैं कि— ‘संघ का संबोधन सामान्यतः राजनीतिक संगठनों के लिए था। यद्यपि कभी-कभी उसका इस शब्द का प्रयोग शैक्षिक एवं धर्मिक गतिविधियों के विकास को समर्पित संगठनों, विशेषकर बौद्ध भिक्षुओं के दल, के लिए भी कर लिया जाता था।’7 इस वर्गीकरण से संघ की आर्थिक विशेषताओं का कोई बोध नहीं होता. यह भी हो सकता है कि बौद्धों के धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक हितों के लिए गठित समूहों को संघ की संज्ञा दी जाती हो. लेकिन लोकपंरपरा में व्यापारियों के समूहों को भी संघ कहने का चलन था।
गण
प्राचीन भारतीय वांङमय में गण शब्द का उल्लेख अनेकार्थी है। गण का सामान्य अभिप्राय सुसंस्कृत नागरिक से भी है। गांवों एवं नगरों में सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए, समाज के जिन विशिष्ट व्यक्तियों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती थी, उन्हें ‘गण’ कहा जाता था। कई बार धार्मिक एवं राजनीतिक उद्देश्यों के लिए मनोनीत व्यक्ति भी ‘गण’ की संज्ञा से विभूषित कर दिए जाते थे। कालांतर में इस संज्ञा का उपयोग आर्थिक उद्देश्यों के गठित संगठनों के लिए भी किया जाने लगा. वसिष्ठ धर्मसूत्र में ‘गण’ का उल्लेख संगठित समाज के रूप में किया गया है। कुछ इसी प्रकार का अर्थ मनु ने भी बताया है; यानी पूरा समाज गण अथवा गणसमूह है। कात्यायन ने वर्ण-विभाजन को आधार बनाकर इसे और भी विशेषीकृत करते हुए, ब्राह्मणों के संगठन को गण की संज्ञा दी है। मिताक्षरा के अनुसार गण व्यापारियों के समूह थे, जिनका प्रमुख व्यवसाय हेलाबूक अर्थात घोड़े का व्यवसाय करना था। विक्रमादित्य खन्ना ने गण को धार्मिक एवं राजनीतिक संगठन मानते हुए उसको संघ के समक्ष रखा है। डाॅ. मजुमदार का संदर्भ देते हुए वे लिखते हैं कि— ‘प्रारंभ में गण का अभिप्राय व्यापारियों के समूह से था, मगर कालांतर में उन्हें राजनीतिक एवं धार्मिक संगठन के रूप में भी मान्यता मिलने लगी.’8 सामान्य नागरिकताबोध की प्रस्तुति के लिए भी गण का उपयोग आम नागरिकों के लिए मान्य रहा है। गणतंत्र उसी शब्द की व्युत्पत्ति है। यही अर्थ सहस्राब्दियों तक विद्वानों को मान्य रहा है। लेकिन यह भी सत्य है कि समय के साथ संज्ञाएं एवं उनके संदर्भ बदलते रहते हैं। कई बार स्वार्थी लोग भी शब्दों को उनके मूल संदर्भों से काटकर मनमानी व्याख्याएं करते रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गण का उपयोग प्रारंभ में नागरिक और नागरिक-समूहों के लिए सुरक्षित था। बाद में यही संज्ञा व्यापारी-समूहों को भी दी जाने लगी. लेकिन कालांतर में, बौद्ध धर्म के उद्भव के बाद ब्राह्मणों ने उनके संगठनों को संघ तथा अपने समूहों को गण कहना आरंभ कर दिया था।
नैगम अथवा निगम
नैगम अथवा निगम शब्द का अंग्रेजी पर्याय Corporation है, जिसका आशय एक ऐसे जिम्मेदार संगठन से है, जिसका गठन विशिष्ट सेवाओं की देखभाल तथा उन्हें सुचारू बनाए रखने के लिए किया जाता है। नागरिक सेवाओं में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आदि सभी सेवाएं सम्मिलित हैं। श्रेणि तथा पूग की भांति नैगम भी व्यावसायिक संगठन होते थे। नैगम को परिभाषित करने का कार्य कात्यायन द्वारा किया गया। उनके अनुसार नैगम का आशय एक ही नगर के नागरिकों के समूह से है। वैदिक साहित्य में श्रेणि, पूग अथवा नैगम जैसे शब्द अनेक स्थानों पर आए हैं, जहां उनका सामान्य अर्थ दल अथवा संगठन से ही है। हालांकि किरन कुमार थपल्याल की राय इससे कुछ भिन्न है। उनके अनुसार निगम अथवा नैगम का कार्यक्षेत्र विस्तृत होता था, यहां तक कि नगरीय सीमाओं से परे भी. नैगम के सापेक्ष श्रेणि एक छोटी इकाई थी और एक नैगम कई श्रेणियों पर अनुशासन कर सकता था। नैगम को हम आंग्ल शब्द फेडरेशन का पर्याय भी मान सकते हैं। उनके अनुसार— ‘निगम को प्रायः गिल्ड अथवा नगर के समतुल्य माना जाता है। यह श्रेणि की अपेक्षा बड़े होते थे। गुप्तकाल के आसपास निगम का किसी एक परिक्षेत्र में कार्यरत श्रेणियों पर नियंत्रण होता था।’9 मित्र मिश्र ने ‘वीरमित्रोदय’ में नैगम को परिभाषित करते हुए कहा है कि, पौर वणिकों को नैगम कहते हैं। 10 वैधानिक दृष्टि से नैगम आधुनिक जायंट स्टा॓क कंपनी के अनुरूप होते थे। डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार के विचार भी दृष्टव्य हैं— ‘जायंट स्टा॓क कंपनी के ढंग से संगठित होकर व्यापारी लोग अपने जो समूह बनाते थे, उनकी संज्ञा ‘संभ्भूय समुत्थान’ थी। पर शिल्पियों की श्रेणियों के समान व्यापारियों के समूह भी विद्यमान थे, जिन्हें ‘निगम’ कहा जाता था।...जिस प्रकार शिल्पी लोग श्रेणि में संगठित होकर अपने साथ संबंध रखने वाले विषयों पर कानून बनाते थे और शिल्प को नियंत्रित करते थे, उसी प्रकार निगम में संगठित व्यापारी अपने व्यापार के संबंध में व्यवस्था करते थे। क्योंकि पुरों में प्रधानतया व्यापारियों का ही निवास होता है और वहां वे प्रमुख स्थान रखते थे, अतः स्वाभाविक रूप से पौर संस्था का विकास निगम को आधर बनाकर ही हुआ। 11 बौद्ध साहित्य में जनपद एवं नैगम को परस्पर पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया गया है। 12 निगम के प्रधान या मुखिया को ‘श्रेष्ठी’ कहा जाता था। ‘महाबग्ग’ के अनुसार एक बार राजगृह के श्रेष्ठी के महारोग से व्यथित व्यापारियों ने जब उसका उपचार राजवैद्य से कराने का विचार किया तो वे उसकी अनुमति के लिए सम्राट बिंबसार के दरबार में पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने प्रार्थना की कि— ‘हे देव! इस श्रेष्ठी ने आपके और निगम के प्रति बहुत उपकार किया है।’13 स्पष्ट है कि निगम के रूप में संगठित वणिकों को ही ‘नैगम’ कहा जाता था। ये व्यापारिक संगठन अधिकार-संपन्न होते थे, जो क्षेत्रीय श्रेणियों पर अनुशासन बनाए रखकर विकास के लिए बहुआयामी स्तर पर काम करते थे। प्रायः एक ही परिक्षेत्र में रहने वाले व्यापारी, शिल्पकार, श्रेणि-प्रमुख अपने परिक्षेत्र से बाहर व्यापार के प्रसार के लिए संगठित होते थे। छोटी-छोटी श्रेणियां भी, अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा एवं व्यावसायिक स्पर्धा में बने रहने के लिए, निगम के रूप में एकजुट हो जाती थीं। विक्रमादित्य खन्ना के हवाले से निगम को और गहराई से समझा जा सकता है— ‘आमतौर पर व्यापारियों, दस्तकारों एवं तकनीकी कार्यों में दक्ष व्यक्तियों, यहां तक कि युद्धकला में निपुण सैनिकों के संगठन को निगम अथवा श्रेणि के रूप में पहचाना जाता था।..इनमें से श्रेणि, निगम तथा पणि (अथवा पण) अपने समाज के विकास के लिए आर्थिक गतिविधियों में अधिक लिप्त रहते थे।’14 याज्ञवल्क्य स्मृति में निगम को पाषंड एवं श्रेणि के समानांतर रखा गया है। याज्ञवल्क्य के अनुसार पाषंड धार्मिक संप्रदायों के संगठन थे। याज्ञवल्क्य के अनुसार— ‘श्रेणि-नैगम-पाषंड और गण के संगठन की एक ही विधि है।’15 इस विश्लेषण के आधार पर निगम को आधुनिक यूरोपीय गिल्ड अथवा विभिन्न श्रेणियों की फेडरेशन के रूप में दर्ज किया जा सकता है।
पण
पण को मुद्रा का पर्याय माना गया है। पण अथवा पणि का आशय भी सामान्यतः ऐसे संगठनों से था, जो धनार्जन के लिए व्यापार को अपनाते थे। जिनका लक्ष्य अपने सदस्यों के आर्थिक विकास के लिए कार्य करना था। विक्रमादित्य खन्ना ने पणि को श्रेणि एवं नैगम के समकक्ष रखते हुए ऐसा समूह माना है जिसका उद्देश्य अपने सदस्यों का आर्थिक उत्थान था। उनके अनुसार— ‘पणि (अथवा पणि) को सामान्यतः सौदागरों, शिल्पकारों के ऐसे समूह के रूप में जाना जाता है, जो अपने माल की बिक्री के लिए, काफिलों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक निरंतर सफर करते रहते थे।’16 दूसरे शब्दों में पणि व्यापारियों के काफिले थे, जो अपने व्यापार के सिलसिले में देश-देशांतर की यात्रा करते रहते थे। तकनीकी रूप में उनमें तथा श्रेणि के अन्य रूपों में बहुत अंतर नहीं था। उनकी पहचान अक्सर एक-दूसरे में घुलमिल जाती है।
श्रेणि
भारत में सहयोगाधारित व्यापारिक आर्थिक संगठनों के लिए श्रेणि शब्द का उपयोग ईसा से भी आठ सौ वर्ष पहले से होता आ रहा है परस्पर सहयोगाधारित संगठनों के लिए यह शब्द इतना प्रचलित रहा है कि उन्हें व्यवस्थित करने और वैधानिकता का दर्जा दिलानेवाले नियमों को भी श्रेणि-धर्म कहा जाता था- संगठित व्यापार एवं उत्पादन के क्षेत्र में कार्य करने वाले संगठनों के लिए यह संबोधन 1000 ईस्वी; अर्थात मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना तक लोगों की जुबान पर चढ़ा रहा. इन संगठनों के लिए यद्यपि पूग, नैगम, व्रात्य, पाणि, गण आदि संज्ञाएं भी प्राचीनकाल से चली आ रही थीं, विद्वानों ने उनके बीच के सैद्धांतिक अंतर स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है, तथापि ऐसे संगठनों के श्रेणि शब्द का प्रचलन ही सर्वाधिक रहा. आज भी इसे गिल्ड के पर्याय के रूप में जाना जाता है। ध्यातव्य है कि गिल्ड श्रेणि के समानधर्मा यूरोपीय संगठन हैं। तथापि भारतीय प्रायद्वीप में श्रेणि शब्द का उपयोग व्यापक संदर्भ लिए हुए था। लगभग सभी प्रकार के व्यापारिक, उद्यमी और राजनीतिक संगठनों, नागरिक सेवा प्रदान करने वाले निकायों को श्रेणि के नाम से पहचाना जाता था। जहां तक प्राचीन संदर्भों की बात है, विष्णुधर्मसूत्र में श्रेणि का उल्लेख संगठित समाज के लिए किया गया है, जबकि मिताक्षरा ने श्रेणि को पान के पत्तों के व्यापारियों का समुदाय माना गया है। 17 याज्ञवल्क्य ने श्रेणि को विभिन्न जातियों के लोगों का संगठन माना है, जो किसी समान आर्थिक-व्यापारिक उद्देश्य के लिए संगठित होते हैं। जो भी हो इतना सत्य है कि श्रेणि व्यापारियों के संगठित समूह थे, जिनकी अपनी पहचान थी। विद्वानों द्वारा उसके बारे में अलग-अलग व्याख्या, उनके अनुभव और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भी संभव है। उल्लेखनीय है कि व्यापारिक संगठनों को अलग-अलग नाम का दिया जाना किंचित मतवैभिन्न्य तथा सुविधा की दृष्टि से था। किसी भी व्यक्ति अथवा समूह को अपने हितों की सुरक्षा के अनुसार किसी भी प्रकार के व्यवसाय को अपनाने की छूट थी। हालांकि कई स्थान पर इस नियम में व्यवधान भी थे। व्यवस्था के लिहाज से श्रेणियों को उनके लिए तय व्यवसाय में काम करने की अनुमति प्राप्त थी। ’याज्ञवल्क्य (2/30) ने ऐसे कुलों जातियों, श्रेणियों एवं गणों को दंडित करने को कहा है, जो अपने आचार-व्यवहार से च्युत होते हैं।’18 नारद स्मृति में भी श्रेणि, नैगम, पूग एवं गण का जिक्र करते हुए उनके परंपरानुरूप कार्यों की व्याख्या की गई है। ‘ इन संगठनों के व्यवसाय के अनुसार उनकी संरचना एवं सामाजिक प्रस्थिति में भी अंतर था। याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि पूगों एवं श्रेणियों को अपने झगड़ों का अन्वेषण करने, उन्हें सुलझाने का पूरा अधिकार है। उन्होंने पूग को श्रेणि से उच्चतम स्थिति में माना है। मिताक्षरा ने भी याज्ञवल्क्य का समर्थन करते हुए श्रेणि और पूग के बीच पूग की उच्चतम स्थिति को ही मान्यता दी है। मिताक्षरा के अनुसार— ‘पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का समुदाय है और श्रेणि विभिन्न जातियों के लोगों का समुदाय है—जैसे हेलाबुकों, तांबूलिकों, कुविंदों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियां. चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में ‘हेड़ाविकों को प्रत्येक घोड़े के एक द्रम्म देने का वृत्तांत मिलता है। नासिक अभिलेख संख्या 15 में लिखा है कि अभीर राजा ईश्वरसेन के शासनकाल में 1000 कार्षापण कुम्हारों के समुदाय (श्रेणि) में, 500 कार्षापण तेलियों की श्रेणि में, 2000 कार्षापण पानी देनेवालों की श्रेणि (उदक-यंत्र-श्रेणि) में स्थिर संपत्ति के रूप में जमा किए गए, जिससे कि उनके ब्याज से रोगी भिक्षुओं की दवा की जा सके. नासिक के नौवें एवं बारहवें शिलालेखों में जुलाहों की श्रेणि का भी उल्लेख है। हुविष्क के शासनकाल के मथुरा के ब्राह्मशिलावालों एवं कांस्यकारों (ताम्र एवं कांसा बनानेवालों) की श्रेणियों में धन जमा करने की चर्चा हुई है। स्कंदगुप्त के इंदौर ताम्रपत्र में तैलियों की एक श्रेणि का उल्लेख है। इन सब बातों से स्पष्ट है कि ईसा के आसपास की शताब्दियों में कुछ जातियों, यथा लकड़हारों, तेलियों, तमोलियों, जुलाहों आदि के समुदाय इस प्रकार की संगठित एवं व्यवस्थित थे कि लोग उनमें निःसंकोच सहस्रों रुपये इस विचार के साथ जमा करते थे कि उनसे ब्याज-रूप में दान के लिए धन मिलता रहेगा.’19 स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में श्रेणियां न केवल संगठित व्यापार का माध्यम बनी हुई थीं, बल्कि वे आधुनिक वित्तीय संगठनों की तरह व्यवहार भी करती थीं। लोग अपना व्यक्तिगत धन भी मुनाफे या लाभ की इच्छा के साथ उनके पास जमा कर सकते थे। उस समय के शासकों को भी श्रेणियों की वित्तीय क्षमताओं पर पूरा विश्वास था। यहां तक कि राज्य के दायित्वों को पूरा करने के लिए भी श्रेणियों में धन निवेश किया जाता था। मथुरा से प्राप्त दूसरी शताब्दी के एक दस्तावेज में बुनकरों की दो श्रेणियों में से प्रत्येक के पास चांदी के 550 सिक्के जमा करने का उल्लेख मिलता है, ताकि उससे प्राप्त ब्याज से ब्राह्मणों तथा गरीबों को भोजन कराया जा सके. ब्याज की दर बहुत उपयुक्त बहुत कुछ वर्तमान दरों के अनुकूल थी। प्रोफेसर किरण कुमार थपल्याल के अनुसार नासिक अभिलेख में जुलाहों को दो हजार कार्षापण एक रुपया सैकड़ा प्रतिमाह ब्याज की दर से प्रदान किए गए थे, ताकि उस धन से भिक्षुओं के लिए भोजन, वस्त्र आदि का प्रबंध किया जा सकें. इसी प्रकार एक अन्य दस्तावेज में भिक्षुओं को जलपान कराने के लिए एक हजार कार्षापण 0.75 रुपया प्रतिमाह के ब्याज पर जुलाहों की एक और श्रेणि को दिए जाने का भी उल्लेख है। इसी प्रकार गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त के एक लेख में इंद्रपुर निवासिनी तेलियों की श्रेणि को कुछ धन उधार के रूप में देने का उल्लेख हुआ है, ताकि उससे मिलने वाले ब्याज से सूर्य मंदिर के दीपों के लिए तेल का खर्च निकलता रहे. इन उद्धरणों से सिद्ध होता है, कि उस समय के बड़े राज्य भी अपनी समाज-कल्याण संबंधी योजनाओं को पूरा करने के लिए भी श्रेणियों की वित्तीय स्थिति और साख का लाभ उठाने का प्रयास करते रहते थे— ‘ये श्रेणियां बैंक का कार्य करती थीं और इनको इतना टिकाऊ एवं चिरस्थायी माना जाता था कि स्वयं राजा या राजपुरुष भी इनके पास अक्षयनिधि (न लौटाया जाने वाला धन) रखा करते थे। धन को जमा करने की बात को निगम-सभा के सम्मुख भी सुनाया जाता था। 20 सामूहिक सहमति और सर्वकल्याण की भावना के आधार पर गठित उन व्यापारिक संगठनों को व्यापक अधिकार प्राप्त थे। किंतु यह आधिकारिता तभी तक मान्य थी, जब तक कि समूह अपने और राज्य के हित में कल्याण के कार्यक्रमों का संपादन करें. उन्हें किसी प्रकार का राष्ट्रविरोधी अथवा जनविरोधी कार्य करने की अनुमति नहीं थी। राजा को ऐसे समूहों पर नियंत्रण करने का शास्त्रोक्त अधिकार प्राप्त था। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इन अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या की है। वैसे भी आर्थिक उपलब्धियों को नीति, मर्यादा एवं सामाजिक शुचिता द्वारा नियंत्रित एवं मर्यादित करने की परंपरा भारतीय समाज में आदिकाल से ही रही है, जिसे प्रायः सभी धर्मग्रंथों में सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ है। भारतीय परंपरा में अर्थनीति विषयक एक सिद्धांत है, उसके अनुसार— ‘जिस मनुष्य का आर्थिक जीवन शुद्ध है—वह स्वयं भी शुद्ध है। 21 इसका सीधा-सा आशय है कि नैतिक पवित्रता के लिए व्यक्ति को अपने आर्थिक जीवन की पवित्रता का ध्यान रखना अत्यावश्यक है। बिना आर्थिक जीवन में पवित्रता लाए सामाजिक जीवन में शुद्धता संभव नहीं है। परोक्ष रूप में यह सिद्धांत जहां मानव जीवन में अर्थ की महत्ता को स्वीकार करता है, वहीं उसकी प्राप्ति के मार्ग को भी मर्यादित करता हुआ चलता है।
उपसंहार
आर्थिक जीवन में पवित्रता और नैतिक मर्यादाओं पर जोर, ये भावनाएं भारतीय समाज में मौजूद तत्कालीन लोकोन्मुखी व्यवस्थाओं की ओर संकेत करती हैं। साफ है कि उन दिनों भारतीय समाज में सहकारिता भले ही उस रूप में मौजूद न रही हो, जैसा कि हम आज उसको देखते हैं, मगर वह सिद्धांत और भावनात्मक रूप भारतीय चिंतन परंपरा सहकारिता की भावना के बहुत निकट है। यहाँ ध्यान रखना होगा कि प्राचीन समाज में जनसाधारण शैक्षिक रूप में भले ही बहुत अधिक उन्नत न हों—बड़े-बड़े शास्त्रों का अध्ययन-मनन करने में भी वे भले ही असमर्थ रहते हों, किंतु मानव सभ्यता के प्रत्येक कालखंड व्यावहारिक ज्ञान की उनमें प्रचुरता ही रही है। सभ्यता के प्रारंभिक दौर में भी भारतीय समाज में लगभग वे सभी व्यवस्थाएँ मौजूद थीं, जिन्हें समाज कल्याण की अनिवार्यता माना जाता है। जहाँ तक सहकारी समूहों की व्याप्ति की बात है, प्रोफेसर आर.सी. मजूमदार ने 27 प्रकार की समितियों का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत में सहकारी जीवन’ Cooperative Life in Ancient India) में किया है। एक अन्य स्थान पर कात्यायन ने लिखा है कि समितियाँ कई प्रकार की होती थीं और उन्हें कई नामों से पुकारा जाता था। डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत की शासन-संस्थाएं एवं राजनीतिक विचार में बौद्ध ग्रंथों के हवाले से लिखा है कि उन दिनों अठारह प्रकार की श्रेणियां थीं। इसी प्रकार कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में अठारह प्रकार के व्यापार समूहों का उल्लेख किया है, जिनका उस समय के समाज एवं शासन पर व्यापक प्रभाव था।
भारत के प्राचीन वैज्ञानिक

पाश्चात्य वैज्ञानिकों के बारे मे विश्व के अधिकाँश लोगों को काफी जानकारी है। विद्यालयों मे भी इस विषय पर काफी कुछ पढ़ाया जाता है। पर बड़े खेद की बात है कि प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिकों के बारे मे आज भी संसार बहुत कम जानता है। हमारे देश के विद्यार्थियों को भी अपने देश के चरक, सुश्रुत, आर्यभट तथा भास्कराचार्य आदि चोटी के प्राचीन वैज्ञानिकों के कृतित्व की जानकारी शायद नहीं होगी। आचार्य कणाद परमाणु संरचना पर सर्वप्रथम प्रकाश डालने वाले महापुरूष आचार्य कणाद का जन्म ६०० ईसा पूर्व हुआ थाI उनका नाम आज भी डॉल्टन के साथ जोडा जाता हैं, क्योंकि पहले कणाद ने बताया था कि पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म कणों से बना हुआ हैंI उनका यह विचार दार्शनिक था, उन्होंने इन सूक्ष्म कणों को परमाणु नाम दियाI बाद में डॉल्टन ने परमाणु का सिद्धांत प्रस्तुत कियाI परमाणु को अंग्रेजी भाषा में एटम कहते हैंI कणाद का कहना था– "यदि किसी पदार्थ को बार-बार विभाजित किया जाए और उसका उस समय तक विभाजन होता रहे, जब तक वह आगे विभाजित न हो सके, तो इस सूक्ष्म कण को परमाणु कहते हैंI परमाणु स्वतंत्र रूप से नहीं रह सकतेI परमाणु का विनाश कर पाना भी सम्भव नहीं हैंI"
बौधायन,
चरक,
कौमारभृत्य जीवक,
सुश्रुत,
आर्यभट,
वराह मिहिर,
ब्रह्मगुप्त,
वाग्भट,
नागार्जुन
भास्कराचार्य

बौधायन
बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता थे।
ज्यामिति के विषय में प्रमाणिक मानते हुए सारे विश्व में यूक्लिड की ही ज्यामिति पढ़ाई जाती है। मगर यह स्मरण रखना चाहिए कि महान यूनानी ज्यामितिशास्त्री यूक्लिड से पूर्व ही भारत में कई रेखागणितज्ञ ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज कर चुके थे, उन रेखागणितज्ञों में बौधायन का नाम सर्वोपरि है। उस समय भारत में रेखागणित या ज्यामिति को शुल्व शास्त्रभी कहा जाता था।

अनुक्रम
1बौधायन के सूत्र ग्रन्थ
2बौधायन प्रमेय या पाइथागोरस प्रमेय
32 का वर्गमूल
4वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल के वृत्त का निर्माण
5वृत्त के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल के वर्ग का निर्माण
6बौधायन के अन्य प्रमेय
7नाम में द्विरूपता
8सन्दर्भ
9इन्हें भी देखें
10बाहरी कड़ियाँ
बौधायन के सूत्र ग्रन्थ
बौधायन के सूत्र वैदिक संस्कृत में हैं तथा धर्म, दैनिक कर्मकाण्ड, गणित आदि से सम्बन्धित हैं। वे कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय शाखा से सम्बन्धित हैं। सूत्र ग्रन्थों में सम्भवतः ये प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनकी रचना सम्भवतः ८वीं-७वीं शताब्दी ईसापूर्व हुई थी।
बौधायन सूत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित ६ ग्रन्थ आते हैं-
1. बौधायन श्रौतसूत्र - यह सम्भवतः १९ प्रश्नों के रूप में है।
2. बौधायन कर्मान्तसूत्र - २१ अध्यायों में
3. बौधायन द्वैधसूत्र - ४ प्रश्न
4. बौधायन गृह्यसूत्र - ४ प्रश्न
5. बौधायन धर्मसूत्र - ४ प्रश्नों में
6. बौधायन शुल्बसूत्र - ३ अध्यायों में
सबसे बड़ी बात यह है कि बौधायन के शुल्बसूत्रों में आरम्भिक गणित और ज्यामिति के बहुत से परिणाम और प्रमेय हैं, जिनमें २ का वर्गमूल का सन्निकट मान, तथा पाइथागोरस प्रमेय का एक कथन शामिल है।
बौधायन प्रमेय या पाइथागोरस प्रमेय
समकोण त्रिभुज से सम्बन्धित पाइथागोरस प्रमेय सबसे पहले महर्षि बोधायन की देन है। पायथागोरस का जन्म तो ईसा के जन्म के 8 वी शताब्दी पहले हुआ था जबकि हमारे यहाँ इसे ईसा के जन्म के 15 वी शताब्दी पहले से ही ये पढ़ायी जाती थी। बौधायन का यह निम्न लिखित सूत्र है :
दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्णया रज्जुः पार्श्वमानी तिर्यग् मानी च यत् पृथग् भूते कुरूतस्तदुभयं करोति ॥
विकर्ण पर कोई रस्सी तानी जाय तो उस पर बने वर्ग का क्षेत्रफल ऊर्ध्व भुजा पर बने वर्ग तथा क्षैतिज भुजा पर बने वर्ग के योग के बराबर होता है।
यह कथन 'पाइथागोरस प्रमेय' का सबसे प्राचीन लिखित कथन है।
2 का वर्गमूल
बौधायन श्लोक संख्या i.61-2 (जो आपस्तम्ब i.6 में विस्तारित किया गया है) किसी वर्ग की भुजाओं की लम्बाई दिए होने पर विकर्ण की लम्बाई निकालने की विधि बताता है। दूसरे शब्दों में यह 2 का वर्गमूल निकालने की विधि बताता है।
समस्य द्विकर्णि प्रमाणं तृतीयेन वर्धयेत।
तच् चतुर्थेनात्मचतुस्त्रिंशोनेन सविशेषः। ।
किसी वर्ग का विकर्ण का मान प्राप्त करने के लिए भुजा में एक-तिहाई जोड़कर, फिर इसका एक-चौथाई जोड़कर, फिर इसका चौतीसवाँ भाग घटाकर जो मिलता है वही लगभग विकर्ण का मान है।
अर्थात्

यह मान दशमलव के पाँच स्थानों तक शुद्ध है।
वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल के वृत्त का निर्माण
चतुरस्रं मण्डलं चिकीर्षन्न् अक्षयार्धं मध्यात्प्राचीमभ्यापातयेत्।
यदतिशिष्यते तस्य सह तृतीयेन मण्डलं परिलिखेत्। । 
Draw half its diagonal about the centre towards the East-West line; then describe a circle together with a third part of that which lies outside the square.
अर्थात् यदि वर्ग की भुजा 2a हो तो वृत्त की त्रिज्या r = [a+1/3(√2a – a)] = [1+1/3(√2 – 1)] a
वृत्त के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल के वर्ग का निर्माण
मण्डलं चतुरस्रं चिकीर्षन्विष्कम्भमष्टौ भागान्कृत्वा भागमेकोनत्रिंशधा
विभाज्याष्टाविंशतिभागानुद्धरेत् भागस्य च षष्ठमष्टमभागोनम् ॥ 
If you wish to turn a circle into a square, divide the diameter into eight parts and one of these parts into twenty-nine parts: of these twenty-nine parts remove twenty-eight and moreover the sixth part (of the one part left) less the eighth part (of the sixth part).
बौधायन के अन्य प्रमेय
बौधायन द्वारा प्रतिपादित कुछ प्रमुख प्रमेय ये हैं-
किसी आयत के विकर्ण एक दूसरे को समद्विभाजित करते हैं।
समचतुर्भुज (रोम्बस) के विकर्ण एक-दूसरे को समकोण पर समद्विभाजित करते हैं
किसी वर्ग की भुजाओं के मध्य बिन्दुओं को मिलाने से बने वर्ग का क्षेत्रफल मूल वर्ग के क्षेत्रफल का आधा होता है।
किसी आयत की भुजाओं के मध्य बिन्दुओं को मिलाने से समचतुर्भुज बनता है जिसका क्षेत्रफल मूल आयत के क्षेत्रफल का आधा होता है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि बौधायन ने आयत, वर्ग, समकोण त्रिभुज समचतुर्भुज के गुणों तथा क्षेत्रफलों का विधिवत अध्ययन किया था। यज शायद उस समय यज्ञ के लिए बनायी जाने वाली 'यज्ञ भूमिका' के महत्व के कारण था।
नाम में द्विरूपता
"बौधायन" तथा "बौधायनीय" शब्दों के लिए "बोधायन" या "बोधायनीय" का प्रयोग दक्षिण भारत में बहुधा किया जाता है। परन्तु संभवतः यह गलत है क्योंकि -अयन शब्द के प्रयोग में पहले वर्ण का स्वर दीर्घ हो जाता है। [2] जैसे- "द्वैपायन", जो "द्वीप" व "अयन" पर विभिन्न व्याकरणीय नियम लगाकर बना है।
भारतीय गणित

गणितज्ञ
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ग्रन्थ ललितविस्तर सूत्र • आर्यभटीय • आर्यभट्ट सिद्धांत • लीलावती  • बख्शाली पाण्डुलिपि • ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त • पाटीगणित • करणपद्धति • महासिद्धान्त • पौलिष सिद्धांत • पितामह सिद्धान्त • सिद्धान्त शिरोमणि • सद्रत्नमाला • सूर्य सिद्धान्त • लोकविभाग • तन्त्रसंग्रह • वशिष्ठ सिद्धान्त • वेण्वारोह • युक्तिभाषा • यवनजातक • दशगीतिका • गणित कौमुदी • वैदिक गणित (पुस्तक)

सिद्धान्त एवं
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गणित के
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चरक
चरक




चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात हैं। वे कुषाण राज्य के राजवैद्य थे। इनके द्वारा रचित चरक संहिता एक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ है। इसमें रोगनाशक एवं रोगनिरोधक दवाओं का उल्लेख है तथा सोना, चाँदी, लोहा, पारा आदि धातुओं के भस्म एवं उनके उपयोग का वर्णन मिलता है। आचार्य चरक ने आचार्य अग्निवेश के अग्निवेशतन्त्र में कुछ स्थान तथा अध्याय जोड्कर उसे नया रूप दिया जिसे आज चरक संहिता के नाम से जाना जाता है । 300-200 ई. पूर्व लगभगआयुर्वेद के आचार्य महर्षि चरक की गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है।चरक की शिक्षा तक्षशिला में हुई ।इनका रचा हुआ ग्रंथ 'चरक संहिता' आज भी वैद्यक का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। इन्हें ईसा की प्रथम शताब्दी का बताते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि चरक कनिष्क के राजवैद्य थे परंतु कुछ लोग इन्हें बौद्ध काल से भी पहले का मानते हैं।आठवीं शताब्दी में इस ग्रंथ का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ और यह शास्त्र पश्चिमी देशों तक पहुंचा।चरक संहिता में व्याधियों के उपचार तो बताए ही गए हैं, प्रसंगवश स्थान-स्थान पर दर्शन और अर्थशास्त्र के विषयों की भी उल्लेख है।उन्होंने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थों और उसके ज्ञान को इकट्ठा करके उसका संकलन किया । चरक ने भ्रमण करके चिकित्सकों के साथ बैठकें की, विचार एकत्र किए और सिद्धांतों को प्रतिपादित किया और उसे पढ़ाई लिखाई के योग्य बनाया ।यह सब ठीक है।
परिचय
चरकसंहिता आयुर्वेद में प्रसिद्ध है। इसके उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु, ग्रंथकर्ता अग्निवेश और प्रतिसंस्कारक चरक हैं।
प्राचीन वाङ्मय के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उन दिनों ग्रंथ या तंत्र की रचना शाखा के नाम से होती थी। जैसे कठ शाखा में कठोपनिषद् बनी। शाखाएँ या चरण उन दिनों के विद्यापीठ थे, जहाँ अनेक विषयों का अध्ययन होता था। अत: संभव है, चरकसंहिता का प्रतिसंस्कार चरक शाखा में हुआ हो।
चरकसंहिता में पालि साहित्य के कुछ शब्द मिलते हैं, जैसे अवक्रांति, जेंताक (जंताक - विनयपिटक), भंगोदन, खुड्डाक, भूतधात्री (निद्रा के लिये)। इससे चरकसंहिता का उपदेशकाल उपनिषदों के बाद और बुद्ध के पूर्व निश्चित होता है। इसका प्रतिसंस्कार कनिष्क के समय 78 ई. के लगभग हुआ।
त्रिपिटक के चीनी अनुवाद में कनिष्क के राजवैद्य के रूप में चरक का उल्लेख है। किंतु कनिष्क बौद्ध था और उसका कवि अश्वघोष भी बौद्ध था, पर चरक संहिता में बुद्धमत का जोरदार खंडन मिलता है। अत: चरक और कनिष्क का संबंध संदिग्ध ही नहीं असंभव जान पड़ता है। पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में मत स्थिर करना कठिन है।
सन्दर्भ
दे
वा
सं
भारतीय विज्ञान

वैज्ञानिक
प्राचीन आर्यभट्ट • वराह मिहिर • चरक • सुश्रुत • बुद्धायान • हलायुध

मध्यकालीन चन्द्रशेखर वेङ्कट रामन् • जगदीश चन्द्र बसु • होमी जहाँगीर भाभा • बीरबल साहनी • ज्ञानचन्द्र घोष • प्रफुल्ल चन्द्र रॉय • शांति स्वरूप भटनागर • मेघनाद साहा • येल्लाप्रगदा सुब्बाराव • रंजन • सुन्दरलाल होरा

आधुनिक अब्दुल कलाम • हरगोविन्द खुराना • जयन्त विष्णु नार्लीकर • प्रो॰ यशपाल • पी॰ सी॰ महालनोबिस • वेंकटरामन् रामकृष्णन् • डॉ॰ नौतम भट्ट • अनिल काकोडकर • कैलाशनाथ कौल • के राधाकृष्णन • के कस्तूरीरंगन • गोपी कुमार पोदिला • बाबा कर्तारसिंह • अन्य


आविष्कार एवं सिद्धान्त रमण प्रभाव • चन्द्रशेखर सीमा • बोस-आइन्स्टाइन सांख्यिकी • हॉयल-नार्लीकर सिद्धान्त • क्रेस्कोग्राफ़ • साहा समीकरण

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जीवक
जीवक कौमारभच्च प्राचीन भारत के प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे। अनेक बौद्ध ग्रन्थों में उनके चिकित्सा-ज्ञान की व्यापक प्रशंसा मिलती है। वे बालरोगविशेषज्ञ थे। वे महात्मा बुद्ध के निजी वैद्य थे। वे बिम्बसार के शासनकाल में मगध की राजधानी, वर्तमान राजगीर) में एक गणिका के पुत्र के रूप में जन्मे थे। जन्म के पश्चात लोक लाज से बचाने हेतु उन्हें एक कूड़े के ढेर पर फेंक दिया गया था। सौभाग्य से उस पर सम्राट बिम्बिसार के पुत्र कुमार अभय की दृष्टि पड़ गई। कुमार ने उसके जीवन की रक्षा की तथा अपनी देख रेख में उसके भरण–पोषण का प्रबन्ध कर दिया। राजगृह में शिक्षा पूर्ण करने के बाद कुमार ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए तक्षशिला भेज दिया। वहाँ वे सात वर्ष तक चिकित्सा शास्त्र का सफलता पूर्वक अध्ययन किया। वे अत्रेय के शिष्य थे।
जीवनी
सम्राट बिम्बिसार के पुत्र अभय कुमार को वन में एक नवजात शिशु पड़ा मिला। उसे देखकर उसके भीतर करुणा उमड़ आई। वह शिशु को उठाकर घर ले आया। बच्चे का नाम रखा- जीवक। उसे खूब पढ़ाया-लिखाया। जब जीवक बड़ा हुआ तो एक दिन अचानक उसने अभय कुमार से पूछा, 'मेरे माता-पिता कौन हैं?' अभय कुमार को उसके इस प्रश्न पर आश्चर्य हुआ लेकिन उसने सोचा कि जीवक से कुछ भी छिपाना ठीक नहीं होगा। उसने उसे सारी बात बता दी कि किस तरह वह उसे जंगल में पड़ा मिला था। इस पर जीवक ने कहा, 'मैं आत्महीनता का भार लेकर कहां जाऊं?' इस पर अभय कुमार ने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा, 'वत्स, इस बात को लेकर दुखी होने की बजाय तक्षशिला जाओ और वहां एकाग्रचित्त होकर अध्ययन करो और अपने ज्ञान का प्रकाश समाज को दो।' जीवक विद्याध्ययन के लिए तक्षशिला चल पड़ा। प्रवेश के समय आचार्य ने नाम, पिता का नाम कुल और गोत्र पूछा तो उसने साफ-साफ सब कुछ बता दिया। आचार्य ने उसकी स्पष्टवादिता से प्रभावित होकर उसे प्रवेश दे दिया।
जीवक ने वहां कठोर परिश्रम किया और आयुर्वेदाचार्य की उपाधि हासिल की। उसके आचार्य चाहते थे कि वह मगध जाए और वहां रहकर लोगों की सेवा करे। जीवक उसी पुराने प्रश्न से लगातार उद्विग्न था। उसे परेशान देखकर आचार्य ने पूछा, 'वत्स तुम इस तरह उदास क्यों हो?' इस पर जीवक ने उत्तर दिया, 'आचार्य आप जानते हैं कि मेरा कोई कुल और गोत्र नहीं है। मैं जहां भी जाऊंगा, लोग मुझ पर उंगलियां उठाएंगे। क्या आप मुझे यहां अपने पास नहीं रख सकते, ताकि मैं आपकी सेवा करता रहूं।' आचार्य बोले, 'वत्स तुम्हारी योग्यता क्षमता, प्रतिभा और ज्ञान ही तुम्हारा कुल और गोत्र है। तुम जहां भी जाओगे, वहीं तुम्हें सम्मान मिलेगा। अभावग्रस्त प्राणियों की सेवा में अपने को समर्पित करना ही तुम्हारा धर्म है। इसी से तुम्हारी पहचान बनेगी। कर्म से ही मनुष्य की पहचान होती है कुल और गोत्र से नहीं।' इस तरह जीवक को आत्मविश्वास का प्रकाश मिला। वह आयुर्वेदाचार्य के रूप में मगध में प्रसिद्ध हो गया।
चिकित्सा कार्य
जीवक की योग्यता से पूर्ण संतुष्ट होकर आचार्य ने उसे वैद्य की उपाधि प्रदान कर दी और स्वतन्त्र रूप से चिकित्सा करने की अनुमति दे दी। आचार्य ने उसे कुछ धन भी दे दिया ताकि वह तक्षशिला से राजगृह तक जा सके। तक्षशिला से साकेत पहुँचने तक जीवक का धन खर्च हो गया। उसे अभी बहुत दूर जाना था। अतः धन की आवश्यकता थी। वह वहीं साकेत में रुक गया ताकि कुछ धन अर्जित कर ले। उसे ज्ञात हुआ कि एक सेठ की पत्नी बहुत दिनों से सिर के रोग से अस्वस्थ है और वैद्य उसे ठीक नहीं कर पा रहे हैं। जीवक ने उसका इलाज प्रारम्भ किया। उसने घी में कुछ जड़ी-बूटियाँ उबालीं और उसे महिला को नाक से पिला दिया। उसकी चिकित्सा से सेठ की पत्नी निरोग हो गई। सेठ उससे बहुत प्रसन्न हुआ और उसका बहुत उपकार माना। उसने जीवक को १६००० मुद्राएँ दीं तथा एक रथ, घोड़े और दो सेवक भी दिए। जीवक ने राजगृह लौट कर उसे कुमार अभय को दे दिया क्योंकि उसीने उसका पालन-पोषण किया था और उसकी शिक्षा का प्रबन्ध किया था। उन दिनों सम्राट बिम्बिसार भगंदर रोग से ग्रस्त थे जो आज भी लाइलाज बीमारी मानी जाती है। जीवक ने उनकी चिकित्सा की और स्वस्थ कर दिया। उसने अनेक असाध्य रोगों को ठीक किया जिससे उसकी ख्याति बहुत दूर तक फैल गई। काशी के एक सेठ ने उसे अपने पुत्र की चिकित्सा के लिए बुलाया जिसकी आंतें उलझ गई थीं। जीवक ने शल्य चिकित्सा द्वारा उसका पेट चीर कर आंतें ठीक कीं और पुनः पेट सिल दिया और चिकित्सा के लिए दवाएं दीं जिससे वह ठीक हो गया। इस सेठ ने भी जीवक को १६००० मुद्राएँ दीं। उज्जैन का राजा उद्योत पीलिया ग्रस्त था। उसने सम्राट बिम्बिसार से अनुरोध किया कुछ दिनों के लिए वे जीवक को उज्जैन भेज दें। औषधियुक्त घी से जीवक ने उन्हें भी स्वस्थ कर दिया। राजा ने उसका बहुत सत्कार किया तथा उसे बहुत से उपहार एवं बहुमूल्य वस्तुएं देकर विदा किया। जीवक ने महात्मा बुद्ध को भी कब्ज रोग से मुक्त किया था। भारतीय चिकित्सा शास्त्र में जीवक का नाम आज लगभग २५०० वर्ष बाद भी बहुत श्रद्धा से लिया जाता है।

सुश्रुत



सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है
परिचय
शल्य चिकित्सा (Surgery) के पितामह और 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व में काशी में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की। सुश्रुत संहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है।
सुश्रुत संहिता में सुश्रुत को विश्वामित्र का पुत्र कहा है। 'विश्वामित्र' से कौन से विश्वामित्र अभिप्रेत हैं, यह स्पष्ट नहीं। सुश्रुत ने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था। काशीपति दिवोदास का समय ईसा पूर्व की दूसरी या तीसरी शती संभावित है। सुश्रुत के सहपाठी औपधेनव, वैतरणी आदि अनेक छात्र थे। सुश्रुत का नाम नावनीतक में भी आता है। अष्टांगसंग्रह में सुश्रुत का जो मत उद्धृत किया गया है; वह मत सुश्रुत संहिता में नहीं मिलता; इससे अनुमान होता है कि सुश्रुत संहिता के सिवाय दूसरी भी कोई संहिता सुश्रुत के नाम से प्रसिद्ध थी।
सुश्रुत के नाम पर आयुर्वेद भी प्रसिद्ध हैं। यह सुश्रुत राजर्षि शालिहोत्र के पुत्र कहे जाते हैं (शालिहोत्रेण गर्गेण सुश्रुतेन च भाषितम् - सिद्धोपदेशसंग्रह)। सुश्रुत के उत्तरतंत्र को दूसरे का बनाया मानकर कुछ लोग प्रथम भाग को सुश्रुत के नाम से कहते हैं; जो विचारणीय है। वास्तव में सुश्रुत संहिता एक ही व्यक्ति की रचना है।
सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी। सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ओपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया गया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोडऩे में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। मद्य संज्ञाहरण का कार्य करता था। इसलिए सुश्रुत को संज्ञाहरण का पितामह भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सुश्रुत को मधुमेह व मोटापे के रोग की भी विशेष जानकारी थी। सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शारीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे। सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। इन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर सरंचना, काय चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी।

आर्यभट
आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।[1] इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की।


आर्यभट का जन्म-स्थान
यद्यपि आर्यभट के जन्म के वर्ष का आर्यभटीय में स्पष्ट उल्लेख है, उनके जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विवाद है। कुछ मानते हैं कि वे नर्मदा और गोदावरी के मध्य स्थित क्षेत्र में पैदा हुए थे, जिसे अश्मक के रूप में जाना जाता था और वे अश्माका की पहचान मध्य भारत से करते हैं जिसमे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल है, हालाँकि आरंभिक बौद्ध ग्रन्थ अश्माका को दक्षिण में, दक्षिणापथ या दक्खन के रूप में वर्णित करते हैं, जबकि अन्य ग्रन्थ वर्णित करते हैं कि अश्माका के लोग अलेक्जेंडर से लड़े होंगे, इस हिसाब से अश्माका को उत्तर की तरफ और आगे होना चाहिए। [2]
एक ताजा अध्ययन के अनुसार आर्यभट, केरल के चाम्रवत्तम (१०उत्तर५१, ७५पूर्व४५) के निवासी थे। अध्ययन के अनुसार अस्मका एक जैन प्रदेश था जो कि श्रवणबेलगोल के चारों तरफ फैला हुआ था और यहाँ के पत्थर के खम्बों के कारण इसका नाम अस्मका पड़ा। चाम्रवत्तम इस जैन बस्ती का हिस्सा था, इसका प्रमाण है भारतापुझा नदी जिसका नाम जैनों के पौराणिक राजा भारता के नाम पर रखा गया है। आर्यभट ने भी युगों को परिभाषित करते वक्त राजा भारता का जिक्र किया है- दसगीतिका के पांचवें छंद में राजा भारत के समय तक बीत चुके काल का वर्णन आता है। उन दिनों में कुसुमपुरा में एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था जहाँ जैनों का निर्णायक प्रभाव था और आर्यभट का काम इस प्रकार कुसुमपुरा पहुँच सका और उसे पसंद भी किया गया।[3]
हालाँकि ये बात काफी हद तक निश्चित है कि वे किसी न किसी समय कुसुमपुरा उच्च शिक्षा के लिए गए थे और कुछ समय के लिए वहां रहे भी थे।[4] भास्कर I (६२९ ई.) ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में वे वहां रहा करते थे। यह वह समय था जिसे भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है, विष्णुगुप्त के पूर्व बुद्धगुप्त और कुछ छोटे राजाओं के साम्राज्य के दौरान उत्तर पूर्व में हूणों का आक्रमण शुरू हो चुका था।
आर्यभट अपनी खगोलीय प्रणालियों के लिए सन्दर्भ के रूप में श्रीलंका का उपयोग करते थे और आर्यभटीय में अनेक अवसरों पर श्रीलंका का उल्लेख किया है।[तथ्य वांछित]
कृतियाँ
आर्यभट द्वारा रचित तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- 'आर्यभट सिद्धांत'। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।[5]
उन्होंने आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। उन्होंने अपने आर्यभटीय नामक ग्रन्थ में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।[6] आर्यभट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित कींं।
उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय, गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धृत किया गया है और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वाड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं।
आर्य-सिद्धांत, खगोलीय गणनाओं पर एक कार्य है जो अब लुप्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें आर्यभट के समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से प्राप्त होती है, साथ ही साथ बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों के द्वारा भी मिलती है जिनमें शामिल हैं ब्रह्मगुप्त और भास्कर I. ऐसा प्रतीत होता है कि ये कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इसमे अनेक खगोलीय उपकरणों का वर्णन शामिल है, जैसे कि नोमोन(शंकु-यन्त्र), एक परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), संभवतः कोण मापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र / चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, एक छत्र-आकर का उपकरण जिसे छत्र- यन्त्र कहा गया है और कम से कम दो प्रकार की जल घड़ियाँ- धनुषाकार और बेलनाका
एक तीसरा ग्रन्थ जो अरबी अनुवाद के रूप में अस्तित्व में है, अल न्त्फ़ या अल नन्फ़ है, आर्यभट के एक अनुवाद के रूप में दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका संस्कृत नाम अज्ञात है। संभवतः ९ वी सदी के अभिलेखन में, यह फारसी विद्वान और भारतीय इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है
आर्यभटीय
मुख्य लेख आर्यभटीय
आर्यभट के कार्य के प्रत्यक्ष विवरण सिर्फ़ आर्यभटीय से ही ज्ञात हैं। आर्यभटीय नाम बाद के टिप्पणीकारों द्वारा दिया गया है, आर्यभट ने स्वयं इसे नाम नहीं दिया होगा; यह उल्लेख उनके शिष्य भास्कर प्रथम ने अश्मकतंत्र या अश्माका के लेखों में किया है। इसे कभी कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट के १०८)- जो की उनके पाठ में छंदों की संख्या है- के नाम से भी जाना जाता है। यह सूत्र साहित्य के समान बहुत ही संक्षिप्त शैली में लिखा गया है, जहाँ प्रत्येक पंक्ति एक जटिल प्रणाली को याद करने के लिए सहायता करती है। इस प्रकार, अर्थ की व्याख्या टिप्पणीकारों की वजह से है। समूचे ग्रंथ में १०८ छंद है, साथ ही परिचयात्मक १३ अतिरिक्त हैं, इस पूरे को चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित किया गया है :
(1) गीतिकपाद : (१३ छंद) समय की बड़ी इकाइयाँ - कल्प, मन्वन्तर, युग, जो प्रारंभिक ग्रंथों से अलग एक ब्रह्माण्ड विज्ञान प्रस्तुत करते हैं जैसे कि लगध का वेदांग ज्योतिष, (पहली सदी ईसवी पूर्व, इनमेंं जीवाओं (साइन) की तालिका ज्या भी शामिल है जो एक एकल छंद में प्रस्तुत है। एक महायुग के दौरान, ग्रहों के परिभ्रमण के लिए ४.३२ मिलियन वर्षों की संख्या दी गयी है।
(२) गणितपाद (३३ छंद) में क्षेत्रमिति (क्षेत्र व्यवहार), गणित और ज्यामितिक प्रगति, शंकु/ छायाएँ (शंकु -छाया), सरल, द्विघात, युगपत और अनिश्चित समीकरण (कुट्टक) का समावेश है।
(३) कालक्रियापाद (२५ छंद) : समय की विभिन्न इकाइयाँ और किसी दिए गए दिन के लिए ग्रहों की स्थिति का निर्धारण करने की विधि। अधिक मास की गणना के विषय में (अधिकमास), क्षय-तिथियां। सप्ताह के दिनों के नामों के साथ, एक सात दिन का सप्ताह प्रस्तुत करते हैं।
(४) गोलपाद (५० छंद): आकाशीय क्षेत्र के ज्यामितिक /त्रिकोणमितीय पहलू, क्रांतिवृत्त, आकाशीय भूमध्य रेखा, आसंथि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण, क्षितिज पर राशिचक्रीय संकेतों का बढ़ना आदि की विशेषताएं।
इसके अतिरिक्त, कुछ संस्करणों अंत में कृतियों की प्रशंसा आदि करने के लिए कुछ पुष्पिकाएं भी जोड़ते हैं।
आर्यभटीय ने गणित और खगोल विज्ञान में पद्य रूप में, कुछ नवीनताएँ प्रस्तुत की, जो अनेक सदियों तक प्रभावशाली रही। ग्रंथ की संक्षिप्तता की चरम सीमा का वर्णन उनके शिष्य भास्कर प्रथम (भाष्य , ६०० और) द्वारा अपनी समीक्षाओं में किया गया है और अपने आर्यभटीय भाष्य (१४६५) में नीलकंठ सोमयाजी द्वारा।
आर्यभट का योगदान
भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'स्वर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।
आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।
उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है
आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी,यह उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। "गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है।
आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।
आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।
गणित
स्थानीय मान प्रणाली और शून्य
स्थान-मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पाण्डुलिपि में देखा गया, उनके कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी।[7] उन्होंने निश्चित रूप से प्रतीक का उपयोग नहीं किया, परन्तु फ्रांसीसी गणितज्ञ जार्ज इफ्रह के मतानुसार- रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।
हालांकि, आर्यभट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया था; वैदिक काल से चली आ रही संस्कृत परंपरा को निरंतर रखते हुए उन्होंने संख्या को निरूपित करने के लिए वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया, मात्राओं (जैसे ज्याओं की तालिका) को स्मरक के रूप में व्यक्त करना।
अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में π
आर्यभट ने पाई ( ) के सन्निकटन पर कार्य किया और संभवतः उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया था कि पाई इर्रेशनल है। आर्यभटीयम् (गणितपाद) के दूसरे भाग में वे लिखते हैं:
चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥
१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें। इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है।
(१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६
इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १००) × ८ + ६२०००) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है।
आर्यभट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला, शब्द की व्याख्या की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह कि मूल्य अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। यदि यह सही है, तो यह एक अत्यन्त परिष्कृत दृष्टिकोण है, क्योंकि यूरोप में पाइ की तर्कहीनता का सिद्धांत लैम्बर्ट द्वारा केवल १७६१ में ही सिद्ध हो पाया था
आर्यभटीय के अरबी में अनुवाद के पश्चात् (पूर्व.८२० ई.) बीजगणित पर मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी की पुस्तक में इस सन्निकटन का उल्लेख किया गया था।
क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति
गणितपाद ६ में, आर्यभट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है-
त्रिभुजस्य फलशरीरं समदलकोटि भुजार्धसंवर्गः
इसका अनुवाद यह है : किसी त्रिभुज का क्षेत्रफल, लम्ब के साथ भुजा के आधे के (गुणनफल के) परिणाम के बराबर होता है।[12]
आर्यभट ने अपने काम में द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसको नाम दिया है अर्ध-ज्या इसका शाब्दिक अर्थ है "अर्ध-तंत्री"। आसानी की वजह से लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दिया। जब अरबी लेखकों द्वारा उनके काम का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया गया, तो उन्होंने इसको जिबा कहा (ध्वन्यात्मक समानता के कारणवश)। चूँकि, अरबी लेखन में, स्वरों का इस्तेमाल बहुत कम होता है, इसलिए इसका और संक्षिप्त नाम पड़ गया ज्ब। जब बाद के लेखकों को ये समझ में आया कि ज्ब जिबा का ही संक्षिप्त रूप है, तो उन्होंने वापिस जिबा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिबा का अर्थ है "खोह" या "खाई" (अरबी भाषा में जिबा का एक तकनीकी शब्द के आलावा कोई अर्थ नहीं है)। बाद में बारहवीं सदी में, जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इन लेखनों का अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद किया, तब उन्होंने अरबी जिबा की जगह उसके लेटिन समकक्ष साइनस को डाल दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ "खोह" या खाई" ही है। और उसके बाद अंग्रेजी में, साइनस ही साइन बन गया।[13]
अनिश्चित समीकरण
प्राचीन कल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक हल ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरूप में होती है, एक विषय जिसे वर्तमान समय में डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है। यहाँ आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण देते हैं:
वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है।
अर्थात, बताएं N = 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है। सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे। इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पू. तक पुराने हो सकते हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है। kuṭṭaka कुुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था। आज यह कलनविधि, ६२१ ईसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है।[14] डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया।
बीजगणित
आर्यभटीय में आर्यभट ने वर्गों और घनों की श्रेणी के रोचक परिणाम प्रदान किये हैं।[15]

और

खगोल विज्ञान
आर्यभट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, (श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर उदय, भोर होने से दिनों की शुरुआत होती थी।) खगोल विज्ञान पर उनके बाद के लेख, जो सतही तौर पर एक द्वितीय मॉडल (अर्ध-रात्रिका, मध्यरात्रि), प्रस्तावित करते हैं, खो गए हैं, परन्तु इन्हे आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से पुनः निर्मित किया जा सकता है। कुछ ग्रंथों में वे पृथ्वी के घूर्णन को आकाश की आभासी गति का कारण बताते हैं।
सौर प्रणाली की गतियाँ
प्रतीत होता है कि आर्यभट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है। यह श्रीलंका को सन्दर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है।
अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्।
अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लंकायाम् ॥ (आर्यभटीय गोलपाद ९)
जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है।
अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है:
उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्।
लंका-सम-पश्चिम-गस् भ-पंजरस् स-ग्रहस् भ्रमति ॥ (आर्यभटीय गोलपाद १०)
"उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं।
लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक सन्दर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था।
आर्यभट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है पृथ्वी की। इस मॉडल में, जो पाया जाता है पितामहसिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंद (धीमा) ग्रहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) ग्रहचक्र। [16] पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है : चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूरज, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्र[2]
ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं और मंगल, बृहस्पति और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं। खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि ग्रहचक्र वाला मॉडल टॉलेमी के पहले के ग्रीक खगोल विज्ञानके तत्वों को प्रदर्शित करता है।[17] आर्यभट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका, सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है।
ग्रहण
उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया। इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७) और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८) और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना। बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था। यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतीयों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे।
आर्यभट कि गणना के
अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनकी गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी।
नक्षत्रों के आवर्तकाल
समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि)) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी।
सूर्य केंद्रीयता
आर्यभट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी ग्रहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं। एक समीक्षा में इस सूर्य केन्द्रित व्याख्या का विस्तृत खंडन है। यह समीक्षा बी.एल. वान डर वार्डेन की एक किताब का वर्णन इस प्रकार करती है "यह किताब भारतीय गृह सिद्धांत के विषय में अज्ञात है और यह आर्यभट के प्रत्येक शब्द का सीधे तौर पर विरोध करता है,".हालाँकि कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट की प्रणाली पूर्व के एक सूर्य केन्द्रित मॉडल से उपजी थी जिसका ज्ञान उनको नहीं था यह भी दावा किया गया है कि वे ग्रहों के मार्ग को अंडाकार मानते थे, हालाँकि इसके लिए कोई भी प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है। हालाँकि सामोस के एरिस्तार्चुस (तीसरी शताब्दी ई.पू.) और कभी कभार पोन्टस के हेराक्लिड्स(चौथी शताब्दी ई.पू.) को सूर्य केन्द्रित सिद्धांत की जानकारी होने का श्रेय दिया जाता है, प्राचीन भारत में ज्ञात ग्रीक खगोलशास्त्र(पौलिसा सिद्धांत - संभवतः अलेक्ज़न्द्रिया के किसी पॉल द्वारा) सूर्य केन्द्रित सिद्धांत के विषय में कोई चर्चा नहीं करता है।
विरासत
भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इन्होंने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक निर्मित किया।
वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के गलत (अपभ्रंश) उच्चारण हैं। उन्हें अरबी में जिबा और कोजिबा के रूप में उच्चारित किया गया था। फिर एक अरबी ज्यामिति पाठ के लैटिन में अनुवाद के दौरान क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा इनकी गलत व्याख्या की गयी; उन्होंने जिबा के लिए अरबी शब्द 'जेब' लिया जिसका अर्थ है "पोशाक में एक तह", एल साइनस (सी.११५०).
आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती थी। और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (११वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (१२वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में इस्तेमाल में रही।
आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हे इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे १०७३ में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया,[26] जिसके संस्करण (१९२५ में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी।
भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट, को उनका नाम दिया गया।चंद्र खड्ड आर्यभट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है। खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है।
अंतर्विद्यालयीय आर्यभट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है। बैसिलस आर्यभट, इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा २००९ में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है।

वराह मिहिर

वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे।
उज्जैन में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा। वरःमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मेधावी और तेजस्वी थे। अपने पिता आदित्यदास से परम्परागत गणित एवं ज्योतिष सीखकर इन क्षेत्रों में व्यापक शोध कार्य किया। समय मापक घट यन्त्र, इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण और ईरान के शहंशाह नौशेरवाँ के आमन्त्रण पर जुन्दीशापुर नामक स्थान पर वेधशाला की स्थापना - उनके कार्यों की एक झलक देते हैं। वरःमिहिर का मुख्य उद्देश्य गणित एवं विज्ञान को जनहित से जोड़ना था। वस्तुतः ऋग्वेद काल से ही भारत की यह परम्परा रही है। वरःमिहिर ने पूर्णतः इसका परिपालन किया है।


जीवनी
वराहमिहिर का जन्म सन् ४९९ में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। यह परिवार उज्जैन में शिप्रा नदी के निकट कपित्थ(कायथा) नामक गांव का निवासी था। उनके पिता आदित्यदास सूर्य भगवान के भक्त थे। उन्हीं ने मिहिर को ज्योतिष विद्या सिखाई। कुसुमपुर (पटना) जाने पर युवा मिहिर महान खगोलज्ञ और गणितज्ञ आर्यभट्ट से मिले। इससे उसे इतनी प्रेरणा मिली कि उसने ज्योतिष विद्या और खगोल ज्ञान को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया। उस समय उज्जैन विद्या का केंद्र था। गुप्त शासन के अन्तर्गत वहां पर कला, विज्ञान और संस्कृति के अनेक केंद्र पनप रहे थे। वराह मिहिर इस शहर में रहने के लिये आ गये क्योंकि अन्य स्थानों के विद्वान भी यहां एकत्र होते रहते थे। समय आने पर उनके ज्योतिष ज्ञान का पता विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय को लगा। राजा ने उन्हें अपने दरबार के नवरत्नों में शामिल कर लिया। मिहिर ने सुदूर देशों की यात्रा की, यहां तक कि वह यूनान तक भी गये। सन् ५८७ में महान गणितज्ञ वराहमिहिर की मृत्यु हो गई।
कृतियाँ
550 ई. के लगभग इन्होंने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका, लिखीं। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो वराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं।
पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित पाँच सिद्धांतों का वर्णन है। ये सिद्धांत हैं : पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत। वराहमिहिर ने इन पूर्वप्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से 'बीज' नामक संस्कार का भी निर्देश किया है, जिससे इन सिद्धांतों द्वारा परिगणित ग्रह दृश्य हो सकें। इन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक, बृहज्जातक तथा बृहत्संहिता नामक तीन ग्रंथ भी लिखे हैं। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन-निर्माण-कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि विषय सम्मिलित हैं।
अपनी पुस्तक के बारे में वराहमिहिर कहते है:
ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है और हर कोई इसे आसानी से पार नहीं कर सकता। मेरी पुस्तक एक सुरक्षित नाव है, जो इसे पढ़ेगा वह उसे पार ले जायेगी।
यह कोरी शेखी नहीं थी। इस पुस्तक को अब भी ग्रन्थरत्न समझा जाता है।
कृतियों की सूची
पंचसिद्धान्तिका,
बृहज्जातकम्,
लघुजातक,
बृहत्संहिता
टिकनिकयात्रा
बृहद्यात्रा या महायात्रा
योगयात्रा या स्वल्पयात्रा
वृहत् विवाहपटल
लघु विवाहपटल
कुतूहलमंजरी
दैवज्ञवल्लभ
लग्नवाराहि
वैज्ञानिक विचार तथा योगदान
बराहमिहिर वेदों के ज्ञाता थे मगर वह अलौकिक में आंखे बंद करके विश्वास नहीं करते थे। उनकी भावना और मनोवृत्ति एक वैज्ञानिक की थी। अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिक आर्यभट्ट की तरह उन्होंने भी कहा कि पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि कोई शक्ति ऐसी है जो चीजों को जमीन के साथ चिपकाये रखती है। आज इसी शक्ति को गुरुत्वाकर्षण कहते है। लेकिन उन्होंने एक बड़ी गलती भी की। उन्हें विश्वास था कि पृथ्वी गतिमान नहीं है।
अगर यह घूम रही होती तो पक्षी पृथ्वी की गति की विपरीत दिशा में (पश्चिम की ओर) कर अपने घोसले में उसी समय वापस पहुंच जाते।
वराहमिहिर ने पर्यावरण विज्ञान (इकालोजी), जल विज्ञान (हाइड्रोलोजी), भूविज्ञान (जिआलोजी) के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां की। उनका कहना था कि पौधे और दीमक जमीन के नीचे के पानी को इंगित करते हैं। आज वैज्ञानिक जगत द्वारा उस पर ध्यान दिया जा रहा है। उन्होंने लिखा भी बहुत था। संस्कृत व्याकरण में दक्षता और छंद पर अधिकार के कारण उन्होंने स्वयं को एक अनोखी शैली में व्यक्त किया था। अपने विशद ज्ञान और सरस प्रस्तुति के कारण उन्होंने खगोल जैसे शुष्क विषयों को भी रोचक बना दिया है जिससे उन्हें बहुत ख्याति मिली। उनकी पुस्तक पंचसिद्धान्तिका (पांच सिद्धांत), बृहत्संहिता, बृहज्जात्क (ज्योतिष) ने उन्हें फलित ज्योतिष में वही स्थान दिलाया है जो राजनीति दर्शन में कौटिल्य का, व्याकरण में पाणिनि का है।
त्रिकोणमित
निम्ननिखित त्रिकोणमितीय सूत्र वाराहमिहिर ने प्रतिपादित किये हैं-।



वाराहमिहिर ने आर्यभट्ट प्रथम द्वारा प्रतिपादित ज्या सारणी को और अधिक परिशुद्धत बनाया।
अंकगणित
वराहमिहिर ने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया।
संख्या सिद्धान्
वराहमिहिर 'संख्या-सिद्धान्त' नामक एक गणित ग्रन्थ के भी रचयिता हैं जिसके बारे में बहुत कम ज्ञात है। इस ग्रन्थ के बारे में पूरी जानकारी नहीं है क्योंकि इसका एक छोटा अंश ही प्राप्त हो पाया है। प्राप्त ग्रन्थ के बारे में पुराविदों का कथन है कि इसमें उन्नत अंकगणित, त्रिकोणमिति के साथ-साथ कुछ अपेक्षाकृत सरल संकल्पनाओं का भी समावेश है।
क्रमचय-संचय
वराहमिहिर ने वर्तमान समय में पास्कल त्रिकोण (Pascal's triangle) के नाम से प्रसिद्ध संख्याओं की खोज की। इनका उपयोग वे द्विपद गुणाकों (binomial coefficients) की गणना के लिये करते थे।
प्रकाशिकT
वराहमिहिर का प्रकाशिकी में भी योगदान है। उन्होने कहा है कि परावर्तन कणों के प्रति-प्रकीर्णन (back-scattering) से होता है। उन्होने अपवर्तन की भी व्याख्या की है
ब्रह्मगुप्त


ब्रह्मगुप्त का प्रमेय, इसके अनुसार AF = FD.
ब्रह्मगुप्त (५९८-६६८) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)।
ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की है। प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी, भास्कराचार्य, ने अपने सिद्धांत को आधार माना है और बहुत स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है।


जीवन परिचय
ब्रह्मगुप्त आबू पर्वत तथा लुणी नदी के बीच स्थित, भीनमाल नामक ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम जिष्णु था। इनका जन्म शक संवत् ५२० में हुआ था। इन्होंने प्राचीन ब्रह्मपितामहसिद्धांत के आधार पर ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त तथा खण्डखाद्यक नामक करण ग्रंथ लिखे, जिनका अनुवाद अरबी भाषा में, अनुमानत: खलीफा मंसूर के समय, सिंदहिंद और अल अकरंद के नाम से हुआ। इनका एक अन्य ग्रंथ 'ध्यानग्रहोपदेश' नाम का भी है। इन ग्रंथों के कुछ परिणामों का विश्वगणित में अपूर्व स्थान है।
आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म राजस्थान राज्य के भीनमाल शहर मे ईस्वी सन् ५९८ मे हुआ था। इसी कारण उन्हें ' भिल्लमालाआचार्य ' के नाम से भी कई जगह उल्लेखित किया गया है। यह शहर तत्कालीन गुजरात प्रदेश की राजधानी तथा हर्षवर्धन साम्राज्य के राजा व्याघ्रमुख के समकालीन माना जाता है।
गणितीय कार्य
'ब्रह्मस्फुटसिद्धांत' उनका सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक (negative) अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। ये नियम आज की समझ के बहुत करीब हैं। हाँ, एक अन्तर अवश्य है कि ब्रह्मगुप्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये: ०/० = ०.
"ब्रह्मस्फुटसिद्धांत" के साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित हैं। १२वां अध्याय, गणित, अंकगणितीय शृंखलाओं तथा ज्यामिति के बारे में है। १८वें अध्याय, कुट्टक (बीजगणित) में आर्यभट्ट के रैखिक अनिर्धार्य समीकरण (linear indeterminate equation, equations of the form ax − by = c) के हल की विधि की चर्चा है। (बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्धार्य समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम ‘कुट्टक’ है। ब्रह्मगुप्त ने उक्त प्रकरण के नाम पर ही इस विज्ञान का नाम सन् ६२८ ई. में ‘कुट्टक गणित’ रखा।)[1] ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों (Nx2 + 1 = y2) के हल की विधि भी खोज निकाली। इनकी विधि का नाम चक्रवाल विधि है। गणित के सिद्धान्तों का ज्योतिष में प्रयोग करने वाला वह प्रथम व्यक्ति था। उनके ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के द्वारा ही अरबों को भारतीय ज्योतिष का पता लगा। अब्बासिद ख़लीफ़ा अल-मंसूर (७१२-७७५ ईस्वी) ने बग़दाद की स्थापना की और इसे शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित किया। उसने उज्जैन के कंकः को आमंत्रित किया जिसने ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के सहारे भारतीय ज्योतिष की व्याख्या की। अब्बासिद के आदेश पर अल-फ़ज़री ने इसका अरबी भाषा में अनुवाद किया।
ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के क्षेत्रफल को उसके समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानान्तरित करने का भी यत्न किया।
ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है।
ब्रह्मगुप्त पाई (pi) (३.१४१५९२६५) का मान १० के वर्गमूल (३.१६२२७७६६) के बराबर माना।
ब्रह्मगुप्त अनावर्त वितत भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णाकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप में पाया जाता है और अनिर्धार्य वर्ग समीकरण, K y2 + 1 = x2, को भी हल करने का प्रयत्न किया।
ब्रह्मगुप्त का सूत्र
 प्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। उन्होने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं। ब्रह्मगुप्त ने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र (approximate formula) तथा यथातथ सूत्र (exact formula) भी दिया है।
चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का सन्निकट सूत्र:


चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का यथातथ सूत्र:

जहाँ t = चक्रीय चतुर्भुज का अर्धपरिमाप तथा p, q, r, s उसकी भुजाओं की नाप है। हेरोन का सूत्र, जो एक त्रिभुज के क्षेत्रफल निकालने का सूत्र है, इसका एक विशिष्ट रूप है।
भारतीय गणितज्ञ सूची
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त
खण्डखाद्यक
ब्रह्मगुप्त का सूत्र
ब्रह्मगुप्त सर्वसमिका
ब्रह्मगुप्त प्रमेय
ब्रह्मगुप्त मैट्रिक्स
ब्रह्मगुप्त अन्तर्वेशन सूत्र

भारतीय गणितज्ञों की सूची
श्रीनिवास रामानुजन्
सिन्धु सरस्वती सभ्यता से आधुनिक काल तक भारतीय गणित के विकास का कालक्रम नीचे दिया गया है। सरस्वती-सिन्धु परम्परा के उद्गम का अनुमान अभी तक ७००० ई पू का माना जाता है। पुरातत्व से हमें नगर व्यवस्था, वास्तु शास्त्र आदि के प्रमाण मिलते हैं, इससे गणित का अनुमान किया जा सकता है। यजुर्वेद में बड़ी-बड़ी संख्याओं का वर्णन है।[तथ्य वांछित]


ईसा पूर्व[संपादित करें]
याज्ञवल्क्य, शतपथ ब्राह्मण के एक श्रुतर्षि |
वेदत्रयी सम्बद्ध ज्योतिषविद्-
लगधमुनि, वेदांगज्योतिष के रचयिता। 1350 ई पू अ.स.
बौधायन, शुल्ब सूत्र 800 ई. पू अनुमानित समय
मानव,शुल्ब सूत्र 750 ई पू अ. स.
आपस्तम्ब, शुल्ब सूत्र 700 ई पू अ.स.
अक्षपाद गोतम, न्याय सूत्र 550 ई पू
कात्यायन, शुल्ब सूत्र 400 ई पू अ.स.
पाणिनि, 400 ई पू, अष्टाध्यायी
पिंगल, 400 ई पू छन्दशास्त्र
भरत मुनि, 400 ई पू, अलंकार शास्त्र, संगीत
ईस्वी सन् 1-1000
आर्यभट - 476-550, ज्योतिष
यतिवृषभ (लगभग 500-570) - दूरी तथा समय मापने की इकाइयों की समीक्षा
वराहमिहिर, ज्योतिष
भास्कर प्रथम, 620, ज्योतिष
ब्रह्मगुप्त - ज्योतिष
मतंग मुनि - संगीत
विरहाङ्क (750) -
श्रीधराचार्य 750
लल्ल, 720-790, ज्योतिष
गोविन्दस्वामिन् (850)
वीरसेन
महावीर (850)
जयदेव (850)
पृथूदक, 850
हलायुध, 850
आर्यभट २, 920-1000, ज्योतिष
वटेश्वर (930)
ईस्वी सन् 1000-1800
ब्रह्मदेव, 1060-1130
श्रीपति, 1019-1066
गोपाल (1135 ई के पूर्व)
हेमचन्द्र (1088-1173)
भास्कर द्वितीय - ज्योतिष
गंगेश उपाध्याय, 1250, नव्य न्याय
पक्षधर, नव्य न्याय
शंकर मिश्र, नव्य न्याय
माधव - ज्योतिष
परमेश्वर (1360-1455), ज्योतिष
नीलकण्ठ सोमयाजि,1444-1545 - ज्योतिष
महेन्द्र सूरी (1450)
शंकर वारियर (c. 1530)
वासुदेव सार्वभौम, 1450-1525, नव्य न्याय
रघुनाथ शिरोमणि, (1475-1550), नव्य न्याय
ज्येष्ठदेव, 1500-1610, ज्योतिष
अच्युत पिशराटि, 1550-1621,
मथुरानाथ तर्कवागीश, c. 1575, नव्य न्याय
जगदीश तर्कालंकार, c. 1625, नव्य न्याय
गदाधर भट्टाचार्य, c. 1650, नव्य न्याय
मुनीश्वर (1650)
कमलाकर (1657)
जगन्नाथ सम्राट (1730)
ईस्वी सन् 19वीं सदी
श्रीनिवास रामानुजन् (1887-1920)
ए ए कृष्णस्वामी अयंगार (1892-1953)
प्रशान्त चन्द्र महालनोबिस (1893-1972
सत्येन्द्र नाथ बसु (1894-1974)
संजीव शाह (1803- 1896)
रघुनाथ पुरुषोत्तम परांजपे
ईस्वी सन् २०वीं सदी
राज चन्द्र बसु (1901-1987)
सुब्बय्या शिवशंकरनारायण पिल्लै (1901–1950)
तुरुक्कन्नपुरम विजयराघवन (1902–1955)
दत्तारय रामचन्द्र कापरेकर (1905–1986)
समरेन्द्र नाथ राय (1906–1964)
दामोदर धर्मानन्द कौशाम्बी (1907–1966)
सर्वदमन चावला (1907-1995)
Lakkoju Sanjeevaraya Sharma (1907–1998)
सुब्रह्मण्यन् चन्द्रशेखर (1910-1995)
S. S. Shrikhande (born 1917)
प्रह्लाद चुन्नीलाल वैद्य (1918-2010)
टेक्कथाअमायन्कोथकलाम सरस्वती अम्मा (1918-2000)[1]
अनिल कुमार गैन (1919–1978)
कलियमपुडि राधाकृष्ण राव (1920-)
हरीश चन्द्र (1923-1983)
P. K. Srinivasan (1924–2005)
रघु राज बहादुर (1924-1997)
Gopinath Kallianpur (1925-2015)
श्रीराम शंकर अभयंकर ( 1930–2012)
M. S. Narasimhan (born 1932)
C. S. Seshadri (born 1932)
K. S. S. Nambooripad (born 1935)
Ramaiyengar Sridharan (born 1935)
विनोद जौहरी (1935–2014)
K. R. Parthasarathy (born 1936)
Ramdas L. Bhirud (1937-1997)
S. Ramanan (born 1937)
प्रनव कुमार सेन (born 1937)
Veeravalli S. Varadarajan (born 1937)
जयन्त कुमार घोष (born 1937)
C. P. Ramanujam (1938–1974)
V. N. Bhat (1938–2009)
S. R. Srinivasa Varadhan (born 1940)
M. S. Raghunathan (born 1941)
वशिष्ठ नारायण सिंह (जन्म 1942)
S. B. Rao (born 1943)
गोपाल प्रसाद (born 1945)
Vijay Kumar Patodi (1945–1976)
S. G. Dani (born 1947)
Raman Parimala (born 1948)
Navin M. Singhi (born 1949)
Sujatha Ramdorai
R. Balasubramanian (born 1951)
M. Ram Murty (born 1953)
आलोक भार्गव (जनम् 1954)
रतन चन्द (born 1955)
(लक्ष्मण कातकर)(born 1955)
नरेन्द्र करमरकर (born 1957)
दिनेश ठाकुर (जन्म 1961)
मनीन्द्र अग्रवाल (born 1966)
मधुसूदन (born 1966)
चन्द्रशेखर खरे (born 1968)
U. S. R. Murty
L. Mahadevan
कपिल हरि परांजपे
Vijay Vazirani (born 1957)
Umesh Vazirani
Mahan Mj (born 1968)
Santosh Vempala (born 1971)
आनन्द कुमार (जन्म 1973)
Kannan Soundararajan (born 1973)
Kiran Kedlaya (born 1974)
मंजुल भार्गव (1975 -)
ऋतब्रत मुंशी (जन्म 1976)
सुभाष खोट (जन्म 1978)
सौरव चतर्जी (जन्म 1979)
नीना गुप्ता (जन्म 1984)
नयनदीप देका बरुआ (जन्म 1972)
अनुपम सैकिया
भारतीय गणित ग्रन्थ
1. वेदांग ज्योतिष -- लगध
2. बौधायन शुल्बसूत्र -- बौधायन
3. मानव शुल्बसूत्र -- मानव
4. आपस्तम्ब शुल्बसूत्र -- आपस्तम्ब
5. सूर्यप्रज्ञप्ति --
6. चन्द्रप्रज्ञप्ति --
7. स्थानांग सूत्र --
8. भगवती सूत्र --
9. अनुयोगद्वार सूत्र
10. बख्शाली पाण्डुलिपि
11. छन्दशास्त्र -- पिंगल
12. लोकविभाग -- सर्वनन्दी
13. आर्यभटीय -- आर्यभट प्रथम
14. आर्यभट्ट सिद्धांत -- आर्यभट प्रथम
15. दशगीतिका -- आर्यभट प्रथम
16. पंचसिद्धान्तिका -- वाराहमिहिर
17. महाभास्करीय -- भास्कर प्रथम
18. आर्यभटीय भाष्य -- भास्कर प्रथम
19. लघुभास्करीय -- भास्कर प्रथम
20. लघुभास्करीयविवरण -- शंकरनारायण
21. यवनजातक -- स्फुजिध्वज
22. ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त -- ब्रह्मगुप्त
23. करणपद्धति -- पुदुमन सोम्याजिन्
24. करणतिलक -- विजय नन्दी
25. गणिततिलक -- श्रीपति
26. सिद्धान्तशेखर -- श्रीपति
27. ध्रुवमानस -- श्रीपति
28. महासिद्धान्त -- आर्यभट द्वितीय
29. अज्ञात रचना -- जयदेव (गणितज्ञ), उदयदिवाकर की सुन्दरी नामक टीका में इनकी विधि का उल्लेख है।
30. पौलिसा सिद्धान्त --
31. पितामह सिद्धान्त --
32. रोमक सिद्धान्त --
33. सिद्धान्त शिरोमणि -- भास्कर द्वितीय
34. ग्रहगणित -- भास्कर द्वितीय
35. करणकौतूहल -- भास्कर द्वितीय
36. बीजपल्लवम् -- कृष्ण दैवज्ञ -- भास्कराचार्य के 'बीजगणित' की टीका
37. बुद्धिविलासिनी -- गणेश दैवज्ञ -- भास्कराचार्य के 'लीलावती' की टीका
38. गणितसारसंग्रह -- महावीराचार्य
39. सारसंग्रह गणितमु (तेलुगु) -- पावुलूरी मल्लन (गणितसारसंग्रह का अनुवाद)
40. वासनाभाष्य -- पृथूदक स्वामी -- ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त का भाष्य (८६४ ई)
41. पाटीगणित -- श्रीधराचार्य
42. पाटीगणितसार या त्रिशतिका -- श्रीधराचार्य
43. गणितपंचविंशिका -- श्रीधराचार्य
44. गणितसार -- श्रीधराचार्य
45. नवशतिका -- श्रीधराचार्य
46. क्षेत्रसमास -- जयशेखर सूरि (भूगोल/ज्यामिति विषयक जैन ग्रन्थ)
47. सद्रत्नमाला -- शंकर वर्मन ; पहले रचित अनेकानेक गणित-ग्रन्थों का सार
48. सूर्य सिद्धान्त -- रचनाकार अज्ञात ; वाराहमिहिर ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है।
49. तन्त्रसंग्रह -- नीलकण्ठ सोमयाजिन्
50. वशिष्ठ सिद्धान्त --
51. वेण्वारोह -- संगमग्राम के माधव
52. युक्तिभाषा या 'गणितन्यायसंग्रह' (मलयालम भाषा में) -- ज्येष्ठदेव
53. गणितयुक्तिभाषा (संस्कृत में) -- रचनाकार अज्ञात
54. युक्तिदीपिका -- शंकर वारियर
55. लघुविवृति -- शंकर वारियर
56. क्रियाक्रमकरी (लीलावती की टीका) -- शंकर वारियर और नारायण पण्डित ने सम्मिलित रूप से रची है।
57. भटदीपिका -- परमेश्वर (गणितज्ञ) -- आर्यभटीय की टीका
58. कर्मदीपिका -- परमेश्वर -- महाभास्करीय की टीका
59. परमेश्वरी -- परमेश्वर -- लघुभास्करीय की टिका
60. विवरण -- परमेश्वर -- सूर्यसिद्धान्त और लीलावती की टीका
61. दिग्गणित -- परमेश्वर -- दृक-पद्धति का वर्णन (१४३१ में रचित)
62. गोलदीपिका -- परमेश्वर -- गोलीय ज्यामिति एवं खगोल (१४४३ में रचित)
63. वाक्यकरण -- परमेश्वर -- अनेकों खगोलीय सारणियों के परिकलन की विधियाँ दी गयी हैं।
64. गणितकौमुदी -- नारायण पंडित
65. तगिकानि कान्ति -- नीलकान्त
66. यंत्रचिंतामणि -- कृपाराम
67. मुहर्ततत्व -- कृपाराम
68. भारतीय ज्योतिष (मराठी में) -- शंकर बालकृष्ण दीक्षित
69. दीर्घवृत्तलक्षण -- सुधाकर द्विवेदी
70. गोलीय रेखागणित -- सुधाकर द्विवेदी
71. समीकरण मीमांसा -- सुधाकर द्विवेदी
72. चलन कलन -- सुधाकर द्विवेदी
73. वैदिक गणित -- स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ
74. सिद्धान्ततत्वविवेक -- कमलाकर (१६५८)
75. रेखागणित -- जगन्नाथ सम्राट
76. सिद्धान्तसारकौस्तुभ -- जगन्नाथ सम्राट
77. सिद्धान्तसम्राट -- जगन्नाथ सम्राट (१७१८)
78. करणकौस्तुभ -- कृष्ण दैवज्ञ
79. गणितसारकौमुदी -- ठक्कर फेरू (१४वीं शताब्दी का पूर्वार्ध)
80. यन्त्रराज -- महेन्द्र सुरि (१३७० ई में) -- इसमें ७० RSine के मान दिये हैं।(R=३६००)
81. सिद्धान्तसुन्दर -- ज्ञानराज (1503)
82. सिद्धान्तराज -- नित्यानन्द (१६३९)
83. सिद्धान्तसार्वभौम -- मुनीश्वर (१६४६)
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त, ब्रह्मगुप्त की प्रमुख रचना है। यह संस्कृत मे है। इसकी रचना सन ६२८ के आसपास हुई। ध्यानग्रहोपदेशाध्याय को मिलाकर इसमें कुल पचीस (२५) अध्याय हैं। यह ग्रन्थ पूर्णतः काव्य रूप में लिखा गई है। 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' का अर्थ है - 'ब्रह्मगुप्त द्वारा स्फुटित (प्रकाशित) सिद्धान्त'।
इस ग्रन्थ में अन्य बातों के अलावा गणित के निम्नलिखित विषय वर्णित हैं-
शून्य की गणितीय भूमिका की अच्छी समझ है;
धनात्मक और ऋणात्मक दोनो प्रकार की संख्याओं के साथ गणितीय संक्रियाएँ करने के नियम दिए गये हैं;
वर्गमूल निकालने की एक विधि;
रैखिक समीकरणों तथा कुछ वर्ग समीकरणों के हल करने की विधियाँ;
गणितीय श्रेणियों का योग निकालने की विधियाँ;
ब्रह्मगुप्त सर्वसमिका (Brahmagupta's identity) तथा
ब्रह्मगुप्त प्रमेय मौजूद हैं।
संरचना
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में २५ अध्याय हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं-
(१) मध्यमाधिकारः (२) स्पष्टाधिकारः (३) त्रिप्रश्नाधिकारः (४) चन्द्रग्रहणाधिकारः (५) सूर्यग्रहणाधिकारः
(६) उदयास्ताधिकारः (७) चन्द्रशृंगोन्नत्यधिकारः (८) चन्द्रच्छायाधिकारः (९) ग्रहयुत्यधिकारः (१०) भग्रहयुत्यधिकारः
(११) तन्त्रपरीक्षाध्यायः (१२) गणिताध्यायः (१३) मध्यगतिप्रश्नोत्तराध्यायः (१४) स्फुटगत्युत्तराध्यायः (१५) त्रिप्रश्नोत्तराध्यायः
(१६) ग्रहणोत्तराध्यायः (१७) शृंगोन्नत्युत्तराध्यायः (१८) कुट्टकाध्यायः (१९) शंकुच्छायादिज्ञानाध्यायः (२०) छन्दश्चित्युत्तराध्यायः
(२१) गोलाध्यायः (२२) यन्त्राध्यायः (२३) मानाध्यायः (२४) संज्ञाध्यायः (२५) ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में दिए गए संख्या-सम्बन्धी नियम
ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त पहला ग्रन्थ है जिसमें धनात्मक संख्याओं, ऋणात्मक संख्याओं एवं शून्य से सम्बन्धित ठोस जानकारी मिलती है। इसमें मौजूद कुछ नियम नीचे दिए गए हैं-
दो धनात्मक राशियों का योग धनात्मक होता है।
दो ऋणात्मक राशियों का योग ऋणात्मक होता है।
शून्य तथा किसी ऋणात्मक संख्या का योग ऋणात्मक होता है।
शून्य तथा किसी धनात्मक संख्या का योग धनात्मक होता है।
शून्य में शून्य जोड़ने पर शून्य प्राप्त होता है।
एक धनात्मक संख्या तथा दूसरी ऋणात्मक संख्या का योग उनके अन्तर के बराबर होता है। और यदि वे दोनो बराबर हैं तो योग शून्य होगा।
घटाने में छोटी संख्या को बड़ी संख्या में से घटाना चाहिए।
किन्तु जब कभी छोटी संख्या से बड़ी संख्या को घटाते हैं तो अन्तर उलट जाता है।
जब किसी धनात्मक संख्या को ऋणात्मक संख्या से घटाना हो या ऋणात्मक संख्या को धनात्मक संख्या से घटाना हो तो उन दोनों को जोड़ा जाएगा।
किसी ऋणात्मक राशि तथा दूसरी धनात्मक राशि का गुणन ऋणात्मक होता है।
किसी ऋणात्मक संख्या को दूसरी ऋणात्मक संख्या से गुणा करने पर परिणाम धनात्मक होगा।
दो धनात्मक संख्याओं का गुणनफल धनात्मक होता है।
धनात्मक को धनात्मक से या ऋणात्म को ऋणात्मक से भाग देने पर परिणाम धनात्मक होगा।
धनात्मक को ऋणात्मक से भाग देने ऋणात्मक परिणाम आयेगा। ऋणात्मक को धनात्मक से भाग देने पर भी ऋणात्मक परिणाम आयेगा।
धनात्मक या ऋणात्मक संख्या को शून्य से भाग देने पर एक भिन्न प्राप्त होगा जिसका हर (डीनॉमिनेटर) शून्य होगा।
शून्य को किसी धनात्मक या ऋणात्मक संख्या से भाग देने पर परिणाम शून्य होगा या उस भिन्न के बराबर होगा जिसका अंश शून्य हो और हर एक सीमित संख्या हो।
शून्य को शून्य से भाग देने पर शून्य मिलता है।
ध्यान देने योग्य है कि अन्तिम तीन नियम सही नहीं हैं क्योंकि शून्य से भाग देना फिल्ड के लिए पारिभाषित नहीं है। किन्तु यह उससे भी महत्वपूर्ण है कि सबसे पहले शून्य से भाग देने की कोशिश की गई है।
खण्डखाद्यक
खण्डखाद्यक ब्रह्मगुप्त द्वारा रचित खगोलशास्त्र (ज्योतिष) ग्रन्थ है। इसकी रचना ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के बाद (६६५ ई में) हुई।
खण्डखाद्यक के दो भाग हैं-
(१) पूर्वखण्डखाद्यक - इसमें ९ अध्याय हैं। इसमें ब्रह्मगुप्त, आर्यभट द्वारा दिये गये खगोलीय नियतांकों का ही उपयोग करते हैं और आर्यभट की अर्धरातिका प्रणाली का उपयोग करते हैं किन्तु अपेक्षाकृत अधिक सरल नियम प्रतिपादित किये हैं।
(२) उत्तरखण्डखाद्यक - इसमें ६ अध्याय हैं। इसमें ब्रह्मगुप्त ने कई उन्नत नियम बताये हैं जो पहले उपलब्ध नहीं हैं। इस दृष्टि से यह भाग ज्योतिष के क्षेत्र में एक उल्लेखनीय प्रगति मानी जाती है। इनमें से कुछ नियम ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में भी दिये गये हैं।
ब्रह्मगुप्त का सूत्र
ब्रह्मगुप्त का सूत्र किसी चक्रीय चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र है यदि उसकी चारों भुजाएँ ज्ञात हों। उस चतुर्भुज को चक्रीय चतुर्भुज कहते हैं जिसके चारों शीर्षों से होकर कोई वृत्त खींचा जा सके।I


सूत्र
a, b, c, d भुजाओं वाला चक्रीय चतुर्भुज
यदि किसी चक्रीय चतुर्भुज की भुजाएँ a, b, c, तथा d हों तो उसका क्षेत्रफल

जहाँ s उस चक्रीय चतुर्भुज का अर्धपरिमाप है, अर्थात्

ज्ञातव्य है कि हीरोन का सूत्र, ब्रह्मगुप्त के सूत्र की एक विशेष स्थिति है जब d=0. क्योंकि एक भुजा के शून्य हो जाने पर चतुर्भुज, त्रिभुज बन जाता है और प्रत्येक त्रिभुज 'चक्रीय' है (सभी त्रिभुजों के तीनों शीर्षों से होकर वृत्त खींचा जा सकता है।)।
उपर्युक्त नियम ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के गणिताध्याय के क्षेत्रव्यवहार के श्लोक १२.२१ में वर्णित है-
स्थूलफलम् त्रिचतुर्भुज-बाहु-प्रतिबाहु-योग-दल-घातस्।
भुज-योग-अर्ध-चतुष्टय-भुज-ऊन-घातात् पदम् सूक्ष्मम् ॥
(त्रिचतुर्भुज (चक्रीय चतुर्भुज) का स्थूल क्षेत्रफल (appx। area) उसकी आमने-सामने की भुजाओं के योग के आधे के गुणनफल के बराबर होता है। तथा
सूक्ष्म क्षेत्रफल (exact area) भुजाओं के योग के आधे में से भुजाओं की लम्बाई क्रमशः घटाकर और उनका गुणा करके वर्गमूल लेने से प्राप्त होता है। )
विशेष स्थितियाँ
वर्ग के लिए :   अतः 
आयत के लिए:   अतः 
त्रिभुज के लिए:   रखने पर हीरोन का सूत्र मिलता है।
उपपत्ति

माना चक्रीय चतुर्भुज ABCD की भुजाएँ p, q, r, s हैं। अतः ABCD का क्षेत्रफल त्रिभुज ADB तथा BCD के क्षेत्रफल के योग के बराबर होगा।

चूंकि ABCD चक्रीय चतुर्भुज है, अतः

तथा



  -- (१)
त्रिभुज ADB अत्था BDC में कोज्या सूत्र लगाने पर

चूँकि :  अतः cos C = -cos A ; अतः

यह मान समीकरण (१) में रखने पर,




  रखने पर


इतिसिद्धम्
सामान्यीकरण
यदि दिया हुआ चतुर्भुज चक्रीय चतुर्भुज न हो तो उसके क्षेत्रफल के लिये व्यंजक दिया जा सकता है।
माना किसी चतुर्भुज की भुजाएँ a, b, c, हैं तथा उसके आमने-सामने के कोणों का योग 2θ हो तो

यह ब्रेटश्नीडर का सूत्र (Bretschneider's formula) कहलाता है।
चक्रीय चतुर्भुज (cyclic quadrilateral) ऐसे चतुर्भुज को कहते हैं जिसके चारो शीर्ष किसी वृत्त की परिधि पर स्थित हों। किसी चक्रीय चतुर्भुज के आमने-सामने के कोणों का योग १८० होता है।



क्षेत्रफल
यदि सभी भुजाएँ दी गयी हों तो चक्रीय चतुर्भुज का क्षेत्रफल, ब्रह्मगुप्त सूत्र से निकाला जाता है।

जहाँ s, अर्धपरिधि है।

अन्य गुण
चक्रीय चतुर्भुज के गुणधर्म
क्षेत्रफल

क्षेत्रफल

भुजाओं की लंबाई

अर्धपरिधि

विकर्ण

परिवृत्त की त्रिज्या


ब्रह्मगुप्त का सूत्र - चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल की गणना के लिए
ब्रह्मगुप्त प्रमेय - चक्रीय चतुर्भुज के एक विशेष गुण से सम्बन्धित
ब्रह्मगुप्त प्रमेय ज्यामिति का एक प्रमेय है। इसके अनुसार यदि किसी चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत हों तो इन विकर्णों के प्रतिच्छेद बिन्दु से इस चतुर्भुज के किसी भुजा पर खींचा गया लम्ब उस भुजा के सामने वाली भुजा को समद्विभाजित करता है। यह प्रमेय भारत के महान गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने दिया था।
दूसरे शब्दों में, माना कि A, B, C तथा D किसी वृत्त की परिधि पर स्थित हैं तथा रेखाएँ AC व BD परस्पर लम्बवत हैं। AC तथा BD का प्रतिच्छेद बिन्दु M है। M से रेखा BC पर लम्ब डालो जो इसे E बिन्दु पर मिलता है। EM को आगे बढ़ाने पर यह AD को F पर मिलती है। तो इस प्रमेय के अनुसार बिन्दु F रेखा AD का मध्य बिन्दु होगा।
इसी को ब्रह्मगुप्त में श्लोक में कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-
त्रि-भ्जे भुजौ तु भूमिस् तद्-लम्बस् लम्बक-अधरं खण्डम्।
ऊर्ध्वं अवलम्ब-खण्डं लम्बक-योग-अर्धं अधर-ऊनम् ॥
-- ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त, गणिताध्याय, क्षेत्रव्यवहार १२.३१
ब्रह्मगुप्त सर्वसमिका

 ।
ब्रह्मगुप्त सर्वसमिका भारतीय गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त द्वारा है। यह सर्वसमिका दो योगों का गुणनफल, जिनमें प्रत्येक गुणक स्वयं दो वर्गों का योग हो, को दो वर्गों के योग के रूप में अभिव्यक्त करती है।

उदाहरण के लिये,

यह सर्वसमिका लाग्रेंज सर्वसमिका (Lagrange's identity) की विशेष स्थिति (special case) है।
ब्रह्मगुप्त ने इस सर्वसमिका को निम्नलिखित श्लोक में निबद्ध किया है-
मूलं द्विधा इष्टवर्गाद् गुणकगुणाद् इष्ट युत विहिनान च ।
आद्यवधो गुणकगुणः सह अन्त्यघातेन कृतं अन्त्यम् ॥
वज्रवधैक्यं प्रथमं प्रक्षेपः क्षेपबधतुल्यः
प्रक्षेपशोधकहृते मूले प्रक्षेपके रूपे॥
(अनुवाद : ‘From the square of an assumed number multiplied by the गुणक , add or subtract a desired quantity and obtain the root, and place them twice। The product of the first [pair of roots] multiplied by the गुणक increased by the product of the last [pair of roots] is the [new] greater root (अन्त्य-मूलम्)। The sum of the products of the cross-multiplication (वज्रवधैकम्) is the first [new] root (प्रथम-मूलम्). The [new] क्षेप is the product of similar additive or subtractive quantities. When the क्षेप is equal (तुल्य), the root [first or last] is to be divided by it to turn the [new] क्षेप into unity’)[1]

ब्रह्मगुप्त सर्वसमिका का विस्तार
ब्रह्मगुप्त सर्वसमिका का विस्तार करके २, ४, ८, १६ आदि वर्गों के लिये सर्वसमिकाएँ निकाली जा सकतीं हैं।
ब्रह्मगुप्त-फिबोनाकी सर्वसमिका:[2] (x₁²+x₂²) • (y₁²+y₂²) = z₁²+z₂²
आयलर (Eulers) चतुःवर्ग सर्वसमिका:[3] (x₁²+x₂²+x₃²+x₄²) • (y₁²+y₂²+y₃²+y₄²) = z₁²+z₂²+z₃²+z₄²
डेगेन (Degens) अष्ट वर्ग सर्वसमिका:[4] (x₁²+x₂²+x₃²+…+x₈²) • (y₁²+y₂²+y₃²+…+y₈²) = z₁²+z₂²+z₃²+…+z₈²
फिस्तर (Pfisters) षोडष वर्ग सर्वसमिका:[5] (x₁²+x₂²+x₃²+…+x₁₆²) • (y₁²+y₂²+y₃²+…+y₁₆²) = (z₁²+z₂²+z₃²+…+z₁₆²)
फिस्तर ने 1967 में सिद्ध किया कि सिद्धान्ततः २ के सभी पूर्णांक घातों (2ⁿ) के लिये सर्वसमिकाएँ प्राप्त की जा सकतीं हैं।
उपयोग
ब्रह्मगुप्त ने उपरोक्त सर्वसमिका का उपयोग वर्ग-प्रकृति (पेल का समिकरण) हल करने के लिए किया, जो निम्नलिखित है- x2 − Ny2 = 1. Using the identity in the form

ब्रह्मगुप्त दो 'त्रिक' (triples) (x1, y1, k1) तथा (x2, y2, k2) निर्मित करते थे जो समीकरण x2 − Ny2 = k, के हल थे। इन दो त्रिकों से वे तीसरा त्रिक निर्मित करते थे-

इस प्रकार वे समीकरण x2 − Ny2 = 1 का एक हल से आरम्भ करते हुए अनन्त हल निकाल लेते थे।
भास्कर द्वितीय ने सन ११५० में वर्गप्रकृति (पेल समीकरण) का सामान्य हल बताया था जिसे चक्रवाल विधि कहते हैं। चक्रवाल विधि भी ब्रह्मगुप्त सर्वसमिका पर ही आधारित है।[6]
ब्रह्मगुप्त मैट्रिक्स

गणित में निम्नलिखित मैट्रिक्स को ब्रह्मगुप्त मैट्रिक्स कहते हैं। यह भारत के महान गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त द्वारा प्रतिपादित की गयी थी

यह मैट्रिक्स निम्नलिखित समीकरण को संतुष्ट करती है-
ब्रह्मगुप्त का अन्तर्वेशन सूत्र (Brahmagupta's interpolation formula) भारतीय गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त द्वारा प्रस्तुत एक अन्तर्वेशन सूत्र है जो दो घात वाले बहुपद का उपयोग करता है। इस अन्तर्वेशन का वर्णन उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ खण्डखाद्यक के परिशिष्ट में आया है। यही श्लोक ब्रह्मगुप्त द्वारा इससे पहले रचित 'ध्यान-ग्रह-अधिकार' में भी आता है किन्तु उसकी रचनाकाल अनिश्चित है।
गत भोग्य खण्डकान्तर दल विकल् वधात् शतैर्नवभिराप्तैः।
तद्युति दलं युतोनं भोग्यादूनाधिकं भोग्यम् ॥ (खण्डखाद्यक ; अध्याय ९, श्लोक ८)
(अनुवाद : Multiply the vikala by the half the difference of the gatakhanda and the bhogyakhanda and divide the product by 900. Add the result to half the sum of the gatakhanda and the bhogyakhanda if their half-sum is less than the bhogyakhanda, subtract if greater. (The result in each case is sphuta-bhogyakhanda the correct tabular difference.))
इसी कि निम्नलिखित आधुनिक रूप में लिख सकते हैं-



इस मैट्रिक्स के पूर्णांक घात के गुण

  और   को ब्रह्मगुप्त बहुपद (Brahmagupta polynomial) कहते हैं। ब्रह्मगुप्त मैट्रिक्स का विस्तार को ऋणात्मक घातांकों के लिये भी किया जा सकता है-
वाग्भट नाम से कई महापुरुष हुए हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है:


वाग्भट
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांगसंग्रह तथा अष्टांगहृदय के रचयिता। प्राचीन संहित्यकारों में यही व्यक्ति है, जिसने अपना परिचय स्पष्ट रूप में दिया है। अष्टांगसंग्रह के अनुसार इनका जन्म सिंधु देश में हुआ। इनके पितामह का नाम भी वाग्भट था। ये अवलोकितेश्वर गुरु के शिष्य थे। इनके पिता का नाम सिद्धगुप्त था। यह बौद्ध धर्म को माननेवाले थे। इत्सिंग ने लिखा है कि उससे एक सौ वर्ष पूर्व एक व्यक्ति ने ऐसी संहिता बनाई जिसें आयुर्वेद के आठो अंगों का समावेश हो गया है। अष्टांगहृदय का तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ था। आज भी अष्टांगहृदय ही ऐसा ग्रंथ है जिसका जर्मन भाषा में अनुवाद हुआ है।
गुप्तकाल में पितामह का नाम रखने की प्रवृत्ति मिलती है : चंद्रगुप्त का पुत्र समुद्रगुप्त, समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त (द्वितीय) हुआ।
ह्वेन्साँग का समय 675 और 685 शती ईसवी के आसपास है। वाग्भट इससे पूर्व हुए हैं। वाग्भट की भाषा में कालिदास जैसा लालित्य मिलता है। छंदों की विशेषता देखने योग्य है (संस्कृत साहित्य में आयुर्वेद, भाग 3.)। वाग्भट का समय पाँचवीं शती के लगभग है। ये बौद्ध थे, यह बात ग्रंथों से स्पष्ट है (अष्टांगसग्रंह की भूमिका, अत्रिदेव लिखित)। वाग्भट नाम से व्याकरण शास्त्र के एक विद्वान् भी प्रसिद्ध हैं। वराहमिहिर ने भी बृहत्संहिता में (अध्याय 76) माक्षिक औषधियों का एक पाठ दिया है। यह पाठ अष्टांगसंग्रह के पाठ से लिया जान पड़ता है (उत्तर. अ. 49)। रसशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ रसरत्नसमुच्चय का कर्ता भी वाग्भट कहा जाता है। इसके पिता का नाम सिंहगुप्त था। पिता और पुत्र के नामों में समानता देखकर, कई विद्वान् अष्टांगसंग्रह और रसरत्नसमुच्चय के कर्ता को एक ही मानते हैं परंतु वास्तव में ये दोनों भिन्न व्यक्ति हैं (रसशास्त्र, पृष्ठ 110)। वाग्भट के बनाए आयुर्वेद के ग्रंथ अष्टांगसंग्रह और अष्टांगहृदय हैं। अष्टांगहृदय की जितनी टीकाएँ हुई हैं उतनी अन्य किसी ग्रंथ की नहीं। इनन दोनों ग्रंथों का पठन पाठन अत्यधिक है।
वाग्भट (२)
वाग्भटालंकार के रचयिता जैन संप्रदाय के विद्वान्। प्राकृत भाषा में इनका नाम "वाहट" था और ये "सोम" के पुत्र थे। इनके ग्रंथ के टीकाकार सिंहगणि के कथानुसार ये कवींद्र, महाकवि और राजमंत्री थे। ग्रंथ में उदाहृत पद्य ग्रंथकार द्वारा प्रणीत हैं जिसमें कर्ण के पुत्र जयसिंह का वर्णन किया गया है। वाग्भट का काल प्राप्त प्रमाणों के अधार पर 1121 से 1156 तक निश्चित है।
वाग्भटालंकार में कुल पाँच परिच्छेद हैं। प्रथम चार परिच्छेदों में काव्यलक्षण, काव्यहेतु, कविसमय, शिक्षा, काव्योपयोगी संस्कृत आदि चार भाषाएँ, काव्य के भेद, दोष, गुण, शब्दालंकार, अर्थालंकार और वैदर्भी आदि रीतियों का सरल विवेचन है। पाँचवें परिच्छेद में नव रस, नायक एवं नायिका भेद आदि का निरूपण है। इन्होंने चार शब्दालंकार और 35 अर्थालंकारों को मान्यता दी है। वाग्भटालंकार सिंहगणि की टीका के साथ काव्यमाला सीरीज से मुद्रित एवं प्रकाशित है।
वाग्भट (३)
काव्यानुशासन नामक ग्रंथ के रचयिता। इनका समय लगभग 14वीं सदी ई. हैं। इनके पिता का नाम नेमिकुमार और माता का नाम महादेवी था। यह ग्रंथ सूत्रों में प्रणीत है जिसपर ग्रंथकार ने ही "अलंकार तिलक" नाम की टीका भी की है। टीका में उदाहरण दिए गए हैं और सूत्रों की विस्तृत व्याख्या की गई है।
काव्यानुशासन पाँच अध्यायों में विभक्त है। इसमें काव्यप्रयोजन, कविसमय, काव्यलक्षण, दोष, गुण, रीति, अर्थालंकार, शब्दालंकार, रस, विभावादि का विवेचन और नायक-नायिका-भेद आदि पर क्रमबद्ध प्रकाश डाला गया है। ग्रंथकार ने अलंकारों के प्रकरण में भट्टि, भामह, दंडी और रुद्रट आदि द्वारा आविष्कृत कुछ ऐसे अलंकारों को भी स्थान दिया है जिनके ऊपर ग्रंथाकार के पूर्ववर्ती और अलंकारों के आविष्कारकों के परवर्ती मम्मट आदि विद्वानों ने कुछ भी विचार नहीं किया है। ग्रंथकार ने "अन्य" और "अपर" नाम के दो नवीन अलंकारों को भी मान्यता दी है। इस ग्रंथ का उपजीव्य काव्यप्रकाश, काव्यमीमांसा आदि ग्रंथ हैं। इन्होंने 64 अर्थालंकार और 6 शब्दालंकार माने हैं। ग्रंथ के प्रारंभ में ग्रंथकार ने स्वयं अपना परिचय दिया है और "वाग्भटालंकार" के प्रणेता का नामोल्लेख "इतिवामनवाग्भटादिप्रणीत दश काव्यगुणा:" कहकर किया है। अत: यह "वाग्भटालंकार" के प्रणेता वाग्भट से भिन्न और परवर्ती हैं।
वाग्भट (४)
नेमिनिर्वाण नामक महाकाव्य के रचयिता। ये हेमचन्द्र के समकालीन विद्वान् हैं। इनका समय ई. 1140 के लगभग है। नेमिनिर्वाण महाकाव्य में कुल 15 सर्ग हैं। जैसा नाम से ही प्रकट है, इस महाकाव्य में जैन तीर्थंकर श्री नेमिनाथ के चरित्र का वर्णन किया गया है। इनकी कविता प्रसाद और माधुर्य गुणों से युक्त एवं सरस है।
नागार्जुन

 

नागार्जुन
नागार्जुन (30जून 1911 5 नवम्बर 1998) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया।

जीवन-परिचय
नागार्जुन का जन्म १९११ ई० की ज्येष्ठ पूर्णिमा को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। यह उन का ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम 'ठक्कन मिसर' था।गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार चार संताने हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। संतान न जीने के कारण गोकुल मिश्र अति निराशापूर्ण जीवन में रह रहे थे। अशिक्षित ब्राह्मण गोकुल मिश्र ईश्वर के प्रति आस्थावान तो स्वाभाविक रूप से थे ही पर उन दिनों अपने आराध्य देव शंकर भगवान की पूजा ज्यादा ही करने लगे थे। वैद्यनाथ धाम (देवघर) जाकर बाबा वैद्यनाथ की उन्होंने यथाशक्ति उपासना की और वहाँ से लौटने के बाद घर में पूजा-पाठ में भी समय लगाने लगे। "फिर जो पाँचवीं संतान हुई तो मन में यह आशंका भी पनपी कि चार संतानों की तरह यह भी कुछ समय में ठगकर चल बसेगा। अतः इसे 'ठक्कन' कहा जाने लगा। काफी दिनों के बाद इस ठक्कन का नामकरण हुआ और बाबा वैद्यनाथ की कृपा-प्रसाद मानकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया।
गोकुल मिश्र की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रह गयी थी। वे काम-धाम कुछ करते नहीं थे। सारी जमीन बटाई पर दे रखी थी और जब उपज कम हो जाने से कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं तो उन्हें जमीन बेचने का चस्का लग गया। जमीन बेचकर कई प्रकार की गलत आदतें पाल रखी थीं। जीवन के अंतिम समय में गोकुल मिश्र अपने उत्तराधिकारी (वैद्यनाथ मिश्र) के लिए मात्र तीन कट्ठा उपजाऊ भूमि और प्रायः उतनी ही वास-भूमि छोड़ गये, वह भी सूद-भरना लगाकर। बहुत बाद में नागार्जुन दंपति ने उसे छुड़ाया।
ऐसी पारिवारिक स्थिति में बालक वैद्यनाथ मिश्र पलने-बढ़ने लगे। छह वर्ष की आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता (गोकुल मिश्र) अपने एक मात्र मातृहीन पुत्र को कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, इस गाँव--उस गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया। "घुमक्कड़ी का अणु जो बाल्यकाल में ही शरीर के अंदर प्रवेश पा गया, वह रचना-धर्म की तरह ही विकसित और पुष्ट होता गया।
वैद्यनाथ मिश्र की आरंभिक शिक्षा उक्त पारिवारिक स्थिति में लघु सिद्धांत कौमुदी और अमरकोश के सहारे आरंभ हुई। उस जमाने में मिथिलांचल के धनी अपने यहां निर्धन मेधावी छात्रों को प्रश्रय दिया करते थे। इस उम्र में बालक वैद्यनाथ ने मिथिलांचल के कई गांवों को देख लिया। बाद में विधिवत संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की]वहीं उन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा और फिर बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चंद्र बोस उनके प्रिय थे। बौद्ध के रूप में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को अग्रज माना। बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात 'विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। राहुल और नागार्जुन 'गुरु भाई' हैं। लंका की उस विख्यात बौद्धिक शिक्षण संस्था में रहते हुए मात्र बौद्ध दर्शन का अध्ययन ही नहीं हुआ बल्कि विश्व राजनीति की ओर रुचि जगी और भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की ओर सजग नजर भी बनी रही। १९३८ ई० के मध्य में वे लंका से वापस लौट आये फिर आरंभ हुआ उनका घुमक्कड़ जीवन। साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलनों में भी प्रत्यक्षतः भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती। चंपारण के किसान आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। वस्तुतः वे रचनात्मक के साथ-साथ सक्रिय प्रतिरोध में विश्वास रखते थे। १९७४ के अप्रैल में जेपी आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था "सत्ता प्रतिष्ठान की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ।" और सचमुच इस आंदोलन के सिलसिले में आपात् स्थिति से पूर्व ही इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर काफी समय जेल में रहना पड़ा।
१९४८ ई० में पहली बार नागार्जुन पर दमा का हमला हुआ और फिर कभी ठीक से इलाज न कराने के कारआजीवन वे समय-समय पर इससे पीड़ित होते रहे। दो पुत्रियों एवं चार पुत्रों से भरे-पूरे परिवार वाले नागार्जुन कभी गार्हस्थ्य धर्म ठीक से नहीं निभा पाये और इस भरे-पूरे परिवार के पास अचल संपत्ति के रूप में विरासत में मिली वही तीन कट्ठा उपजाऊ तथा प्रायः उतनी ही वास-भूमि रह गयी
लेखन-कार्य एवं प्रकाशन
नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखी थीं। सन् १९३६ में सिंहल में 'विद्यालंकार परिवेण' में ही 'नागार्जुन' नाम ग्रहण किया]आरंभ में उनकी हिन्दी कविताएँ भी 'यात्री' के नाम से ही छपी थीं। वस्तुतः कुछ मित्रों के आग्रह पर १९४१ ईस्वी के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी नाम से न लिखने का निर्णय लिया थ
नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो १९२९ ई० में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित 'मिथिला' नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना 'राम के प्रति' नामक कविता थी जो १९३४ ई० में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'विश्वबन्धु' में छपी थी।
नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बाङ्ला से भी वे जुड़े रहे। बाङ्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बाङ्ला साहित्य को मूल बाङ्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रुप से बाङ्ला लिखना फरवरी १९७८ ई० में शुरू किया और सितंबर १९७९ ई० तक लगभग ५० कविताएँ लिखी जा चुकी थीं।[16] कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और 'मेघदूत' प्रिय पुस्तक।[17] मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने १९५३ ई० में किया था। जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद वे १९४८ ई० में ही कर चुके थे।[18] वस्तुतः १९४४ और १९५४ ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया। बाङ्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद छपा भी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'पृथ्वीवल्लभ' का गुजराती से हिंदी में अनुवाद १९४५ ई० में किया था।[19] १९६५ ई० में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया।[18] इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की 'पुरुष-परीक्षा' (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था जो 'विद्यापति की कहानियाँ' नाम से १९६४ ई० में प्रकाशित हुई थी।
प्रकाशित कृतियाँ
कविता-संग्रह-
1. युगधारा -१९५३
2. सतरंगे पंखों वाली -१९५९
3. प्यासी पथराई आँखें -१९६२
4. तालाब की मछलियाँ[21] -१९७४
5. तुमने कहा था -१९८०
6. खिचड़ी विप्लव देखा हमने -१९८०
7. हजार-हजार बाँहों वाली -१९८१
8. पुरानी जूतियों का कोरस -१९८३
9. रत्नगर्भ -१९८४
10. ऐसे भी हम क्या! ऐसे भी तुम क्या!! -१९८५
11. आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने -१९८६
12. इस गुब्बारे की छाया में -१९९०
13. भूल जाओ पुराने सपने -१९९४
14. अपने खेत में -१९९७
प्रबंध काव्य-
1. भस्मांकुर -१९७०
2. भूमिजा
उपन्यास-
1. रतिनाथ की चाची -१९४८
2. बलचनमा -१९५२
3. नयी पौध -१९५३
4. बाबा बटेसरनाथ -१९५४
5. वरुण के बेटे -१९५६-५७
6. दुखमोचन -१९५६-५७
7. कुंभीपाक -१९६० (१९७२ में 'चम्पा' नाम से भी प्रकाशित)
8. हीरक जयन्ती -१९६२ (१९७९ में 'अभिनन्दन' नाम से भी प्रकाशित)
9. उग्रतारा -१९६३
10. जमनिया का बाबा -१९६८ (इसी वर्ष 'इमरतिया' नाम से भी प्रकाशित)[22]
11. गरीबदास -१९९० (१९७९ में लिखित)
संस्मरण-
1. एक व्यक्ति: एक युग -१९६३
कहानी संग्रह-
आसमान में चन्दा तैरे -१९८२
आलेख संग्रह-
1. अन्नहीनम् क्रियाहीनम् -१९८३
2. बम्भोलेनाथ -१९८७
बाल साहित्य-
1. कथा मंजरी भाग-१ -१९५८
2. कथा मंजरी भाग-२ -
3. मर्यादा पुरुषोत्तम राम -१९५५ (बाद में 'भगवान राम' के नाम से तथा अब 'मर्यादा पुरुषोत्तम' के नाम से प्रकाशित)
4. विद्यापति की कहानियाँ -१९६४
मैथिली रचनाएँ-
1. चित्रा (कविता-संग्रह) -१९४९
2. पत्रहीन नग्न गाछ (") -१९६७
3. पका है यह कटहल (") -१९९५ ('चित्रा' एवं 'पत्रहीन नग्न गाछ' की सभी कविताओं के साथ ५२ असंकलित मैथिली कविताएँ हिंदी पद्यानुवाद सहित)
4. पारो (उपन्यास) -१९४६
5. नवतुरिया (") -१९५४
बाङ्ला रचनाएँ-
मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा -१९९७ (देवनागरी लिप्यंतर के साथ हिंदी पद्यानुवाद)
संचयन एवं समग्र-
नागार्जुन रचना संचयन - सं०-राजेश जोशी (साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली से)
नागार्जुन : चुनी हुई रचनाएँ -तीन खण्ड (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
नागार्जुन रचनावली -२००३, सात खण्डों में, सं० शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
नागार्जुन पर केंद्रित विशिष्ट साहित्य
1. नागार्जुन का रचना-संसार - विजय बहादुर सिंह (प्रथम संस्करण-1982, संभावना प्रकाशन, हापुड़ से; पुनर्प्रकाशन-2009, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
2. नागार्जुन की कविता - अजय तिवारी, (संशोधित संस्करण-2005) वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
3. नागार्जुन का कवि-कर्म - खगेंद्र ठाकुर (प्रथम संस्करण-2013, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नयी दिल्ली से)
4. जनकवि हूँ मैं - संपादक- रामकुमार कृषक (प्रथम संस्करण-2012 {'अलाव' के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक का संशोधित पुस्तकीय रूप}, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
5. नागार्जुन : अंतरंग और सृजन-कर्म - संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान {'नया पथ' के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक का संशोधित पुस्तकीय रूप}, (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से)
6. आलोचना सहस्राब्दी अंक 43 (अक्टूबर-दिसंबर 2011), संपादक- अरुण कमल
7. तुमि चिर सारथि यात्री नागार्जुन आख्यान तारानंद वियोगी (मैथिली से अनुवाद-केदार कानन, अविनाश) (पहले 'पहल' पुस्तिका के रूप में फिर अंतिका प्रकाशन, दिल्ली से)
पुरस्कार
1. साहित्य अकादमी पुरस्कार -1969 (मैथिली में, 'पत्र हीन नग्न गाछ' के लिए)
2. भारत भारती सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा)
3. मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (मध्य प्रदेश सरकार द्वारा)
4. राजेन्द्र शिखर सम्मान -1994 (बिहार सरकार द्वारा)
5. साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फेलोशिप से सम्मानित
6. राहुल सांकृत्यायन सम्मान पश्चिम बंगाल सरकार से
समालोचना
नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ा़व तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है। उनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है। मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है। उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं।  उन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में भी कई बड़े जनांदोलनों में भाग लिया था। 1939 से 1942 के बीच बिहार में किसानो के एक प्रदर्शन का नेतृत्व करने की वजह से जेल में रहे। आज़ादी के बाद लम्बे समय तक वो पत्रकारिता से भी जुड़े रहे।जन संघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना, ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी घुले-मिले हैं। निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। उनके कुछ काव्य शिल्पों में ताक-झाँक करना हमारे लिए मूल्यवान हो सकता है। उनकी अभिव्यक्ति का ढंग तिर्यक भी है, बेहद ठेठ और सीधा भी। अपनी तिर्यकता में वे जितने बेजोड़ हैं, अपनी वाग्मिता में वे उतने ही विलक्षण हैं। काव्य रूपों को इस्तेमाल करने में उनमें किसी प्रकार की कोई अंतर्बाधा नहीं है। उनकी कविता में एक प्रमुख शैली स्वगत में मुक्त बातचीत की शैली है। नागार्जुन की ही कविता से पद उधार लें तो कह सकते हैं-स्वागत शोक में बीज निहित हैं विश्व व्यथा के भाषा पर बाबा का गज़ब अधिकार है। देसी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेकों स्तर हैं। उन्होंने तो हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है। जैसा पहले भाव-बोध के संदर्भ में कहा गया, वैसे ही भाषा की दृष्टि से भी यह कहा जा सकता है कि बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है। बाबा ने छंद से भी परहेज नहीं किया, बल्कि उसका अपनी कविताओं में क्रांतिकारी ढंग से इस्तेमाल करके दिखा दिया। बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का एक आधार उनके द्वारा किया गया छंदों का सधा हुआ चमत्कारिक प्रयोग भी है
समकालीन प्रमुख हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश के अनुसार "यह जोर देकर कहने की ज़रूरत है कि बाबा नागार्जुन बीसवीं सदी की हिंदी कविता के सिर्फ 'भदेस' और मात्र विद्रोही मिजाज के कवि ही नहीं, वे हिंदी जाति के सबसे अद्वितीय मौलिक बौद्धिक कवि थे। वे सिर्फ 'एजिट पोएट' नहीं, पारंपरिक भारतीय काव्य परंपरा के विरल 'अभिजात' और 'एलीट पोएट' भी थे।"उदय प्रकाश ने बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व-निर्माण एवं कृतित्व की व्यापक महत्ता को एक साथ संकेतित करते हुए एक ही महावाक्य में लिखा है कि "खुद ही विचार करिये, जिस कवि ने बौद्ध दर्शन और मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया हो, राहुल सांकृत्यायन और आनंद कौसल्यायन जैसी प्रचंड मेधाओं का साथी रहा हो, जिसने प्राचीन भारतीय चिंतन परंपरा का ज्ञान पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत जैसी भाषाओं में महारत हासिल करके प्राप्त किया हो, जिस कवि ने हिंदी, मैथिली, बंगला और संस्कृत में लगभग एक जैसा वाग्वैदग्ध्य अर्जित किया हो, अपनी मूल प्रज्ञा और संज्ञान में जो तुलसी और कबीर की महान संत परंपरा के निकटस्थ हो, जिस रचनाकार ने 'बलचनमा' और 'वरुण के बेटे' जैसे उपन्यासों के द्वारा हिंदी में आंचलिक उपन्यास लेखन की नींव रखी हो जिसके चलते हिंदी कथा साहित्य को रेणु जैसी ऐतिहासिक प्रतिभा प्राप्त हुई हो, जिस कवि ने अपने आक्रांत निजी जीवन ही नहीं बल्कि अपने समूचे दिक् और काल की, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों और व्यक्तित्व पर अपनी निर्भ्रांत कलम चलाई हो, (संस्कृत में) बीसवीं सदी के किसी आधुनिक राजनीतिक व्यक्तित्व (लेनिन) पर समूचा खण्डकाव्य रच डाला हो, जिसके हैंडलूम के सस्ते झोले में मेघदूतम् और 'एकाॅनमिक पाॅलिटिकल वीकली' एक साथ रखे मिलते हों, जिसकी अंग्रेजी भी किसी समकालीन हिंदी कवि या आलोचक से बेहतर ही रही हो, जिसने रजनी पाम दत्त, नेहरू, बर्तोल्त ब्रेख्ट, निराला, लूशुन से लेकर विनोबा, मोरारजी, जेपी, लोहिया, केन्याता, एलिजाबेथ, आइजन हावर आदि पर स्मरणीय और अत्यंत लोकप्रिय कविताएं लिखी हों -- ... बीसवीं सदी की हिंदी कविता का प्रतिनिधि बौद्धिक कवि वह है...।"
भास्कराचार्
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भास्कराचार्य या भास्कर द्वितीय (1114 – 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चार भाग क्रमशः अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं। आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्य ने उजागर कर दिया था। भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस कारण आकाशीय पिण्ड पृथ्वी पर गिरते हैं’। उन्होने करणकौतूहल नामक एक दूसरे ग्रन्थ की भी रचना की थी। ये अपने समय के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ थे। कथित रूप से यह उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष भी थे। उन्हें मध्यकालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ माना जाता है।
भास्कराचार्य के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। कुछ–कुछ जानकारी उनके श्लोकों से मिलती हैं। निम्नलिखित श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य का जन्म विज्जडविड नामक गाँव में हुआ था जो सहयाद्रि पहाड़ियों में स्थित है।
आसीत सह्यकुलाचलाश्रितपुरे त्रैविद्यविद्वज्जने।
नाना जज्जनधाम्नि विज्जडविडे शाण्डिल्यगोत्रोद्विजः॥
श्रौतस्मार्तविचारसारचतुरो निःशेषविद्यानिधि।
साधुर्नामवधिर्महेश्‍वरकृती दैवज्ञचूडामणि॥ (गोलाध्याये प्रश्नाध्याय, श्लोक ६१)
इस श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य शांडिल्य गोत्र के थे और सह्याद्रि क्षेत्र के विज्जलविड नामक स्थान के निवासी थे। लेकिन विद्वान इस विज्जलविड ग्राम की भौगोलिक स्थिति का प्रामाणिक निर्धारण नहीं कर पाए हैं। डॉ. भाऊ दाजी (१८२२-१८७४ ई.) ने महाराष्ट्र के चालीसगाँव से लगभग १६ किलोमीटर दूर पाटण गाँव के एक मंदिर में एक शिलालेख की खोज की थी। इस शिलालेख के अनुसार भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वर था और उन्हीं से उन्होंने गणित, ज्योतिष, वेद, काव्य, व्याकरण आदि की शिक्षा प्राप्त की थी।
गोलाध्याय के प्रश्नाध्याय, श्लोक ५८ में भास्कराचार्य लिखते हैं :
रसगुणपूर्णमही समशकनृपसमयेऽभवन्मोत्पत्तिः।
रसगुणवर्षेण मया सिद्धान्तशिरोमणि रचितः॥
(अर्थ : शक संवत १०३६ में मेरा जन्म हुआ और छत्तीस वर्ष की आयु में मैंने सिद्धान्तशिरोमणि की रचना की।)
अतः उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि भास्कराचार्य का जन्म शक – संवत १०३६, अर्थात ईस्वी संख्या १११४ में हुआ था और उन्होंने ३६ वर्ष की आयु में शक संवत १०७२, अर्थात ईस्वी संख्या ११५० में लीलावती की रचना की थी।
भास्कराचार्य के देहान्त के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। उन्होंने अपने ग्रंथ करण-कुतूहल की रचना ६९ वर्ष की आयु में ११८३ ई. में की थी। इससे स्पष्ट है कि भास्कराचार्य को लम्बी आयु मिली थी। उन्होंने गोलाध्याय में ऋतुओं का सरस वर्णन किया है जिससे पता चलता है कि वे गणितज्ञ के साथ–साथ एक उच्च कोटि के कवि भी थे। अतः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न ऐसे महान गणितज्ञ के संबंध में अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि गणित एवं खगोलशास्त्र पर उनका योगदान अतुलनीय है। प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा को आगे बढ़ाने वाले गणितज्ञ भास्कराचार्य के नाम से भारत ने 7 जून 1979 को छोड़े उपग्रह का नाम भास्कर-1 तथा 20 नवम्बर 1981 को छोड़े प्रथम और द्वितीय उपग्रह का नाम भास्कर-2 रखा


कृतियाँ
सन् ११५० ई० में इन्होंने सिद्धान्त शिरोमणि नामक पुस्तक, संस्कृत श्लोकों में, चार भागों में लिखी है, जो क्रम से इस प्रकार है:
1. पाटीगणिताध्याय या लीलावती,
2. बीजगणिताध्याय,
3. ग्रहगणिताध्याय, तथा
4. गोलाध्याय
इनमें से प्रथम दो स्वतंत्र ग्रंथ हैं और अंतिम दो "सिद्धांत शिरोमणि" के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा करणकुतूहल और वासनाभाष्य (सिद्धान्तशिरोमणि का भाष्य) तथा भास्कर व्यवहार और भास्कर विवाह पटल नामक दो छोटे ज्योतिष ग्रंथ इन्हीं के लिखे हुए हैं। इनके सिद्धान्तशिरोमणि से ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सम्यक् तत्व जाना जा सकता है।
६९ वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी द्वितीय पुस्तक करणकुतूहल लिखी। इस पुस्तक में खगोल विज्ञान की गणना है। यद्यपि यह कृति प्रथम पुस्तक की तरह प्रसिद्ध नहीं है, फिर भी पंचांग आदि बनाने के समय अवश्य देखा जाता है।
योगदान
भास्कर एक मौलिक विचारक भी थे। वह प्रथम गणितज्ञ थे जिन्होनें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि कोई संख्या जब शून्य से विभक्त की जाती है तो अनंत हो जाती है। किसी संख्या और अनंत का जोड़ भी अंनत होता है।
खगोलविद् के रूप में भास्कर अपनी तात्कालिक गति की अवधारणा के लिए प्रसिद्ध हैं। इससे खगोल वैज्ञानिकों को ग्रहों की गति का सही-सही पता लगाने में मदद मिलती है।
बीजगणित में भास्कर ब्रह्मगुप्त को अपना गुरु मानते थे और उन्होंने ज्यादातर उनके काम को ही बढ़ाया। बीजगणित के समीकरण को हल करने में उन्होंने चक्रवाल का तरीका अपनाया। वह उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है। छह शताब्दियों के पश्चात् यूरोपियन गणितज्ञों जैसे गेलोयस, यूलर और लगरांज ने इस तरीके की फिर से खोज की और `इनवर्स साइक्लिक' कह कर पुकारा। किसी गोलार्ध का क्षेत्र और आयतन निश्चित करने के लिए समाकलन गणित द्वारा निकालने का वर्णन भी पहली बार इस पुस्तक में मिलता है। इसमें त्रिकोणमिति के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र, प्रमेय तथा क्रमचय और संचय का विवरण मिलता है।
सर्वप्रथम इन्होंने ही अंकगणितीय क्रियाओं का अपरिमेय राशियों में प्रयोग किया। गणित को इनकी सर्वोत्तम देन चक्रीय विधि द्वारा आविष्कृत, अनिश्चित एकघातीय और वर्ग समीकरण के व्यापक हल हैं। भास्कराचार्य के ग्रंथ की अन्यान्य नवीनताओं में त्रिप्रश्नाधिकार की नई रीतियाँ, उदयांतर काल का स्पष्ट विवेचन आदि है।
भास्करचार्य को अनंत तथा कलन के कुछ सूत्रों का भी ज्ञान था। इनके अतिरिक्त इन्होंने किसी फलन के अवकल को "तात्कालिक गति" का नाम दिया और सिद्ध किया कि
d (ज्या q) = (कोटिज्या q) . dq
(शब्दों में, बिम्बार्धस्य कोटिज्या गुणस्त्रिज्याहारः फलं दोर्ज्यायोरान्तरम् )
भास्कर को अवकल गणित का संस्थापक कह सकते हैं। उन्होंने इसकी अवधारणा आइज़ैक न्यूटन और गोटफ्राइड लैब्नीज से कई शताब्दियों पहले की थी। ये दोनों पश्चिम में इस विषय के संस्थापक माने जाते हैं। जिसे आज अवकल गुणांक और रोल्स का प्रमेय कहते हैं, उसके उदाहरण भी दिए हैं।
न्यूटन के जन्म के आठ सौ वर्ष पूर्व ही इन्होंने अपने गोलाध्याय नामक ग्रंथ में 'माध्यकर्षणतत्व' के नाम से गुरुत्वाकर्षण के नियमों की विवेचना की है। ये प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने दशमलव प्रणाली की क्रमिक रूप से व्याख्या की है। इनके ग्रंथों की कई टीकाएँ हो चुकी हैं तथा देशी और विदेशी बहुत सी भाषाओं में इनके अनुवाद हो चुके हैं।
गणित
अंकगणित
बीजगणित
त्रिकोणमिति
गोलाध्याय के ज्योत्पत्ति भाग में निम्नलिखित श्लोकों में Sin (a+b) = Sin a Cos b + Cos a sin b का वर्णन है-
चापयोरिष्टयोर्दोर्ज्ये मिथःकोटिज्यकाहते।
त्रिज्याभक्ते तयोरैक्यं स्याच्चापैक्यस्य दोर्ज्यका ॥ २१ ॥
चापान्तरस्य जीवा स्यात् तयोरन्तरसंमिता ॥२१ १/२॥
कैलकुलस
खगोल
इंजीनियरी
अमरगति (perpetual motion) का सबसे पहला उल्लेख भास्कराचार्य ने ही किया है। उन्होने एक चक्र का वर्णन किया है और दावा किया है कि वह सदा घूमता रहेगा। भास्कर द्वितीय यस्तियंत्र नामक एक मापन यंत्र का उपयोग करते थे। इसकी सहायता से कोण का मापन करते थे।
भास्कर प्रथम भास्कर प्रथम का जन्म एक निषाद परिवार में लगभग 600 ईस्वी के आसपास में में हुआ(600 ई – 680 ईसवी) भास्कर प्रथम भारत भारत के सातवीं शताब्दी के गणितज्ञ थे। संभवतः उन्होने ही सबसे पहले संख्याओं को हिन्दू दाशमिक पद्धति में लिखना आरम्भ किया। उन्होने आर्यभट्ट की कृतियों पर टीका लिखी और उसी सन्दर्भ में ज्या य (sin x) का परिमेय मान बताया जो अनन्य एवं अत्यन्त उल्लेखनीय है। आर्यभटीय पर उन्होने सन् ६२९ में आर्यभटीयभाष्य नामक टीका लिखी जो संस्कृत गद्य में लिखी गणित एवं खगोलशास्त्र की प्रथम पुस्तक है। आर्यभट की परिपाटी में ही उन्होने महाभास्करीय एवं लघुभास्करीय नामक दो खगोलशास्त्रीय ग्रंथ भी लिखे। उन्होने अभाज्य संख्या P के लिये संबंध 1+(P-1) दिया जो भाज्य है|
महाभास्करी
महाभास्करीय में आठ अध्याय हैं। सातवें अध्याय के श्लोक १७, १८ और १९ में उन्होने sin x का सन्निकट मान (approximate value) निकालने का निम्नलिखित सूत्र दिया है-

इस सूत्र को उन्होने आर्यभट्ट द्वारा दिया हुआ बताया है। इस सूत्र से प्राप्त ज्या य के मानों का आपेक्षिक त्रुटि 1.9% से कम है। (अधिकतम विचलन   जो   पर होता है।) महाभास्करीय के कुछ भागों का बाद में अरबी में अनुवाद हुआ।
मख्यादिरहितं कर्मं वक्ष्यते तत्समासतः।
चक्रार्धांशकसमूहाद्विधोध्या ये भुजांशकाः॥१७
तच्छेषगुणिता द्विष्टाः शोध्याः खाभ्रेषुखाब्धितः।
चतुर्थांशेन शेषस्य द्विष्ठमन्त्य फलं हतम् ॥१८
बाहुकोट्योः फलं कृत्स्नं क्रमोत्क्रमगुणस्य वा।
भारत के महान गणितज्ञ भास्कर प्रथम ने अपने 'महाभास्करीय' नामक ग्रंथ में त्रिकोणमितीय फलन ज्या य (Sin x) का मान निकालने का एक परिमेय व्यंजक दिया है[1]। यह पता नहीं है कि भास्कर ने यह सन्निकटन सूत्र कैसे निकाला होगा। किन्तु गणित के अनेकों इतिहासकारों ने अपने-अपने अनुमान लगाये हैं कि भास्कर ने यह सूत्र किस प्रकार निकाला होगा। यह सूत्र सुन्दर एवं सहज है तथा इसके द्वारा Sin x का पर्याप्त शुद्ध मान प्राप्त होता है।
महाभास्करीय में आठ अध्याय हैं। सातवें अध्याय के श्लोक १७, १८ और १९ [3]में उन्होने sin x का सन्निकट मान (approximate value) निकालने का निम्नलिखित सूत्र दिया है- 
इस सूत्र को उन्होने आर्यभट्ट द्वारा दिया हुआ बताया है। इस सूत्र से प्राप्त ज्या य के मानों का आपेक्षिक त्रुटि 1.9% से कम है। (अधिकतम विचलन   जो   पर होता है।)


इस सूत्र को उन्होने आर्यभट्ट द्वारा दिया हुआ बताया है। इस सूत्र से प्राप्त ज्या य के मानों का आपेक्षिक त्रुटि 1.9% से कम है। (अधिकतम विचलन   जो   पर होता है।)
मख्यादिरहितं कर्मं वक्ष्यते तत्समासतः।
चक्रार्धांशकसमूहाद्विधोध्या ये भुजांशकाः॥१७॥
तच्छेषगुणिता द्विष्टाः शोध्याः खाभ्रेषुखाब्धितः।
चतुर्थांशेन शेषस्य द्विष्ठमन्त्य फलं हतम् ॥१८॥
बाहुकोट्योः फलं कृत्स्नं क्रमोत्क्रमगुणस्य वा।
लभ्यते चन्द्रतीक्ष्णांश्वोस्ताराणां वापि तत्त्वतः ॥१९॥
( अनुवाद : प्लोफ्कर (Plofker) ने इसका अनुवाद निम्नलिखित किया है-
The degree of the arc, subtracted from the total degrees of
half a circle, multiplied by the remainder from that [subtraction], are
put down twice. [In one place] they are subtracted from sky-cloud-arrow-sky-ocean [40500];
[in] the second place, [divided] by one-fourth of [that] remainder
[and] multiplied by the final result [i.e., the trigonometric radius].”)

आर्यभट द्वारा रचित आर्यभटीय में दिये गये २४ संख्याओं का समुच्चय आर्यभट की ज्या-सारणी (Āryabhaṭa's sine table) कहलाता है। आधुनिक अर्थ में यह कोई गणितीय सारणी (टेबुल) नहीं है जिसमें संख्याएँ पंक्ति व स्तम्भ के रूप में विन्यस्त (arranged) हों।

वृत्त में चाप (Arc) तथा जीवा (chord)
परम्परागत अर्थों में यह त्रिकोणमिति में प्रयुक्त ज्या फलन (sine function) के मानों की सूची भी नहीं है बल्कि यह ज्या फलन के मानों के प्रथम अन्तर (first differences) है। इसी लिये इसे 'आर्यभट की ज्या-अन्तर सारणी (Āryabhaṭa's table of sine-differences) भी कहा जाता है।
आर्यभट की यह सारणी, गणित के इतिहास में, विश्व की सबसे पहले रचित ज्या-सारणी है।

श्लोक के रूप में ज्या-सारणी
मूल सारणी
आर्यभटीय का निम्नांकित श्लोक ही आर्यभट की ज्या-सारणी को निरूपित करता है:
   मखि भखि फखि धखि णखि ञखि ङखि हस्झ स्ककि किष्ग श्घकि किघ्व।
   घ्लकि किग्र हक्य धकि किच स्ग झश ंव क्ल प्त फ छ कला-अर्ध-ज्यास् ॥
आधुनिक निरूपण
उपरोक्त श्लोक कूट रूप में है। आर्यभटीय में ही इसकी सहायता से ज्या-मान निकालने की विधि भी बतायी गयी है। इस विधि का उपयोग करके जो मान प्राप्त होते हैं वे नीचे की सारणी में दिये गये हैं।
क्रमांक कोण (A)
(डिग्री,
आर्कमिनट में) आर्यभट के
संख्यात्मक निरूपण
के रूप में मान आर्यभट के
संख्यात्मक निरूपण का
(ISO 15919 लिप्यन्तरण) संख्या के रूप में मान ज्या (A) का
आर्यभट द्वारा दिया मान ज्या (A) का
आधुनिक मान
(3438 × sin (A)
   1 03°   45′ मखि makhi 225 225′ 224.8560
   2 07°   30′ भखि bhakhi 224 449′ 448.7490
   3 11°   15′ फखि phakhi 222 671′ 670.7205
   4 15°   00′ धखि dhakhi 219 890′ 889.8199
   5 18°   45′ णखि ṇakhi 215 1105′ 1105.1089
   6 22°   30′ ञखि ñakhi 210 1315′ 1315.6656
   7 26°   15′ ङखि ṅakhi 205 1520′ 1520.5885
   8 30°   00′ हस्झ hasjha 199 1719′ 1719.0000
   9 33°   45′ स्ककि skaki 191 1910′ 1910.0505
   10 37°   30′ किष्ग kiṣga 183 2093′ 2092.9218
   11 41°   15′ श्घकि śghaki 174 2267′ 2266.8309
   12 45°   00′ किघ्व kighva 164 2431′ 2431.0331
   13 48°   45′ घ्लकि ghlaki 154 2585′ 2584.8253
   14 52°   30′ किग्र kigra 143 2728′ 2727.5488
   15 56°   15′ हक्य hakya 131 2859′ 2858.5925
   16 60°   00′ धकि dhaki 119 2978′ 2977.3953
   17 63°   45′ किच kica 106 3084′ 3083.4485
   18 67°   30′ स्ग sga 93 3177′ 3176.2978
   19 71°   15′ झश jhaśa 79 3256′ 3255.5458
   20 75°   00′ ंव ṅva 65 3321′ 3320.8530
   21 78°   45′ क्ल kla 51 3372′ 3371.9398
   22 82°   30′ प्त pta 37 3409′ 3408.5874
   23 86°   15′ pha 22 3431′ 3430.6390
   24 90°   00′ cha 7 3438′ 3438.0000

केरलीय गणित सम्प्रदाय के गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री माधवाचार्य ने चौदहवीं शताब्दी में विभिन्न कोणों के ज्या के मानों की एक सारणी निर्मित की थी। इस सारणी में चौबीस कोणों के ज्या के मान दिए गये हैं। जिन कोणों के ज्या के मान दिए गये हैं वे हैं:
3.75°, 7.50°, 11.25°, ..., तथा 90.00° (अर्थात् 3.75°= 1/24 समकोण के पूर्णांक गुणक)।
यह सारणी एक संस्कृत श्लोक के रूप में है जिसमें संख्यात्मक मानों को कटपयादि पद्धति का उपयोग करके निरूपित किया गया है।
इससे सम्बन्धित माधव के मूल कार्य प्राप्त नहीं होते हैं किन्तु नीलकण्ठ सोमयाजि (1444–1544) के 'आर्यभटीयभाष्य' तथा शंकर वरियार (सन् 1500-1560) द्वारा रचित तन्त्रसंग्रह की 'युक्तिदीपिका/लघुवृत्ति' नामक टीका में भी हैं।[1]

माधव की सारणी
निम्नांकित श्लोक में माधव की ज्या सारणी दिखायी गयी है। जो चन्द्रकान्त राजू द्वारा लिखित कल्चरल फाउण्डेशन्स ऑफ मैथमेटिक्स नामक पुस्तक से लिया गया है।[1]
श्रेष्ठं नाम वरिष्ठानां हिमाद्रिर्वेदभावनः।
तपनो भानुसूक्तज्ञो मध्यमं विद्धि दोहनं॥
धिगाज्यो नाशनं कष्टं छत्रभोगाशयाम्बिका।
म्रिगाहारो नरेशोऽयं वीरोरनजयोत्सुकः॥
मूलं विशुद्धं नालस्य गानेषु विरला नराः।
अशुद्धिगुप्ताचोरश्रीः शंकुकर्णो नगेश्वरः॥
तनुजो गर्भजो मित्रं श्रीमानत्र सुखी सखे!।
शशी रात्रौ हिमाहारो वेगल्पः पथि सिन्धुरः॥
छायालयो गजो नीलो निर्मलो नास्ति सत्कुले।
रात्रौ दर्पणमभ्रांगं नागस्तुंगनखो बली॥
धीरो युवा कथालोलः पूज्यो नारीजरैर्भगः।
कन्यागारे नागवल्ली देवो विश्वस्थली भृगुः॥
तत्परादिकलान्तास्तु महाज्या माधवोदिताः।
स्वस्वपूर्वविशुद्धे तु शिष्टास्तत्खण्डमौर्विकाः॥ २.९.५
माधव द्वारा दिए गये ज्या मान

माधव द्वारा दिए गए मानों की व्याख्या करने वाला चित्र
माधव द्वारा दिए गए मानों को समझने के लिए माना कोई कोण A है। O केन्द्र वाले तथा इकाई त्रिज्या के एक वृत्त की कल्पना कीजिए। माना वृत्त का चाप PQ केन्द्र O पर A कोण बनाता है। Q से OP पर QR लम्ब खींचिए। रेखाखण्ड RQ का मान ही Sin A का मान होगा।
उदाहरण के लिए माना A का मान 22.50° है। sin 22.50° का आधुनिक मान 0.382683432363 है तथा,
0.382683432363 radians = 180 / π × 0.382683432363 degrees = 21.926145564094 degrees.
तथा
21.926145564094 डिग्री = 1315 आर्कमिनट 34 आर्कसेकेण्ड 07 का सांठवाँ आर्कसेकेण्ड.
कटपयादि पद्धति में अंकों को उलटे क्रम में लिखा गया है। और 22.50° के संगत जो मान दिया गया है वह है : 70435131.
माधव की सारणी से कोणों के ज्या निकालना
किसी कोण A के लिए, माना

तो

सारणी की प्रत्येक पंक्ति आठ अंक देती है। माना कोण A के संगत अंक (बाएँ से दाहिने की तरफ पढ़िए) इस प्रकार हैं-

तो कटपयादि प्रणाली के अनुसार

माधवाचार्य के ज्या मानों की शुद्धता की तुलना
निम्नलिखित सारणी में माधवाचार्य के ज्या मानों की शुद्धता की तुलना संगत आधुनिक मानों के साथ की गई है।
कोण A
(डिग्री में) sin A के लिए माधवाचार्य द्वारा प्रदत्त मान माधवाचार्य की सारणी
से प्राप्त sin A
का मान sin A का
आधुनिक मान
देवनागरी लिपि में
कटपयादि प्रणाली
का उपयोग करते हुए ISO 15919 लिप्यन्तरण
योजना में संख्यात्मक मान
(1) (2) (3) (4) (5) (6)
03.75 श्रेष्ठो नाम वरिष्ठानां śreṣṭhō nāma variṣṭhānāṁ 22 05 4220
0.06540314 0.06540313
07.50 हिमाद्रिर्वेदभावनः himādrirvēdabhāvanaḥ 85 24 8440
0.13052623 0.13052619
11.25 तपनो भानु सूक्तज्ञो tapanō bhānu sūktajñō 61 04 0760
0.19509032 0.19509032
15.00 मध्यमं विद्धि दोहनं maddhyamaṁ viddhi dōhanaṁ 51 54 9880
0.25881900 0.25881905
18.75 धिगाज्यो नाशनं कष्टं dhigājyō nāśanaṁ kaṣṭaṁ 93 10 5011
0.32143947 0.32143947
22.50 छन्नभोगाशयांबिका channabhōgāśayāṁbikā 70 43 5131
0.38268340 0.38268343
26.25 मृगाहारो नरेशोयं mr̥gāhārō narēśōyaṁ 53 82 0251
0.44228865 0.44228869
30.00 वीरो रणजयोत्सुकः vīrō raṇajayōtsukaḥ 42 25 8171
0.49999998 0.50000000
33.75 मूलं विशुद्धं नाळस्य mūlaṁ viṣuddhaṁ nāḷasya 53 45 9091
0.55557022 0.55557023
37.50 गानेषु विरळा नराः gāneṣu viraḷā narāḥ 30 64 2902
0.60876139 0.60876143
41.25 अशुद्धिगुप्ता चोरश्रीः aśuddhiguptā cōraśrīḥ 05 93 6622
0.65934580 0.65934582
45.00 शम्कुकर्णो नगेश्वरः śaṃkukarṇō nageśvaraḥ 51 15 0342
0.70710681 0.70710678
48.75 तनूजो गर्भजो मित्रं tanūjō garbhajō mitraṃ 60 83 4852 0.75183985 0.75183981
52.50 श्रीमानत्र सुखी सखे śrīmānatra sukhī sakhē 25 02 7272
0.79335331 0.79335334
56.25 शशी रात्रौ हिमाहारौ śaśī rātrou himāhārou 55 22 8582
0.83146960 0.83146961
60.00 वेगज्ञः पथि सिन्धुरः vēgajñaḥ pathi sindhuraḥ 43 01 7792
0.86602543 0.86602540
63.25 छाया लयो गजो नीलो chāya layō gajō nīlō 71 31 3803
0.89687275 0.89687274
67.50 निर्मलो नास्ति सल्कुले nirmalō nāsti salkulē 05 30 6713
0.92387954 0.92387953
71.25 रात्रौ दर्पणमभ्रांगं rātrou darpaṇamabhrāṁgaṁ 22 81 5523
0.94693016 0.94693013
75.00 नागस्तुंग नखो बली nāgastuṁga nakhō balī 03 63 0233
0.96592581 0.96592583
78.75 धीरो युवा कथालोलः dhīrō yuvā kathālōlaḥ 92 14 1733
0.98078527 0.98078528
82.50 पूज्यो नारीजनैर्भगाः pūjyō nārījanairbhagāḥ 11 02 8043
0.99144487 0.99144486
86.25 कन्यागारे नागवल्ली kanyāgārē nāgavallī 11 32 0343
0.99785895 0.99785892
90.00 देवो विश्वस्थली भृगुः devō viśvasthalī bhr̥ guḥ 84 44 7343
0.99999997 1.00000000
प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये प्राचीन साहित्य और पुरातत्व का सहारा लेना पड़ता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधता सम्पन्न है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, शिक्षा आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, सैन्य विज्ञान, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, आदि भी वर्ण्यविषय रहे हैं।[1]
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्राचीन भारत के कुछ योगदान निम्नलिखित हैं-[2][3]
गणित - वैदिक साहित्य शून्य के कांसेप्ट, बीजगणित की तकनीकों तथा कलन-पद्धति, वर्गमूल, घनमूल के कांसेप्ट से भरा हुआ है।
खेल - शतरंज, लुडो, साँप-सीढ़ी एवं ताश के खेलों का जन्म प्राचीन भारत में ही हुआ।
ललित कला - वेदों का पाठ किया जाता था जो सस्वर एवं शुद्ध होना आवश्यक था। इसके फलस्वरूप वैदिक काल में ही ध्वनि एवं ध्वनिकी का सूक्ष्म अध्ययन आरम्भ हुआ।
ज्योतिष -

खगोलविज्ञान - ऋग्वेद (2000 ईसापूर्व) में खगोलविज्ञान का उल्लेख है।
भौतिकी - ६०० ईसापूर्व के भारतीय दार्शनिक ने परमाणु एवं आपेक्षिकता के सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख किया है।
रसायन विज्ञान - इत्र का आसवन, गन्दहयुक्त द्रव, वर्ण एवं रंजकों (dyes and pigments) का निर्माण, शर्करा का निर्माण
आयुर्विज्ञान एवं आयुर्वेद - लगभग ८०० ईसापूर्व भारत में चिकित्सा एवं शल्यकर्म पर पहला ग्रन्थ का निर्माण हुआ था।

सैन्य विज्ञान
सिविल इंजीनियरी एवं वास्तुशास्त्र - मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त नगरीय सभयता उस समय में उन्नत सिविल इंजीनियरी एवं आर्किटेक्चर के अस्तित्व कको प्रमाणित करती है।
यांत्रिक एवं वाहन प्रौद्योगिकी - यान-निर्माण एवं नौवहन (Shipbuilding & navigation) - संस्कृत एवं पालि ग्रन्थों में अनेक क्रियाकलापों के उल्लेख मिलते हैं।
धातुकर्म - ग्रीक इतिहासकारों ने लिखा है कि चौथी शताब्दी ईसापूर्व में भारत में कुछ धातुओं का प्रगलन (स्मेल्टिंग) की जाती थी।

प्राचीन भारत के प्रमुख शास्त्र
प्राचीन समय में न आफसेट प्रिंटिंग की मशीने थीं, न स्क्रिन प्रिटिंग की मशीनें। न ही इंटरनेट था जहां किसी भी विषय पर असंख्य सूचनाएं उपलब्ध होती हैं। फिर भी प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों ने अपने पुरुषार्थ, ज्ञान और शोध की मदद से कई शास्त्रों की रचना की और उसे विकसित भी किया। इनमें से कुछ प्रमुख शास्त्रों का विवेचन प्रस्तुत है-
आयुर्वेदशास्त्र
आयुर्वेद शास्त्र का विकास उत्तरवैदिक काल में हुआ। इस विषय पर अनेक स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुई। भारतीय परम्परा के अनुसार आयुर्वेद की रचना सबसे पहले ब्रह्मा ने की। ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने अश्विनी कुमारों को और फिर अश्विनी कुमारों ने इस विद्या को इन्द्र को प्रदान किया। इन्द्र के द्वारा ही यह विद्या सम्पूर्ण लोक में विस्तारित हुई। इसे चार उपवेदों में से एक माना गया है।
कुछ विद्वानों के अनुसार यह ऋग्वेद का उपवेद है तो कुछ का मानना है कि यह ‘अथर्ववेद’ का उपवेद है। आयुर्वेद की मुख्य तीन परम्पराएं हैं- भारद्वाज, धनवन्तरि और काश्यप। आयुर्वेद विज्ञान के आठ अंग हैं- शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविधा, कौमारमृत्य, अगदतन्त्रा, रसायन और वाजीकरण। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, काश्यप संहिता इसके प्रमुख ग्रंथ हैं जिन पर बाद में अनेक विद्वानों द्वारा व्याख्याएं लिखी गईं।
आयुर्वेद के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ चरकसंहिता के बारे में ऐसा माना जाता है कि मूल रूप से यह ग्रन्थ आत्रेय पुनर्वसु के शिष्य अग्निवेश ने लिखा था। चरक ऋषि ने इस ग्रन्थ को संस्कृत में रूपांतरित किया। इस कारण इसका नाम चरक संहिता पड़ गया। बताया जाता है कि पतंजलि ही चरक थे। इस ग्रन्थ का रचनाकाल ईं. पू. पांचवी शताब्दी माना जाता है।
रसायनशास्त्र
रसायनशास्त्र का प्रारंभ वैदिक युग से माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में रसायनशास्त्र के ‘रस’ का अर्थ होता था-पारद। पारद को भगवान शिव का वीर्य माना गया है। रसायनशास्त्र के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के खनिजों का अध्ययन किया जाता था। वैदिक काल तक अनेक खनिजों की खोज हो चुकी थी तथा उनका व्यावहारिक प्रयोग भी होने लगा था। परंतु इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम नागार्जुन नामक बौद्ध विद्वान ने किया। उनका काल लगभग 280-320 ई. था। उन्होंने एक नई खोज की जिसमें पारे के प्रयोग से तांबा इत्यादि धातुओं को सोने में बदला जा सकता था।
रसायनशास्त्र के कुछ प्रसिद्ध ग्रंथों में एक है रसरत्नाकर। इसके रचयिता नागार्जुन थे। इसके कुल आठ अध्याय थे परंतु चार ही हमें प्राप्त होते हैं। इसमें मुख्यत: धातुओं के शोधन, मारण, शुद्ध पारद प्राप्ति तथा भस्म बनाने की विधियों का वर्णन मिलता है।
प्रसिद्ध रसायनशास्त्री श्री गोविन्द भगवतपाद जो शंकराचार्य के गुरु थे, द्वारा रचित ‘रसहृदयतन्त्र’ ग्रंथ भी काफी लोकप्रिय है। इसके अलावा रसेन्द्रचूड़ामणि, रसप्रकासुधाकर रसार्णव, रससार आदि ग्रन्थ भी रसायनशास्त्र के ग्रन्थों में ही गिने जाते हैं।
ज्योतिषशास्त्र
ज्योतिष वैदिक साहित्य का ही एक अंग है। इसमें सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, नक्षत्र, ऋतु, मास, अयन आदि की स्थितियों पर गंभीर अध्ययन किया गया है। इस विषय में हमें ‘वेदांग ज्योतिष’ नामक ग्रंथ प्राप्त होता है। इसके रचना का समय 1200 ई. पू. माना गया है। आर्यभट्ट ज्योतिष गणित के सबसे बड़े विद्वान के रूप में माने जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार इनका जन्म 476 ई. में पटना (कुसुमपुर) में हुआ था। मात्र 23 वर्ष की उम्र में इन्होंने ‘आर्यभट्टीय’ नामक प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में पूरे 121 श्लोक हैं। इसे चार खण्डों में बांटा गया है- गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद।
वराहमिहिर के उल्लेख के बिना तो भारतीय ज्योतिष की चर्चा अधूरी है। इनका समय छठी शताब्दी ई. के आरम्भ का है। इन्होंने चार प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की- पंचसिद्धान्तिका, वृहज्जातक, वृहदयात्रा तथा वृहत्संहिता जो ज्योतिष को समझने में मदद करती हैं।
गणितशास्त्र
प्राचीन काल से ही भारत में गणितशास्त्र का विशेष महत्व रहा है। यह सभी जानते हैं कि शून्य एवं दशमलव की खोज भारत में ही हुई। यह भारत के द्वारा विश्व को दी गई अनमोल देन है। इस खोज ने गणितीय जटिलताओं को खत्म कर दिया। गणितशास्त्र को मुख्यत: तीन भागों में बांटा गया है। अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित।
वैदिक काल में अंकगणित अपने विकसित स्वरूप में स्थापित था। ‘यजुर्वेद’ में एक से लेकर 10 खरब तक की संख्याओं का उल्लेख मिलता है। इन अंकों को वर्णों में भी लिखा जा सकता था।
बीजगणित का साधारण अर्थ है, अज्ञात संख्या का ज्ञात संख्या के साथ समीकरण करके अज्ञात संख्या को जानना। अंग्रेजी में इसे ही अलजेब्रा कहा गया है। भारतीय बीजगणित के अविष्कार पर विवाद था। कुछ विद्वानों का मानना था इसके अविष्कार का श्रेय यूनानी विद्वान दिये फान्तस को है। परंतु अब यह साबित हो चुका है कि भारतीय बीजगणित का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है और इसका श्रेय भारतीय विद्वान आर्यभट (446 ई.) को जाता है।
रेखागणित का अविष्कार भी वैदिक युग में ही हो गया था। इस विद्या का प्राचीन नाम है- शुल्वविद्या या शुल्वविज्ञान। अनेक पुरातात्विक स्थलों की खुदाई में प्राप्त यज्ञशालाएं, वेदिकाएं, कुण्ड इत्यादि को देखने तथा इनके अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि इनका निर्माण रेखागणित के सिद्धांत पर किया गया है। ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, नवशती, गणिततिलक, बीजगणित, गणितसारसंग्रह, गणित कौमुदी इत्यादि गणित शास्त्र के प्रमुख ग्रन्थ हैं।
कामशास्त्र
भारतीय समाज में पुरुषार्थ का काफी महत्व है। पुरुषार्थ चार हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। काम का इसमें तीसरा स्थान है। सर्वप्रथम नन्दी ने 1000 अध्यायों का ‘कामशास्त्र’ लिखा जिसे बाभ्रव्य ने 150 अध्यायों में संक्षिप्त रूप में लिखा। कामशास्त्र से संबंधित सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है ‘कामसूत्र’ जिसकी रचना वात्स्यायन ने की थी। इस ग्रंथ में 36 अध्याय हैं जिसमें भारतीय जीवन पद्धति के बारे में बताया गया है। इसमें 64 कलाओं का रोचक वर्णन है। इसके अलावा एक और प्रसिद्ध ग्रंथ है ‘कुहनीमत’ जो एक लघुकाव्य के रूप में है। कोक्कक पंडित द्वारा रचित रतिरहस्य को भी बेहद पसंद किया जाता है।
संगीतशास्त्र
भारतीय परंपरा में भगवान शिव को संगीत तथा नृत्य का प्रथम अचार्य कहा गया है। कहा जाता है के नारद ने भगवान शिव से ही संगीत का ज्ञान प्राप्त किया था। इस विषय पर अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं जैसे नारदशिक्षा, रागनिरूपण, पंचमसारसंहिता, संगीतमकरन्द आदि।
संगीतशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों में मुख्यत: उमामहेश्वर, भरत, नन्दी, वासुकि, नारद, व्यास आदि की गिनती होती है। भरत के नाटयशास्त्र के अनुसार गीत की उत्पत्ति जहां सामवेद से हुई है, वहीं यजुर्वेद ने अभिनय (नृत्य) का प्रारंभ किया।
धर्मशास्त्र
प्राचीन काल में शासन व्यवस्था धर्म आधारित थी। प्रमुख धर्म मर्मज्ञों वैरवानस, अत्रि, उशना, कण्व, कश्यप, गार्ग्य, च्यवन, बृहस्पति, भारद्वाज आदि ने धर्म के विभिन्न सिद्धांतों एवं रूपों की विवेचना की है। पुरुषार्थ के चारों चरणों में इसका स्थान पहला है।
उत्तर काल में लिखे गये संग्रह ग्रंथों में तत्कालीन समय की सम्पूर्ण धार्मिक व्यवस्था का वर्णन मिलता है। स्मृतिग्रंथों में मनुस्मृति, याज्ञवल्कय स्मृति, पराशर स्मृति, नारदस्मृति, बृहस्पतिस्मृति में लोकजीवन के सभी पक्षों की धार्मिक दृष्टिकोण से व्याख्या की गई है तथा कुछ नियम भी प्रतिपादित किये गये हैं।
अर्थशास्त्र
चार पुरुषार्थो में अर्थ का दूसरा स्थान है। महाभारत में वर्णित है कि ब्रह्मा ने अर्थशास्त्र पर एक लाख विभागों के एक ग्रंथ की रचना की। इसके बाद शिव (विशालाक्ष) ने दस हजार, इन्द्र ने पांच हजार, बृहस्पति ने तीन हजार, उशनस ने एक हजार विभागों में इसे संक्षिप्त किया।
अर्थशास्त्र के अंतर्गत केवल वित्त संबंधी चर्चा का ही उल्लेख नहीं किया गया है। वरन राजनीति, दण्डनीति और नैतिक उपदेशों का भी वृहद वर्णन मिलता है। अर्थशास्त्र का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है कौटिल्य का अर्थशास्त्र। इसकी रचना चाणक्य ने की थी। चाणक्य का जीवन काल चतुर्थ शताब्दी के आस-पास माना जाता है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में धर्म, अर्थ, राजनीति, दण्डनीति आदि का विस्तृत उपदेश है। इसे 15 अधिकरणों में बांटा गया है। इसमें वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण, धार्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिष आदि विद्याओं के साथ अनेक प्राचीन अर्थशास्त्रियों के मतों के साथ विषय को प्रतिपादित किया गया है। इसके अलावा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ है कामन्दकीय नीतिसार, नीतिवाक्यामृत, लघुअर्थनीति इत्यादि।
प्रौद्योगिकी ग्रन्
'भृगुशिल्पसंहिता' में १६ विज्ञान तथा ६४ प्रौद्योगिकियों का वर्णन है। इंजीनियरी प्रौद्योगिकियों के तीन 'खण्ड' होते थे। 'हिन्दी शिल्पशास्त्र' नामक ग्रन्थ में कृष्णाजी दामोदर वझे ने ४०० प्रौद्योगिकी-विषयक ग्रन्थों की सूची दी है, जिसमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
विश्वमेदिनीकोश, शंखस्मृति, शिल्पदीपिका, वास्तुराजवल्लभ, भृगुसंहिता, मयमतम्, मानसार, अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधार, कश्यपसंहिता, वृहतपराशरीय-कृषि, निसारः, शिगृ, सौरसूक्त, मनुष्यालयचंद्रिका, राजगृहनिर्माण, दुर्गविधान, वास्तुविद्या, युद्धजयार्णव।
प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित १८ प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में से 'कश्यपशिल्पम्' सर्वाधिक प्राचीन मानी जाती है।
प्राचीन खनन एवं खनिकी से सम्बन्धित संस्क्रित ग्रन्थ हैं- 'रत्नपरीक्षा', लोहार्णणव, धातुकल्प, लोहप्रदीप, महावज्रभैरवतंत्र तथा पाषाणविचार।
'नारदशिल्पशास्त्रम' शिल्पशास्त्र का ग्रन्थ है।
अन्य शास्त्र
न्यायशास्त्र, योगशास्त्र, वास्तुशास्त्र, नाट्यशास्त्र, काव्यशास्त्र, अलंकारशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि।
प्राचीन भारतीय गणित, विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर अनुसन्धान
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में ऐसे ग्रन्थों की संख्या लाखों में है जिनका सम्बन्ध धर्म या आध्यात्म से न होकर मानव के दैनन्दिन जीवन तथा उससे जुड़े गणित, विज्ञान और प्रौद्योगिकी से है। इसी तथ्य को देखते हुए कई संस्थानों ने इस दिशा में अनुसन्धान कार्य आरम्भ किया है। मई २०१८ में आई आई टी खडगपुर ने एक ऐसा ही पाठ्यक्रम आरम्भ किया है।[4]
भारतीय गणित

ब्रह्मगुप्त प्रमेय के अनुसार AF=FD (इसके लिए आवश्यक शर्तें चित्र में ही दर्शायी गयी हैं।)
गणितीय गवेषणा का महत्वपूर्ण भाग भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न हुआ है। संख्या, शून्य, स्थानीय मान, अंकगणित, ज्यामिति, बीजगणित, कैलकुलस आदि का प्रारम्भिक कार्य भारत में सम्पन्न हुआ। गणित-विज्ञान न केवल औद्योगिक क्रांति का बल्कि परवर्ती काल में हुई वैज्ञानिक उन्नति का भी केंद्र बिन्दु रहा है। बिना गणित के विज्ञान की कोई भी शाखा पूर्ण नहीं हो सकती। भारत ने औद्योगिक क्रांति के लिए न केवल आर्थिक पूँजी प्रदान की वरन् विज्ञान की नींव के जीवnत तत्व भी प्रदान किये जिसके बिना मानवता विज्ञान और उच्च तकनीकी के इस आधुनिक दौर में प्रवेश नहीं कर पाती। विदेशी विद्वानों ने भी गणित के क्षेत्र में भारत के योगदान की मुक्तकंठ से सराहना की है।


'गणित' शब्द का इतिहास
विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद संहिताओं से गणित तथा ज्योतिष को अलग-अलग शास्त्रों के रूप में मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। यजुर्वेद में खगोलशास्त्र (ज्योतिष) के विद्वान् के लिये ‘नक्षत्रदर्श’ का प्रयोग किया है तथा यह सलाह दी है कि उत्तम प्रतिभा प्राप्त करने के लिये उसके पास जाना चाहिये (प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शम्)। वेद में शास्त्र के रूप में ‘गणित’ शब्द का नामतः उल्लेख तो नहीं किया है पर यह कहा है कि जल के विविध रूपों का लेखा-जोखा रखने के लिये ‘गणक’ की सहायता ली जानी चाहिये।
शास्त्र के रूप में ‘गणित’ का प्राचीनतम प्रयोग लगध ऋषि द्वारा प्रोक्त वेदांग ज्योतिष नामक ग्रन्थ का एक श्लोक में माना जाता है। पर इससे भी पूर्व छान्दोग्य उपनिषद् में सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने जो 18 अधीत विद्याओं की सूची प्रस्तुत की है, उसमें ज्योतिष के लिये ‘नक्षत्र विद्या’ तथा गणित के लिये ‘राशि विद्या’ नाम प्रदान किया है। इससे भी प्रकट है कि उस समय इन शास्त्रों की तथा इनके विद्वानों की अलग-अलग प्रसिद्धि हो चली थी।
आगे चलकर इस शास्त्र के लिये अनेक नाम विकसित होते रहे। सर्वप्रथम ब्रह्मगुप्त ने पाट या पाटी का प्रयोग किया। बाद में श्रीधराचार्य ने ‘पाटी गणित’ नाम से महनीय ग्रन्थ लिखा। तब से यह नाम लोकप्रिय हो गया। पाटी या तख्ती पर खड़िया द्वारा संक्रियाएँ करने से यह नाम समाज में चलने लगा। अरब में भी गणित की इस पद्धति को अपनाने से इस नाम के वजन पर ‘इल्म हिसाब अल तख्त’ नाम प्रचलित हुआ।
परिभाषा-
भारतीय परम्परा में गणेश दैवज्ञ ने अपने ग्रन्थ बुद्धिविलासिनी में गणित की परिभाषा निम्नवत की है-
गण्यते संख्यायते तद्गणितम्। तत्प्रतिपादकत्वेन तत्संज्ञं शास्त्रं उच्यते।
(जो परिकलन करता और गिनता है, वह गणित है तथा वह विज्ञान जो इसका आधार है वह भी गणित कहलाता है।)
गणित दो प्रकार का है-
व्यक्तगणित या पाटीगणित - इसमें व्यक्त राशियों का उपयोग किया जाता है।
अव्यक्तगणित या बीजगणित - इसमें अव्यक्त या आज्ञात राशियों का उपयोग किया जाता है। अव्यक्त संख्याओं को 'वर्ण' भी कहते हैं। इन्हें 'या', 'का', 'नी' आदि से निरूपित किया जाता है। (जैसे आजकल रोमन अक्षरों x, y, z का प्रयोग किया जाता है। (का = कालक, नी = नीलक, या = यावत्, ता = तावत्)
भारतीय ग्रन्थों में गणित की महत्ता का प्रकाशन
वेदांग ज्योतिष में गणित का स्थान सर्वोपरि (मूधन्य) बताया गया है -
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्ध्नि संस्थितम्।। (वेदांग ज्योतिष - ५)
(जिस प्रकार मोरों के सिर पर शिखा और नागों के सिर में मणि सर्वोच्च स्थान में होते हैं उसी प्रकार वेदांगशास्त्रों में गणित का स्थान सबसे उपर (मूर्धन्य) है।
इसी प्रकार,
बहुभिर्प्रलापैः किम्, त्रयलोके सचरारे।
यद् किंचिद् वस्तु तत्सर्वम्, गणितेन् बिना न हि ॥ — महावीराचार्य, गणितसारसंग्रह में
(बहुत प्रलाप करने से क्या लाभ है ? इस चराचर जगत में जो कोई भी वस्तु है वह गणित के बिना नहीं है / उसको गणित के बिना नहीं समझा जा सकता)
अन्य शास्त्रों में गणित की विवेचना
भारत में अन्य शास्त्रों के विद्वान भी गणित की भावना से ओत-प्रोत रहे प्रतीत होते हैं। उन शास्त्रों में प्रसंगवश गणित विषयक जानकारियाँ बिखरी पड़ी हैं। महान वैयाकरण पाणिनि ने गणित के अनेक शब्दों की सूक्ष्म विवेचना की है। उन्होंने उस समय की आवश्यकतानुसार प्रतिशत के स्थान पर मास में देय ब्याज के लिये एक ‘प्रतिदश’ अनुपात का उल्लेख किया है (कुसीददशैकादशात् ष्ठन्ष्ठचौ (पा.सा. 4.4.31))। चक्रवृद्धि ब्याज द्वारा सर्वाधिक बढ़ी हुई रकम को ‘महाप्रवृद्ध’ बताया है। तोल, माप, सिक्के, पण्य द्रव्य के सैकड़ो शब्दों के वर्णन के अन्तर्गत त्रैराशिक नियम की सूचना दी है।
दर्शनशास्त्र में वेदान्त में अध्यारोप अपवाद के सिद्धान्त बीजगणितीय समीकरण या अंकगणित के ‘इष्टकर्म’ के समकक्ष हैं। न्याय शास्त्र की अनुमान या तर्कविद्या सर्वथा गणितीय नियमों से संचालित है।
ई. पू. दूसरी शती में पिंगल विरचित छन्दशास्त्र में छन्दों के विभेद को वर्णित करने वाला ‘मेरुप्रस्तार’ पास्कल के त्रिभुज से तुलनीय बनता है। वेदों के क्रमपाठ, घनपाठ आदि में गणित के श्रेणी-व्यवहार के तत्त्व वर्तमान हैं।
यदि यह जानना हो कि समाज में 56 प्रकार के व्यंजन का प्रयोग किस प्रकार प्रचलित है, तो इसके लिये वैद्यकशास्त्र में वर्णित गणित के ‘अंक-पाश’ के अन्तर्गत ‘संचय’ (Combination) के नियमों के आधार पर कुल 6 रसों के द्वारा 63 तथा अन्ततः 56 विभेदों की संकल्पना का अध्ययन अपेक्षित होगा।
साहित्य-शास्त्र में भी गणित के आधार पर मनोरम रचनाएँ प्राप्त होती हैं। वहां पाणिनीय व्याकरण के एक प्रमुख उदाहरण ‘लाकृति’ के आधार पर सुख-दुख में एक समान रहने वाले सज्जन तथा 9 संख्या की मनोहारी समानता बताई गई है। महाकवि श्रीहर्ष ने बताया है कि दमयन्ती के कान आखिर क्यों तथा किस प्रकार सर्वथा नए रचे गए। उन्होंने माना कि उपनिषदों में वर्णित 18 विद्याओं में से 9-9 विद्याओं का अनुप्रवेश दमयन्ती के कानों के अन्दर तक हुआ था। ये नव अंक ही कानों में पहुँच कर शब्दसाम्य से ‘नव’ बन गए—
अस्या यदष्टादश संविभज्य विद्याः श्रुतीः दध्रतुरर्धमर्धम्।
कर्णान्तरुत्कीर्णगभीररेखः किं तस्य संख्यैव नवा नवांकः।। (नैषध, 7.63)
खगोल-विज्ञान के साथ तो गणित का अन्योन्य सम्बन्ध माना गया है। भास्कराचार्य का कहना है कि खगोल तथा गणित में एक दूसरे से अनभिज्ञ पुरुष उसी प्रकार महत्त्वहीन है, जैसे घृत के बिना व्यंजन, राजा के बिना राज्य तथा अच्छे वक्ता के बिना सभा होती है—
भोज्यं यता सर्वरसं विनाज्यं राज्यं यथा राजविवर्जितं च।
सभा न भातीव सुवक्तृहीना गोलानभिज्ञो गणकस्तथात्र।। (सिद्धान्तशिरोमणि, गोलाध्याय, श्लोक 4)
गणित के विभिन्न क्षेत्रों में भारत का योगदान
प्राचीनकाल तथा मध्यकाल के भारतीय गणितज्ञों द्वारा गणित के क्षेत्र में किये गये कुछ प्रमुख योगदान नीचे दिये गये हैं-
(१) अंकगणित : दाशमिक प्रणाली (Decimal system), ऋण संख्याएँ (Negative numbers) (ब्रह्मगुप्त देखें), शून्य (हिन्दू अंक प्रणाली देखें), द्विक संख्या प्रणाली (Binary numeral system), स्थानीय मान पर आधारित संख्या आधुनिक संख्या निरूपण, फ्लोटिंग पॉइंट संख्याएँ (केरलीय गणित सम्प्रदाय देखें), संख्या सिद्धान्त, अनन्त (Infinity) (यजुर्वेद देखें), टांसफाइनाइट संख्याएँ (Transfinite numbers), अपरिमेय संख्याएँ (शुल्बसूत्र देखें)
(२) भूमिति अर्थात भूमि मापन का शास्त्र : वर्गमूल (बक्षाली पाण्डुलिपि देखें), घनमूल (महावीर देखें), पाइथागोरीय त्रिक (शुल्बसूत्र देखें, बौधायन तथा आपस्तम्ब ने पाइथागोरस प्रमेय का स्पष्ट कथन किया है किन्तु बिना उपपत्ति (proof) के), ट्रांसफॉर्मेशन (पाणिनि देखें), पास्कल त्रिकोण (पिंगल देखें)
(३) बीजगणित: द्विघात समीकरण (शुल्बसूत्र, आर्यभट, और ब्रह्मगुप्त देखें), त्रिघात समीकरण और चतुर्घात समीकरण (biquadratic equations) (महावीर और भास्कर द्वितीय देखें)
(४) गणितीय तर्कशास्त्र (लॉजिक): Formal grammars, formal language theory, the Panini-Backus form (पाणिनि देखें), Recursion (पाणिनि देखें)
(५) सामान्य गणित: Fibonacci numbers (पिंगल देखें), मोर्स कोड का प्राचीनतम रूप (पिंगल देखें), लघुगणक, घातांक (जैन गणित देखें), कलन विधि , अल्गोरिज्म (Algorism) (आर्यभट और ब्रह्मगुप्त देखें)
(६) त्रिकोणमिति: त्रिकोणमितीय फलन (सूर्य सिद्धान्त और आर्यभट देखें), त्रिकोणमितीय श्रेणी (केरलीय गणित सम्प्रदाय देखें)
(७) कैलकुलस : आर्यभट की ज्या सारणी, माधव की ज्या सारणी, तथा केरलीय गणित सम्प्रदाय द्वारा किये गये कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण, मौलिक और न्यूटन आदि से कई सौ वर्ष पहले के हैं।
भारतीय गणित का इतिहास
मुख्य लेख: भारतीय गणित का इतिहास
सभी प्राचीन सभ्यताओं में गणित विद्या की पहली अभिव्यक्ति गणना प्रणाली के रूप में प्रगट होती है। अति प्रारंभिक समाजों में संख्यायें रेखाओं के समूह द्वारा प्रदर्शित की जातीं थीं। यद्यपि बाद में, विभिन्न संख्याओं को विशिष्ट संख्यात्मक नामों और चिह्नों द्वारा प्रदर्शित किया जाने लगा, उदाहरण स्वरूप भारत में ऐसा किया गया। रोम जैसे स्थानों में उन्हें वर्णमाला के अक्षरों द्वारा प्रदर्शित किया गया। यद्यपि आज हम अपनी दशमलव प्रणाली के अभ्यस्त हो चुके हैं, किंतु सभी प्राचीन सभ्यताओं में संख्याएं दशमाधार प्रणाली (decimal system) पर आधारित नहीं थीं। प्राचीन बेबीलोन में 60 पर आधारित संख्या-प्रणाली का प्रचलन था।

भारत में गणित के इतिहास को मुख्यता ५ कालखंडों में बांटा गया है-

१. आदि काल (500 इस्वी पूर्व तक)
(क) वैदिक काल (१००० इस्वी पूर्व तक)- शुन्य और दशमलव की खोज
(ख) उत्तर वैदिक काल (१००० से ५०० इस्वी पूर्व तक) इस युग में गणित का भारत में अधिक विकास हुआ। इसी युग में बोधायन शुल्व सूत्र की खोज हुई जिसे हम आज पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जानते है।
२. पूर्व मध्य काल – sine, cosine की खोज हुई।
३. मध्य काल – ये भारतीय गणित का स्वर्ण काल है। आर्यभट्ट, श्रीधराचार्य, महावीराचार्य आदि श्रेष्ठ गणितज्ञ हुए।
४. उत्तर-मध्य काल (१२०० इस्वी से १८०० इस्वी तक) - नीलकंठ ने १५०० में sin r का मान निकालने का सूत्र दिया जिसे हम ग्रेगरी श्रेणी के नाम से जानते है।
५. वर्तमान काल - रामानुजम आदि महान गणितज्ञ हुए।
भारतीय गणित : एक सूक्ष्मावलोकन
गणित मूलतः भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित हुआ। शून्य एवं अनन्त की परिकल्पना, अंकों की दशमलव प्रणाली, ऋणात्मक संख्याएं, अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति एवं त्रिकोणमिति के विकास के लिए संपूर्ण विश्व भारत का कृतज्ञ है। वेद विश्व की पुरातन धरोहर है एवं भारतीय गणित उससे पूर्णतया प्रभावित है। वेदांग ज्योतिष में गणित की महत्ता इस प्रकार व्यक्त की गई है :

जिस प्रकार मयूरों की शिखाएं और सर्पों की मणियां शरीर के उच्च स्थान मस्तिष्क पर विराजमान हैं, उसी प्रकार सभी वेदांगों एवं शास्त्रों में गणित का स्थान सर्वोपरि है।
सिंधु घाटी की सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भागों में फैली थी। इतिहासकार इसे ईसा पूर्व 3300-1300 का काल मानते हैं। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त अवशेषों एवं शिलालेखों से उस समय की प्रयुक्त गणित की जानकारी प्राप्त होती है। उस समय की ईंटों एवं भिन्न-भिन्न भार के परिमाप के विविध आकारों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीयों को ज्यामिति की प्रारंभिक जानकारी थी। लंबाई के परिमाप की विशिष्ट विधि थी जिससे ठीक-ठीक ऊंचाई ज्ञात हो सके। ईंटों के निर्माण की विधि, शुद्धमाप के लिए भार के विविध आकार एवं लंबाई के विविध परिमापों से स्पष्ट है कि सिंधु घाटी की सभ्यता परिष्कृत एवं विकसित थी। उस समय अंकगणित, ज्यामिति एवं प्रारंभिक अभियांत्रिकी का ज्ञान था।

वेद विश्व का सबसे पुराना ग्रंथ है। बाल गंगाधर तिलक ने खगोलीय गणना के आधार पर इसका काल ईसा पूर्व 6000-4500 वर्ष निर्धारित किया है। ऋग्वेद की ऋचाओं में 10 पर आधारित विविध घातों की संख्याओं को अलग-अलग संज्ञा दी गई है, यथा एक (100 ), दश (101 ) शत (102 ) सहस्त्र (103 ), आयुत (104 ), लक्ष (105 ), प्रयुत (106 ), कोटि (107 ), अर्बुद (108 ), अब्ज (109 ), खर्ब (1010 ), विखर्ब (1011 ), महापदम (1012 ), शंकु (1013 ), जलधि (1014 ), अन्त्य (1015 ), मध्य (1016 ) और परार्ध (1017 )।

इन संख्याओं से स्पष्ट है कि वैदिक काल से ही अंकों की दशमलव प्रणाली प्रचलित है। यजुर्वेद में गणितीय संक्रियाएं- योग, अन्तर, गुणन, भाग तथा भिन्न आदि का समावेश है, उदाहरणार्थ यजुर्वेद की निम्न ऋचाओं पर ध्यान दें।

एका च मे तिस्त्रश्च मे तिस्त्रश्च मे पंच च मे
पंच च मे सप्त च मे सप्त च मे नव च मे नव च
मऽएकादश च में त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे
पञचदश च मे पंचदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश
च मे नवदश च मे नवदश च मे एक विंशतिश्च मे
त्रयास्त्रंशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥ 18.24
अर्थात् यज्ञ के फलस्वरूप हमारे निमित्त एक-संख्यक स्तोम (यज्ञ कराने वाले), तीन, पांच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पन्द्रह, सत्रह, उन्नीस, इक्कीस, तेईस, पच्चीस, सत्ताइस, उनतीस, इकतीस और तैंतीस संख्यक स्तोम सहायक होकर अभीष्ट प्राप्त कराएं। इस श्लोक में विषम संख्याओं की समांतर श्रेणी प्रस्तुत की गई है-

1, 3, 5, 7, 9, 11, 13, 15, 17, 19, 21, 23, 25, 27, 29, 31, 33
यज्ञ का अर्थ संगतिकरण से है। अंकों के अंकों की संगति से अंक विद्या बनती है। श्लोक में प्रत्येक संख्या के साथ ‘च’ जुड़ा है जिसका अर्थ ‘और’ से है। इसका अर्थ +1 जोड़ने से सम अथवा विषम राशियां बन जाती हैं। इसी से पहाड़ा एवं वर्गमूल के सिद्धांतों का प्रतिपादन होता है। इस अध्याय का अगला श्लोक (18.25) सम संख्याओं के समांतर श्रेणी प्रस्तुत करता है।

4, 8, 12, 16, 20, 24, 28, 32, 36, 40, 44.
अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वैदिक काल में-

(क) एक अंकीय संख्याएं 1, 2, 3, ..9;
(ख) शून्य और अनंत;
(ग) क्रमागत संख्याएं एवं भिन्नात्मक संख्याएं; तथा
(घ) गणितीय संक्रियाओं का उल्लेखनीय ज्ञान था।
धार्मिक अनुष्ठानों में वेदियों की रचना के लिए ज्यामिति का आविष्कार हुआ। शतपथ ब्राह्मण एवं तैत्तरीय संहिता में ज्यामिति की संकल्पना प्रस्तुत है। पर सामान्यतयाः ऐसा विचार है कि वेदांग ज्योतिष के शुल्वसूत्र से आधुनिक ज्यामिति की नींव पड़ी। वेदांग ज्योतिष के अनुसार सूर्य की संक्रांति एवं विषुव की स्थितियां कृतिका नक्षत्र के वसंत विषुव के आस-पास हैं।

यह स्थिति ईसा पूर्व 1370 वर्ष के लगभग की है। अतः वेदांग ज्योतिष की रचना संभवतः ईसा पूर्व वर्ष 1300 के आस-पास हुई होगी। इस युग के महान गणितज्ञ लगध,बौधायन, मानव, आपस्तम्ब, कात्यायन रहे हैं। इन सभी ने अलग-अलग सूल्व सूत्र की रचना की। बोधायन का सूल्व सूत्र इस प्रकार है-

दीर्घस्याक्षणया रज्जुः पार्श्वमानी तिर्यकं मानी च।
यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयांकरोति ॥
अर्थात् दीर्घ चतुरस (आयत) के विकर्ण (रज्जू) का क्षेत्र (वर्ग) का मान आधार (पार्श्वमानी) एवं त्रियंगमानी (लंब) के वर्गों का योग होता है। सूल्व सूत्र आधुनिक काल में 'पाइथागोरस का सूत्र' के नाम से प्रचलित है। पैथागोरस ने ईसा पूर्व 535 में मिस्र की यात्रा की थी। संभव है कि पैथागोरस को मिस्र में सूल्व सूत्र की जानकारी प्राप्त हो चुकी हो।
बोधायन ने अपरिमेय राशि 20.5 का मान इस प्रकार दिया हैः

20.5 = 1 + 1/3 + 1/3.4 - 1/3.4.3.4
महर्षि लगध ने ऋग्वेद एवं यजुर्वेद की ऋचाओं से वेदांग ज्योतिष संग्रहीत किया। वेदांग ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति, काल एवं गति की गणना के सूत्र दिए गए हैं।

तिथि मे का दशाम्य स्ताम् पर्वमांश समन्विताम्।
विभज्य भज समुहेन तिथि नक्षत्रमादिशेत॥
अर्थात् तिथि को 11 से गुणा कर उसमें पर्व के अंश जोड़ें और फिर नक्षत्र संख्या से भाग दें। इस प्रकार तिथि के नक्षत्र बतावें।नेपालमें इसी ग्रन्थके आधारमे विगत ६ सालसे "वैदिक तिथिपत्रम्" व्यवहारमे लाया गया है |
हमारे ऋषि, महर्षियों को बड़ी संख्याओं में अपार रुचि थी। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गौतम बुद्ध की जीवनी पर आधारित ‘ललितविस्तर’ की रचना हुई। उसमें गौतम बुद्ध के गणित कौशल की परीक्षा का प्रसंग आता है। उनसे कोटि (107 ) से ऊपर संख्याओं के अलग-अलग नाम के बारे में पूछा गया। युवा सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध का बचपन का नाम) ने कोटि के बाद 1053 की संख्याओं का अलग-अलग नाम दिया और फिर 1053 को आधार मान कर 10421 तक की संख्याओं को उनके नामों से संबोधित किया। गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। उन्हीं के समकक्ष महावीर स्वामी का भी पदार्पण हुआ जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की। जैन महापुरुषों की गणित में भी रुचि थी। उनकी प्रसिद्ध रचनाएं- ‘सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र’, 'वैशाली गणित’, ‘स्थानांग सूत्र’, ‘अनुयोगद्वार सूत्र’ एवं ‘शतखण्डागम’ है। भद्रवाहु एवं उमास्वति प्रसिद्ध जैन गणितज्ञ थे।

वैदिक परंपरा में गुरु अपना ज्ञान मौखिक रूप से अपने योग्य शिष्य को प्रदान करता था पर ईसा पूर्व 5वीं शताब्दी में ब्राह्मी लिपि का आविष्कार हुआ। गणित की पुस्तकों की पांडुलिपियां ब्राह्मी लिपि में तैयार हुईं। ‘बख्शाली पाण्डुलिपि’ पहली पुस्तक थी जिसके कुछ अंश पेशावर के एक गांव वख्शाली में प्राप्त हुए। ईसा पूर्व 3 शताब्दी की लिखी यह पुस्तक एक प्रमाणिक ग्रंथ है। इसमें गणितीय संक्रियाओं-दशमलव प्रणाली, भिन्न, वर्ग, घन, ब्याज, क्रय एवं विक्रय आदि विषयों पर विस्तृत चर्चा हुई है। आधुनिक गणित के त्रुटि स्थिति (False Position) विधि का भी यहां समावेश है।

ज्योतिष की एक अन्य पुस्तक ‘सूर्य सिद्धान्त’ की भी रचना संभवतः इसी दौरान हुई। वैसे इसके लेखक के बारे में कोई जानकारी नहीं है। पर मयासुर को सूर्यदेव की आराधना के फलस्वरूप यह ज्ञान प्राप्त हुआ था। निःसंदेह यह आर्यों की कृति नहीं है। सूर्य सिद्धांत में बड़ी से बड़ी संख्याओं को व्यक्त करने की विधि वर्णित है। गिनती के अंकों को संख्यात्मक शब्दों में व्यक्त किया गया है, यथा रूप (1), नेत्र (2), अग्नि (3), युग (4), इन्द्रिय (5), रस (6), अद्रि (7 - पर्वत शृंखला), बसु (8), अंक (9), रव (0)। इन शब्दों के पर्यायवाची शब्द अथवा हिंदू देवी-देवताओं के नाम से भी व्यक्त किया गया है। पंद्रह को तिथि से तथा सोलह को निशाकर से। अंकों को दाएं से बाएं की तरफ रख कर बड़ी से बड़ी संख्या व्यक्त की गई है। सूर्य सिद्धांत में विविध गणितीय संक्रियाओं का वर्णन है। आधुनिक त्रिकोणमिति का आधार भी सूर्य सिद्धांत के तीसरे अध्याय में विद्यमान है। ज्या, उत्क्रम ज्या एवं कोटि ज्या परिभाषित किया गया है। यहां ध्यान देने योग्य बात है कि ज्या शब्द अरबी में जैब से बना, जिसका लैटिन रूपांतरण Sinus में किया गया और फिर यह वर्तमान 'Sine' में परिवर्तित हुआ। सूर्य सिद्धांत में π का मान 101/2 दिया गया है।

भारतीय इतिहास में गुप्त काल 'स्वर्ण युग' के रूप में माना जाता है। महाराजा श्रीगुप्त द्वारा स्थापित गुप्त साम्राज्य पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला था। सन् 320-550 के मध्य इस साम्राज्य में ज्ञान की हर विद्या में महत्त्वपूर्ण आविष्कार हुए। इस काल में आर्यभट (476) का आविर्भाव हुआ। उनके जन्म स्थान का ठीक-ठीक पता नहीं है पर उनका कार्यक्षेत्र कुसुमपुर (वर्तमान पटना) रहा। 121 श्लोकों की उनकी रचना आर्यभटीय के चार खंड हैं- गितिका पद (13), गणित पद (33), कालकृपा पद (25) और गोल पद (50)। प्रथम खंड में अंक विद्या का वर्णन है तथा द्वितीय एवं तृतीय खंड में बीजगणित, त्रिकोणमिति, ज्यामिति एवं ज्योतिष पर विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। उन्होंने π का 4 अंकों तक शुद्ध मान ज्ञात किया- π = 3.4161। संख्याओं को व्यक्त करने के लिए उन्होंने देवनागरी वर्णमाला के पहले 25 अक्षर (क-म) तक 1-25, य-ह (30, 40, 50, ... 100) और स्वर अ-औ तक 100, 1002 , ... 1008 से प्रदर्शित किया। उदाहरण के लिए :

जल घिनि झ सु भृ सृ ख
(8 + 50) (4 + 20) (9 + 70) (90 + 9) 2 = 299792458
यहां भी संख्याएं दाएं से बाएं की तरफ लिखी गई हैं। आधुनिक बीज लेख (Cryptolgy) के लिए इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है। आर्यभट की समृति में भारत सरकार ने 19 अपै्रल 1975 को प्रथम भारतीय उपग्रह आर्यभट को पृथ्वी की निम्न कक्षा में स्थापित किया।

आर्यभट के कार्यों को भास्कराचार्य (600 ई) ने आगे बढ़ाया। उन्होंने महाभास्करीय, आर्यभटीय भाष्य एवं लघुभास्करीय की रचना की। महाभास्करीय में कुट्टक (Indeterminate) समीकरणों की विवेचना की गई है। भास्कराचार्य की स्मृति में द्वितीय भारतीय उपग्रह का नाम ‘भास्कर’ रखा गया।

भास्कराचार्य के समकालीन भारतीय गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त (598 ई) थे। ब्रह्मगुप्त की प्रसिद्ध कृति ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त है। इसमें 25 अध्याय हैं। बीजगणित के समीकरणों के हल की विधि एवं द्विघातीय कुट्टक समीकरण, X2 = N.y2 + 1 का हल इसमें दिया गया है। जोशेफ लुईस लगरेंज (सन् 1736 - 1813) ने कुट्टक समीकरण का हल पुनः ज्ञात किया। भास्कराचार्य ने प्रिज्म एवं शंकु के आयतन ज्ञात करने की विधि बताई तथा गुणोत्तर श्रेणी के योग का सूत्र दिया। ‘‘किसी राशि को शून्य से विभाजित करने पर अनंत प्राप्त होता है’’, कहने वाले वह प्रथम गणितज्ञ थे। महावीराचार्य (सन् 850) ने संख्याओं के लघुतम मान ज्ञात करने की विधि प्रस्तुत की। गणितसारसंग्रह उनकी कृति है।

श्रीधराचार्य (सन् 850) ने द्विघाती समीकरणों के हल की विधि दी जो आज 'श्रीधराचार्य विधि' के नाम से ज्ञात है। उनकी रचनाएं -‘नवशतिका’, ‘त्रिशतिका’, एवं ‘पाटीगणित’ हैं। ‘पाटीगणित’ का अरबी भाषा में अनुवाद ‘हिजाबुल ताराप्त’ शीर्षक से हुआ। आर्यभट द्वितीय (सन् 920 -1000) ने महासिद्धान्त की रचना की जिसमें अंकगणित एवं बीजगणित का उल्लेख है। उन्होंने π का मान 22/7 निर्धारित किया। श्रीपति मिश्र (सन् 1039) ने ‘सिद्धान्तशेषर’ एवं ‘गणिततिलक’ की रचना की जिसमें क्रमचय एवं संचय के लिए नियम दिए गए हैं।

नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (सन् 1100) समुच्चय सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले प्रथम गणितज्ञ थे। उन्होंने सार्वभौमिक समुच्चय एवं सभी प्रकार के मानचित्रण (Mapping) एवं सुव्यवस्थित सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। गैलीलियो एवं जार्ज कैंटर ने इस विधि का ‘एक से एक’ (वन-टू-वन) मानचित्रण में उपयोग किया।

भास्कराचार्य द्वितीय (सन् 1114) ने ‘सिद्धान्तशिरोमणि’, ‘लीलावती’, ‘बीजगणित’ ‘गोलाध्याय’, ‘ग्रहगणितम’ एवं ‘करणकौतुहल’ की रचना की। बीजगणित के कुट्टक समीकरणों के हल की चक्रवाल विधि दी। यह विधि जर्मन गणितज्ञ हरमन हेंकेल (सन् 1839-73) को बहुत पसंद आई। हेंकल के अनुसार लगरेंज से भी पूर्व संख्या सिद्धांत में चक्रवाल विधि एक उल्लेखनीय खोज है। पीयरे डी फरमेट (सन् 1601-1665) ने भी कुट्टक समीकरणों के हल के लिए चक्रवाल विधि का प्रयोग किया था।

भास्कराचार्य द्वितीय के पश्चात् गणित में अभिरुचि केरल के नम्बुदरी ब्राह्मणों ने प्रकट की। ‘आर्यभटीय’ की एक पांडुलिपि मलयालम भाषा में केरल में प्राप्त हुई। केरल के विद्वानों में नारायण पण्डित (सन् 1356) का विशेष योगदान है। उनकी रचना-‘गणितकौमुदी’ में क्रमचय एवं संचय, संख्याओं का विभागीकरण तथा ऐन्द्र जालिक (Magic) वर्ग की विवेचना है। नारायण पंडित के छात्र परमेश्वर (सन् 1370 - 1460) ने मध्यमान सिद्धांत (Mean Value theorem) स्थापित किया तथा त्रिकोणमितीय फलन ज्या का श्रेणी-हल दिया :

ज्या (x) = x - x3/3 +
परमेश्वर के छात्र नीलकण्ठ सोमयाजि (सन् 1444-1544) ने 'तंत्रसंग्रह' की रचना की। उन्होंने व्युतक्रम स्पर्श ज्या का श्रेणी हल प्रस्तुत किया :

tan\-1 (x) = x - x3/3 + x5/5
इसके साथ ही गणितीय विश्लेषण, संख्या सिद्धांत, अनंत श्रेणी, सतत भिन्न पर भी उनका अमूल्य योगदान है। व्युतक्रम स्पर्श ज्या का उनका श्रेणी हल वर्तमान में ग्रीगरीज श्रेणी के नाम से प्रचलित है।

सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के प्राचार्य रहे सुधाकर द्विवेदी (सन् 1860-1922) ने दीर्घवृतलक्षण, गोलीय रेखागणित, समीकरण मीमांशा एवं चलन-कलन पर मौलिक पुस्तकें लिखीं। आधुनिक गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् (सन् 1887-1920) ने लगभग 50 गणितीय सूत्रों का प्रतिपादन किया। स्वामी भारती तीर्थ जी महाराज (सन् 1884-1960) ने वैदिक गणित के माध्यम से गुणा, भाग, वर्गमूल एवं घनमूल की सरल विधि प्रस्तुत की। हाल ही में अमेरिकी अंतरिक्ष केंद्र के वैज्ञानिक रीक वृग्स के अनुसार पाणिनि की अष्टाध्यायी व्याकरण कम्प्यूटर आधारित भाषा प्रोगामर के लिए बहुत ही उपयुक्त है। ईसा पूर्व 650 में लिखी इस पुस्तक में 4000 बीजगणित जैसे सूत्र हैं।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विविध आयामों में भारतीय गणित बहुत ही समृद्ध है। कम्प्यूटर-भाषाओं के साथ-साथ आधुनिक गणित प्राचीन भारतीय गणित का ऋणी है।

भारतीय गणित : विद्वानों के उद्गार
'भारत और वैज्ञानिक क्रांति' (Indic Mathematics: India and the Scientific Revolution) में डेविड ग्रे (David Grey) लिखते हैं :

पश्चिम में गणित का अध्ययन लम्बे समय से कुछ हद तक राष्ट्र केंद्रित पूर्वाग्रह से प्रभावित रहा है, एक ऐसा पूर्वाग्रह जो प्रायः बड़बोले जातिवाद के रूप में नहीं बल्कि गैरपश्चिमी सभ्यताओं के वास्तविक योगदान को नकारने या मिटाने के प्रयास के रूप में परिलक्षित होता है। पश्चिम अन्य सभ्यताओं विशेषकर भारत का ऋणी रहा है। और यह ऋण ’’पश्चिमी’’ वैज्ञानिक परंपरा के प्राचीनतम काल - ग्रीक सम्यता के युग से प्रारंभ होकर आधुनिक काल के प्रारंभ, पुनरुत्थान काल तक जारी रहा है - जब यूरोप अपने अंध युग से जाग रहा था।
इसके बाद डॉ॰ ग्रे भारत में घटित गणित के सर्वाधिक महत्वपूर्ण विकसित उपलब्धियों की सूची बनाते हुए भारतीय गणित के चमकते सितारों जैसे आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, महावीर, भास्कर और माधव के योगदानों का संक्षेप में वर्णन करते हैं। अंत में वे जोर देकर कहते हैं -

यूरोप में वैज्ञानिक क्रांति के विकास में भारत का योगदान केवल हासिये पर लिखी जाने वाली टिप्पणी नहीं है जिसे आसानी से और अतार्किक तौर पर यूरोप केंद्रित पूर्वाग्रह के आडम्बर में छिपा दिया गया है। ऐसा करना इतिहास को विकृत करना है और वैश्विक सभ्यता में भारत के महानतम योगदान को नकारना है।
भारतीय गणित : यूरोकेन्द्रीयता का शिकार
अब यह स्पष्ट रूप से माना जाने लगा है कि गणित में भारत के योगदान को सुनियोजित तरीके से कमतर बताया गया है या उसकी उपेक्षा की गयी है। भारतीय मनीषियों द्वारा गणित में बहुत से योगदान (अनुसंधान और विकास) तत्कालीन यूरोपियों को पता था जिनका ज्ञान-विज्ञान यूरोपियों ने थोड़ा बहुत हेर-फेर करके अपने प्रगति के नाम पर मूल अनुसंधान के रूप में प्रस्तुत कर दिया।

भारतीत गणित की प्राचीनता की तुलनात्मक सारणी

क्रमांक यूरोपीय दावे आविष्कर्ता भारतीय दावे आविष्कर्ता
0 अरबी अंक प्रणाली अल-ख्वारिज्मी ( 825 ई॰) हिन्दू अंक प्रणाली प्रथम शताब्दी
1 पाथागोरीय त्रिक पाइथागोरस (540 ईसापूर्व) तैत्तिरीय त्रिक तैत्तिरीय संहिता (3500 ईसापूर्व)
2 पाइथागोरस प्रमेय पाइथागोरस (540 BC) बौधायन प्रमेय बौधायन (2000 BC)
3 हीरोन का सूत्र हीरोन (10-70 AD) शुल्बसूत्र शुल्बसूत्र (2000 -1700 BC), ब्रह्मगुप्त का सूत्र (७वीं शताब्दी)
4 Backus-Naur Form Notation Backus-Naur (1963) पाणिनी-बाकस-नौर फॉर्म नोटेशन पाणिनी (700 BC)
5 पास्कल त्रिकोण ब्लेज पास्कल (1623-1662) पिंगल-वराहमिहिर त्रिभुज पिंगलाचार्य (700 BC), वराहमिहिर (488 AD या 150 BC)
6 फिबोनाकी सिरीस पीसा का फिबोनाकी (1202 AD) पिंगल-विराहंक श्रेणी पिंगलाचार्य (700 BC), विरहांक (6ठी शताब्दी)
7 जॉर्ज कैंटर सिद्धान्त (The concept of infinity and the theory of infinite cardinal numbers) जॉर्ज कैंटर (1845-1918) जैन-कैंटर सिद्धान्त जैन धर्म के ग्रन्थ (500-200 BC)
8 जॉन नेपियर लघुगणक जॉन नेपियर (1550-1617) वीरसेन लघुगणक वीरसेन (760-830 AD)
9 Extended Euclidean Algorithm युक्लिड (300 BC) आर्यभट्ट अल्गोरिद्म आर्यभट्ट (476 AD या 2742 BC)
10 विल्सन का प्रमेय जॉन विल्सन (1741-1793) भास्कर प्रमेय भास्कर प्रथम (570-650 AD)
11 पेल का समीकरण जॉन पेल (1610-1685 AD) ब्रह्मगुप्त समीकरण ब्रह्मगुप्त (598-668AD)
12 जॉर्ज कैंटर का समुच्चय सिद्धान्त जॉर्ज कैंटर (1845-1918) वीरसेन-कैंटर समुच्चय सिद्धान्त वीरसेन (760-830 AD)
13 न्यूटन-गाउस अन्तर्वेशन सूत्र न्यूटन (1643-1727), गाउस (1777-1855) गोविन्द स्वामी अन्तर्वेशन सूत्र गोविन्दस्वामी (800-860 AD)
14 Herigone’s Formula Herigone (1580-1643 AD) महावीर सूत्र महावीर (814-880 AD)
15 Newton-Stirling Interpolation Formula आइजक न्यूटन (1643-1727) ब्रह्मगुप्त अन्तर्वेशन सूत्र ब्रह्मगुप्त (598-668AD)
16 वर्ग समीकरण हल करने का आधुनिक सूत्र श्रीधर का सूत्र श्रीधराचार्य (750 AD)
17 Newton-Gauss Backward Interpolation Formula न्यूटन (1643-1727) Gauss (1777-1855) वटेश्वर पश्चवर्ती अन्तर्वेशन सूत्र वटेश्वर (880 AD)
18 रोल का प्रमेय माइकेल रोल (1691) भास्कराचार्य प्रमेय भास्कर द्वितीय (1114-1185 AD)
19 फर्मा की गुणनखण्ड विधि पिअरे डी फर्मा (Fermat 1601-1665) नारायण पण्डित की गुणनखण्ड विधि नारायण पण्डित (1325-1400 AD)
20 Newton’s Power Series Newton (1643-1727) माधव श्रेणी माधव (1340-1425 AD)
21 टेलर श्रेणी ब्रूक टेलर (1685-1731) माधव श्रेणी माधव (1340-1425 AD)
22 Gregory Series माधव श्रेणी माधव (1340-1425 AD)
23 Leibnitz Series लैब्नीज (1646-1716) माधव श्रेणी माधव (1340-1425 AD)
24 Euler Series आइलर (177-1783) माधव श्रेणी माधव (1340-1425 AD)
25 Lhuilier Formula Lhuilier (1782) परमेश्वर सूत्र परमेश्वर (1360-1445 AD)
26 Tychonic Planetary model Tycho Brahe (1546-1601) नीलकण्ठ का ग्रह मॉडल नीलकण्ठ (1444-1543 AD)
27 Tycho Brahe : Inventor of the technique of “Reduction to ecliptic” Tycho Brahe (1546-1601) अच्युत पिषारटि : Inventor of the technique of “Reduction to ecliptic” अच्युत पिषारटि (1540-1621 AD)
28 हिप्पार्कस : त्रिकोणमिति का जनक हिप्पार्कस (190-120 BC) सूर्यसिद्धान्त के रचयिता “आधुनिक त्रिकोणमिति के जनक”. सूर्य सिद्धांत (800 BC या 3000 BC?)
29 डायोफैंटीय समीकरण डायोफैंटस (तृतीय शताब्दी) आर्यभट समीकरण आर्यभट (476 AD या 2742 BC)
30 Formulae for finding the volume of a frustum of cone and the volume of a pyramid केपलर (1571-1630) ब्रह्मगुप्त (598-668 AD) :
31 Extended Euclidean algorithm आर्यभट्ट कलनविधि आर्यभट (476 AD या 2742 BC)
32 चीनी शेषफल प्रमेय Sunzi Suanjing (3rd Cent AD) आर्यभट का शेषफल प्रमेय आर्यभट (६ठी श्ताब्दी)
भारतीय गणित की शब्दावली
गणित
पाटीगणित
बीजगणित
अव्यक्त गणित -- 'अव्यक्त गणित' तथा 'अव्यक्त रासि' का प्रयोग क्रमशः आधुनिक बीजगणित (अल्जेब्रा) एवं 'अज्ञात राशि' (unknown) के लिए हुआ है।
करण - गणना करने की विधि या विधि बताने वाला ग्रन्थ
कुट्टक - अनिर्धार्य समीकरण जिनका पूर्णांक हल निकालना होता था।
त्रैराशिकव्यवहार (द रूल ऑफ थ्री)
यावत-तावत् - भारतीय बीजगणित में अज्ञात-राशि के लिए 'यावत्-तावत्' (जितने कि उतनी मात्रा में) का प्रयोग हुआ है।
वर्ण (variable) - ब्रह्मगुप्त ने अज्ञात राशि के लिए 'वर्ण' (रंग, अक्षर) शब्द का प्रयोग किया। इसलिए कालान्तर में अज्ञात राशि के लिए कालक (का), नीलक (नी), पीलक (पी) आदि का प्रयोग होता रहा।
करणी (surd)
परिकर्म (mathematical operation)
इष्टकर्म (Rule of supposition) - यह बहुत प्राचीन नियम है किन्तु भास्कराचार्य ने इसे यह नाम प्रदान किया है। इसमें सारी संक्रियाएं किसी कल्पित राशि के माध्यम से की जातीं हैं।
मिश्रक-व्यवहार - इसमें ब्याज, स्वर्ण की मिलावट आदि से सम्बन्धित प्रश्न आते हैं।
क्षेत्रगणितव्यवहार (Measurement of Areas)
खातव्यवहार (calculations regarding excavations)
छायाव्यवहार (Calculations relating to shadows)
वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल आदि
अर्धच्छेद - किसी संख्या N का अर्धच्छेद वह संख्या है जिसको २ के उपर घात लगाने से N मिलता है। अतः ३२ का अर्धच्छेद ५ है।
कटपयादि
अर्धज्या या ज्यार्ध (half cord)
जीवा (कॉर्ड)
शून्य
अनन्त
समीकरण (equation)
मेरुप्रस्तार (pyramidal expansion or Pascal triangle)
भारतीय ज्योतिषी से अभिप्राय उन ग्रंथकारों से है जिन्होंने अपने ग्रंथ, भारत में विकसित ज्योतिष प्रणाली के आधार पर लिखे। प्राचीन काल के ज्योतिषगणना संबंधी कुछ ग्रंथ ऐसे हैं, जिनके लेखकों ने अपने नाम नहीं दिए हैं। ऐसे ग्रंथ हैं वेदांग ज्योतिष (काल ई पू 1200); पंचसिद्धांतिका में वर्णित पाँच ज्योतिष सिद्धांत ग्रंथ। कुछ ऐसे भी ज्योतिष ग्रंथकार हुए हैं जिनके वाक्य अर्वाचीन ग्रंथों में उद्धृत हैं, किंतु उनके ग्रंथ नहीं मिलते। उनमें मुख्य हैं नारद, गर्ग, पराशर, लाट, विजयानंदि, श्रीषेण, विष्णुचंद आदि। अलबेरूनी के लेख के आधार पर लाट ने मूल सूर्यसिद्धांत के आधार पर इसी नाम के एक ग्रंथ की रचना की है। श्रीषेण के मूल वसिष्ठ सिद्धांत के आधार पर वसिष्ठ-सिद्धांत लिखा। ये सब ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त (शक संवत् 520) से पूर्व हुए है। श्रीषेण आर्यभट के बाद तथा ब्रह्मगुप्त से पूर्व हुए हैं। प्रसिद्ध ज्योतिषियों का परिचय निम्नलिखित है :
आर्यभट प्रथम
मुख्य लेख: आर्यभट्ट
वराहमिहिर
मुख्य लेख: वाराहमिहिर
ब्रह्मगुप्त
मुख्य लेख: ब्रह्मगुप्त
मनु
रचनाकाल : शक संवत् 800 के लगभग, ग्रंथ : बृहन्मानसकरण।
विटेश्वर
रचनाकाल : शंक संवत् 821, ग्रंथ : करणसार।
बटेश्वर
इन्होंने सिद्धांत बटेश्वर लिखा है, जिसे हाल ही में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑव ऐस्ट्रोनॉमिकल ऐंड संस्कृत रिसर्च, नई दिल्ली, ने छपाया है। अलबेरुनी के पास इस ग्रंथ का एक अरबी अनुवाद था और उसने इसकी बहुत प्रंशसा की है। इसकी ज्याप्रणाली अन्य सिद्धांतों की ज्याप्रणाली से सूक्ष्म है। कुछ विद्वानों के अनुसार वित्तेश्वर और बटेश्वर एक ही व्यक्ति थे।
मुंजाल
इनका रचनाकाल शक संवत् 854 है। इनका उपलब्ध ग्रंथ लघुमानसकरण है। इन्होंने अयनगति 1 कला मानी है। अयनगति के प्रसंग में भास्कराचार्य ने इनका नाम लिया है। मुनीश्वर ने मरीचि में अयनगति विषयक इनके कुछ श्लोक उद्धृत किए हैं, जो लघुमानस के नहीं हैं। इससे पता चलता है कि मुंजाल का एक और मानस नामक ग्रंथ था, जो उपलब्घ नहीं है।
आर्यभट द्वितीय
मुख्य लेख: आर्यभट्ट द्वितीय
चतुर्वेद
पृथूदक स्वामी, रचनाकाल : 850-900 शक संवत् के भीतर। ग्रंथ : ब्रह्मस्फुटसिद्धांत की टीका।
विजयनंदि
रचनाकाल : शक सं 888। ग्रंथ : करणतिलक।
श्रीपति
इनका रचनाकाल शक सं 961 हैं। इन्होंने सिद्धांतशेखर तथा धीकोटिदकरण नामक गणित ज्योतिष विषयक और रत्नमाला नामक मुहूर्त्त विषयक ग्रंथ लिखा है। सुधाकर द्विवेदी के अनुसार इनका रत्नसार नामक एक अन्य मुहूर्त ग्रंथ भी है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने ज्याखंडों के बिना केवल चाप के अंशों से ज्यासाधन किया है। ये नागदेव के पुत्र थे।
वरुण
रचनाकाल : शक सं 962। ग्रंथ : खंडखाद्य टीका।
भोजराज
इनका रचनाकाल शक सं 964 है। इनका ग्रंथ राजमृगांक है। इसमें इन्होंने ब्रह्मगुप्त के सिद्धांत के लिये बीजसंस्कारों को निकाला है।
दशबल
इनका रचनाकाल शक सं 980 है। इसका ग्रंथ करणकमलमार्तंड है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें सारणियाँ दी गई हैं, जिनसे ग्रहों की गणना सुगम हो जाती है।
ब्रह्मदेव गणक
इनके पिता का नाम चंद्र था। ये मथुरा के रहनेवाले थे। इनका रचनाकाल शक सं 1014 है। इन्होंने करणप्रकाश नामक ग्रंथ लिखा है। इन्होंने आर्यभटीयम् की गतियों में लल्ल के बीजसंस्कार करके उसे ग्रहण किया है। इनका शून्यायनांश वर्ष शक सं 445 है। इन्होंने अयनगति 1 कला मानी है1
शतानंद
जगन्नाथपुरी निवासी शतानंद का रचनाकाल शक सं 1021 है। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ भास्वतीकरण है। इनका शून्यायनांश वर्ष 450 तथा अयनगति 1 कला है। इन्होंने अहर्गण का साधन स्पष्ट मेष से किया है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने ग्रहगतियों को शतांश अथवा प्रति शत में रखा है, जिससे गणित करने में सरलता हो जाती है। यह पद्धति आधुनिक दशमलव प्रणाली जैसी है1
महेश्वर
प्रसिद्ध गणित ज्योतिषी भास्कराचार्य के पिता तथा गुरु, महेश्वर, का जन्मकाल शक सं 1000 के लगभग है। शेखर इनका गणितज्योतिष का ग्रंथ है। इनके अन्य ग्रंथ हैं। लघुजातकटीका, वृत्तशत, प्रतिष्ठाविधिदीपक।
सोमेश्वर तृतीय
इनके अन्य नाम हैं भूलोक मल्ल और सर्वज्ञभूपाल। ये चालुक्य वंश के राजा थे। इन्होंने शक सं 1051 में अभिलाषितार्थचिंतामणि नामक ग्रंथ लिखा।
भास्कराचार्य
मुख्य लेख: भास्कराचार्य
वाविलालकोच्चन्ना
रचनाकाल : शक संवत् 1220। इन्होंने सूर्यसिद्धांत के आधार पर एक करणग्रंथ लिखा है।
महादेव प्रथम
ये गुजराती ब्राह्मण थे। शक संवत् 1238 में इन्होंने चक्रेश्वर नामक ज्योतिषी द्वारा आरंभ किए हुए, ग्रहसिद्धि नामक सारणीग्रंथ को पूर्ण किया।
महादेव तृतीय
ये त्र्यंबक की राजसभा के पंडित, बोपदेव, के पुत्र थे। इन्होंने शक संवत् 1289 में कामधेनुकरण नामक ग्रंथ लिखा।
नार्मद
रचनाकाल : शक संवत् 1300। रचना : सूर्यसिद्धांत टीका।
पद्नाभ
रचनाकाल : शक संवत् 1320। रचना : यंत्ररत्नावली, जिसके द्वितीय अध्याय में प्रसिद्ध ध्रुवमय यंत्र है।
लल्ल
पं सुधाकर द्विवेदी ने इनका रचनाकाल शक संवत् 421 तथा केर्न ने शक संवत् 420 माना है, किंतु बालशंकर दीक्षित के अनुसार इनका काल लगभग शक संवत् 560 है। इन्होंने आर्यभटीय के आधार पर अपना शिष्यधीवृद्धिदतंत्र नामक ग्रहगणित का ग्रंथ लिखा है। प्रत्यक्ष वेध द्वारा इन्होंने कुछ बीज संस्कारों का वर्णन किया है। भास्कराचार्य ने सिद्धांतशिरोमणि में कई स्थानों पर इनके गणनासूत्रों की अशुद्धियाँ दिखलाई हैं।
दामोदर
रचनाकाल : शक सं 1339, ग्रंथ : भट्टतुल्य। इसकी ग्रहगणना आर्यभट सरीखी है।
गंगाधर
रचनाकाल : शक सं 1356। ग्रंथ : चंद्रमान।
मकरंद
रचनाकाल : शक सं 1400। इन्होंने सूर्यसिद्धांत के अनुसार सारणियाँ बनाईं, जो बहुत प्रसिद्ध है। आज भी बहुत से पंचांग इनके आधार पर बनते हैं।
केशव
प्रसिद्ध ग्रहलाघवाकार गणेश के पिता केशव का रचनाकाल 1418 ई सं के लगभग है। इन्होंने करणग्रंथ ग्रहकौतुक लिखा। ये बहुत निपुण वेधकर्त्ता थे। इन्होंने अपने ग्रंथ में प्रत्यक्ष वेध द्वारा अन्य सिद्धांतकारों के ग्रहगणित की अशुद्धियों का निर्देश किया है।
गणेश
केशव के पुत्र गणेश का जन्मकाल 1420 शक सं के लगभग है। इनके ग्रंथ हैं ग्रहलाघव, लघुतिथि चिंतामणि, बृहत्तिथिचिंतामणि, सिद्धांतशिरोमणि टीका, लीलावती टीका, विवाहवृंदावन टीका, मुहूर्तत्व टीका, श्राद्धनिर्णय, छंदोर्णव, टीका, तर्जनीयंत्र, कृष्णाष्टमीनिर्णय, होलिकानिर्णय, लघुपाय पात आदि। इनकी कीर्ति का मुख्य स्तंभ है ग्रहलाघवकरण। सिद्धांतग्रंथों में वर्ण्य प्राय: सभी विषय इसमें हैं। इसकी विशेषता यह है कि इसमें ज्या चाप की गणना के बिना ही सब गणना की गई है और यह अत्यंत शुद्ध है। ये बहुत अच्छे वेधकर्ता थे। इन्होंने अपने पिता के वेधों से भी लाभ उठाया। इसीलिये इन्होंने एक ऐसी गणनाप्रणाली निकाली जो अति सरल होते हुए भी बहुत शुद्ध थी। इनके ग्रंथ के आधार पर भारत में बहुत से पंचांग बनते हैं। ग्रहलाघव की अनेक टीकाएँ हो चुकी हैं।
लक्ष्मीदास
रचनाकाल : शक सं 1422, रचना : सिद्धांतशिरोमणि के गणिताध्याय तथा गोलाध्याय की उदाहरण सहित टीका।
ज्ञानराज
इनका रचनाकाल शक सं 1425 है। इनका ग्रंथ सुंदरसिद्धांत है। इसके दो मुख्य भाग हैं : गणिताध्याय तथा गोलाध्याय। ग्रहगणित के लिये इन्होंने करणग्रंथों की तरह क्षेपक तथा वर्षगतियाँ भी दी हैं। कहीं कहीं पर इनकी उपपत्तियाँ भास्करसिद्धांत से विशिष्ट हैं। इन्होंने यंत्रमालाधिकार में एक नवीन यंत्र बनाया है।
सूर्य
इनका जनम शक सं 1430 है। ये ज्ञानराज के पुत्र थे। इन्होंने गणित ज्योतिष के सूर्यप्रकाश, लीलावती टीका, बीज टीका, श्रीपतिपद्धतिगणित, बीजगणित, नामक ग्रंथों की रचना की है। कोलब्रुक के अनुसार इन्होंने सिद्धांतशिरोमणि टीका तथा गणितमालती ग्रंथ भी बनाए हैं। इनका एक और ग्रंथ है सिद्धांतसंहितासार समुच्चय।
अनंत प्रथम
रचनाकाल : शक सं 1447। रचना : अनंतसुधारस नामक सारणीग्रंथ।
ढुंढिराज
रचनाकाल : शक सं 1447 के लगभग, रचना : अनुंबसुधारस की सुधारस-चषक-टीका, ग्रहलाघवोदाहरण, ग्रहफलोपपत्ति; पंचांगफल, कुंडकल्पलता तथा प्रसिद्ध फलितग्रंथ जातकाभरण।
नृसिंह प्रथम
ये गणेश के भाई, राम, के पुत्र थे। रचना मध्यग्रहसिद्धि (शक सं 1400) तथा ग्रहकौमुदी।
अनंत द्वितीय
मुहूर्तचिंतामणि के निर्माता राम तथा ताजिक नीलकंठी के निर्माता, नीलकंठ के पिता अनंत, का रचनाकाल शक सं 1480 है। इन्होंने कामधेनु की टीका तथा जातकपद्धति की रचना की।
नीलकंठ
रचनाकाल : शक सं 509, ग्रंथ : तोडरानंद तथा ताजिकनीलकंठी। गणकतरंगिणी के अनुसार इन्होंने जातकपद्धति भी लिखी थी। आफ्रेच सूची के अनुसार इनके अन्य ग्रंथ हैं : तिथिरतनमाला, प्रश्नकौमुदी अथवा ज्योतिषकौमुदी, दैवज्ञवल्लभा, जैमिनीसूत्र की सूबोधिनी टीका। ग्रहलाघव टीका, ग्रहौतक टीका, मकरंद टीका तथा एक मुहूर्तग्रंथ की टीका।
रघुनाथ प्रथम
काल : शक सं 1484, रचना : सुबोधमंजरी।
रघुनाथ द्वितीय
काल : शक सं 1487, रचना : मणिप्रदीप।
कृपाराम
काल : शक सं 1420 के पश्चात्, रचनाएँ : बीजगणित, मकरंद तथा यंत्रचिंतामणि की उदाहरणस्वरूप टीकाएँ। इन्होंने सर्वार्थचिंतामणि, पंचपक्षी तथा मुहूर्ततत्व की टीकाएँ भी की हैं।
दिनकर
काल : शक सं 1500, ग्रंथ : खेटकसिद्धि तथा चंद्रार्की।
गंगाधर
काल : शक सं 1508, ग्रंथ : ग्रहलाघव की मनोरमा टीका।
रामभट
काल : शक सं 1512, ग्रंथ : रामविनोदकरण।
श्रीनाथ
काल : शक सं 1512, ग्रंथ : ग्रहचिंतामणि।
विष्णु
काल : शक सं 1530, ग्रंथ : एक करणग्रंथ।
मल्लारि
काल : शक सं 1524, ग्रंथ : ग्रहलाघव की उपपत्तिसहित टीका।
विश्वनाथ
काल : शक सं 1534-1556। ये प्रसिद्ध सोदाहरण टीकाकार हैं। इन्होंने सूर्यसिद्धांत शिरोमणि, करणकुतूहल, मकरंद, केशबीजातक पद्धति, सोमसिद्धांत, तिथिचिंतामणि, चंद्रमानतंत्र, बृहज्जातक, श्रीपतिपद्धति वसिष्ठसंहिता तथा बृहत्संहिता पर टीकाएँ की हैं।
नृसिंह द्वितीय
जन्म : शक सं 1508, ग्रंथ : सूर्यसिद्धांत की सौरभाष्य तथा सिद्धांतशिरोमणि की वासनाभाष्य टीकाएँ।
शिव
जन्म : शक सं 1510, ग्रंथ : अनंतसुधारस टीका।
कृष्ण प्रथम
रचना : शक सं 1500-1530, ग्रंथ : भास्कराचार्य के बीजगणित की बीजनवांकुद तथा जातकपद्धति की टीकाएँ, तथा छादकनिर्णय।
रंगनाथ प्रथम
रचना : शक सं 1525, ग्रंथ : सूर्यसिद्धांत की गूढ़ार्थप्रकाशिका टीका।
नागेश
रचनाकाल : शक सं-1541, ग्रंथ : करणग्रंथ, तथा ग्रहप्रबोध।
मुनीश्वर
ये गूढ़ार्थप्रकाशिकाकार रंगनाथ के पुत्र थे। इनका जन्मकाल श सं 1525 है। इन्होंने सिद्धांतसार्वभौम ग्रंथ लिखा तथा लीलावती पर निसृष्टार्थदूती और सिद्धांतशिरोमणि की मरीचि टीका की। कुछ विद्वान् पाटीसार भी इनका लिखा मानते हैं।
दिवाकर
जन्मकाल : शक सं 1528 है, रचना : मकरंद की मकरंदविवृत्ति टीका।
कमलाकर भट्ट
जन्म : शक सं 1530 के लगभग। इन्होंने काशी में शक सं 1580 के लगभग सिद्धांततत्वविवेक बनाया। यह आधुनिक सूर्यसिद्धांत के आधार पर लिखा गया है। इसमें बहुत सी गणित संबंधी नवीन रीतियाँ है। तुरीय यंत्र का विस्तृत वर्णन तथा ध्रुवतारा की स्थिरता का वर्णन इनकी नूतनता है। इन्होंने मुनीश्वर तथा भास्कराचार्य का कई स्थलों पर खंडन किया है, जो कुछ स्थलों पर इनके निजी अज्ञान का द्योतक है। ये संक्षिप्त न लिखकर बहुत विस्तार से लिखते हैं। इनके 13 अध्यायों के ग्रंथ में 3,024 श्लोक हैं।
रंगनाथ द्वितीय
जन्म : शक सं 1534 के लगभग, ग्रंथ : सिद्धांतशिरोमणि की मितभाषिणी टीका तथा सिद्धांतचूड़ामणि।
नित्यानंद
रचनाकाल: शक सं 1561। इन्होंने सायन मानों से सर्वसिद्धांतराज ग्रंथ लिखा है। इसमें वर्तमान 365.14.33.7 40448 दिनादि है, जो वास्तव काल के निकटतर है। इनके दिए हुए भगणों से यह स्पष्ट है कि ये कुशल वेधकर्ता थे।
कृष्ण द्वितीय
इन्होंने शक सं 1575 में करणकौस्तुभ लिखा1
रत्नकंठ
इन्होंने शक सं 1580 में पंचांगकौस्तुभ नामक सारणीग्रंथ लिखा।
विद्दन
शक सं 1626 से कुछ पूर्व, इन्होंने वार्षिकतंत्र लिखा। इनका अन्य ग्रंथ ग्रहणमुकुर है।
जटाधर
इन्होंने शक सं 1626 में फत्तेशाह प्रकाश नामक करणग्रंथ लिखा।
दादाभट
इन्होंने शक सं 1641 में सूर्यसिद्धांत की करणावलि टीका लिखी1
नारायण
रचना : शक सं 1661। इन्होंने होरासारसुधानिधि, नरजातकव्याख्या, गणकप्रिया, स्वरसार तथा ताजकसुधानिधि लिखे।
जयसिंह
राजा जयसिंह शंक सं 1615 में राजसिंहासन पर बैठे थे। इन्होंने हिंदू, मुसलमान तथा यूरोपीय ज्योतिष ग्रंथों का अध्ययन किया और देखा कि उनसे स्पष्ट ग्रह तथा दृश्य ग्रहों में अंतर है। इसलिये इन्होंने जयपुर, दिल्ली, मथुरा, उज्जैन तथा काशी में पक्की वेधशालाएँ बनवाईं जो अब भी इनके कीर्तिस्तंभ की तरह विद्यमान हैं। आठ साल तक वेध करवाकर इन्होंने अरबी का जिजमुहम्मद तथा संस्कृत में सम्राट् सिद्धांत नामक ग्रंथ बनवाए। सिद्धांत सम्राट् इन्होंने जगन्नाथ पंडित से शक सं 1653 में बनवाया। इनके ग्रंथ से ग्रह अतिसूक्ष्म आते हैं।
शंकर
इन्होंने शक सं 1688 में वैष्णवकरण लिखा।
मणिराम
इन्होंने शक सं 1696 में ग्रहगणित चिंतामणि लिखी।
भुला
इन्होंने शक सं 1703 में ब्रह्मसिद्धांतसार लिखा।
मथुरानाथ
इन्होंने शक सं 1704 में यंत्रराजघटना लिखा।
चिंतामणिदीक्षित
शक सं 1658-1733। इन्होंने सूर्यसिद्धांतसारणी तथा गोलानंद नामक वेधग्रंथ लिखा।
शिव
इन्होंने शक सं 1737 में तिथिपारिजात लिखा।
दिनकर
इन्होंने शक सं 1734 से 1761 के बीच ग्रहविज्ञानसारणी, मासप्रवेशसारणी, लग्नसारणी, क्रांतिसारणी आदि ग्रंथ लिखे।
बापूदेव शास्त्री
काशी के संस्कृत कालेज के ज्योतिष के मुख्य अध्यापक थे। बापूदेव शास्त्री (नृसिंह) का जन्म शक सं 1743 में हुआ। ये प्रयाग तथा कलकत्ता विश्वविद्यालयों के परिषद तथा आयरलैंड और ग्रेट ब्रिटेन की रॉयल के सम्मानित सदस्य थे। इन्हें महामहोपाध्याय की उपाधि मिली थी। इनके ग्रंथ हैं : रेखागणित प्रथमाध्याय, त्रिकोणमिति, प्राचीन ज्योतिषाचार्याशयवर्णन, सायनवाद, तत्वविवेकपरीक्षा, मानमंदिरस्थ यंत्रवर्णन, अंकगणित, बीजगणित। इन्होंने सिद्धांतशिरोमणि का संपादन तथा सूर्यसिद्धांत का अंग्रेजी में अनुवाद किया। इनका दृक्सिद्ध पंचांग आज भी वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रकाशित होता है।
नीलांबर शर्मा
इनका गोलप्रकाश शक सं 1793 में प्रकाशित हुआ।
विनायक अथवा केरो लक्ष्मण छत्रे
इन्होंने पाश्चात्य ज्योतिष के आधार पर ग्रहसाधनकोष्ठक शक सं 1772 में लिखा। इनका अन्य ग्रंथ चिंतामणि हैं।
चिंतामणि रघुनाथ आचार्य
जन्म : शक सं 1750। इन्होंने तमिल में ज्योतिषचिंतामणि लिखा।
कृष्ण शास्त्री गाडबोले
जन्म : शक सं 1753। इन्होंने वामनकृष्ण जोशी गद्रे के साथ ग्रहलाघव का मराठी अनुवाद, ज्योतिषशास्त्र तथा पंचांगसाधनसार छपाया तथा "मासानां मार्गशीर्षोहं" लेख द्वारा यह सिद्ध किया कि वेद शकपूर्व 30 हजार वर्ष से प्राचीन हैं1
वेंकटेश बापूजी केतकर
इन्होंने शक सं 1812 में पाश्चात्य ज्योतिष के आधार पर "ज्योतिर्गणित" लिखा, जिससे ग्रहगणना बहुत सूक्ष्म होती है।
सुधाकर द्विवेदी
इनका जन्मकाल शक सं 1782 है। ये काशी के संस्कृत कालेज के ज्योतिष के प्रधान पंडित तथा अपने समय के अति प्रसिद्ध विद्वान् थे। इन्हें महामहोपाध्याय की उपाधि प्राप्त थी। इनके ग्रंथ हैं : दीर्घवृत्तलक्षण, विचित्र प्रश्न सभंग, द्युचरचार, वास्ववचंद्रश्रृंगोन्नति, पिंडप्रभाकर, भाभ्रम रेखानिरूपण, धराभ्रम, ग्रहणकरण, गोलीयरेखागणित, रेखागणित के एकादश द्वादश अध्याय तथा गणकतरंगिणी। इन्होंने सूर्यसिद्धांत, ग्रहलाघव आदि ग्रंथों की टीकाएँ तथा बहुत से ग्रंथों का संपादन भी किया।
शंकर बालकृष्ण दीक्षित
जन्मकाल सं 1775 है। इन्होंने विद्यार्थीबुद्धिवर्द्धिनी, सृष्टिचमत्कार, ज्योतिर्विलास, भूवर्णन तथा सेवेल के सहयोग से इंडियन कैलेंडर आदि ग्रंथ लिखे। इनकी कींर्ति का स्तंभ मराठी में लिखा भारतीय ज्योतिष है, जिसमें इन्होंने अनुसंधानात्मक तथा आलोचनात्मक ढंग से भारतीय ज्योतिष के विकास का इतिहास लिखा है।
प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी
प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये प्राचीन साहित्य और पुरातत्व का सहारा लेना पड़ता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधता सम्पन्न है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, शिक्षा आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, सैन्य विज्ञान, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, आदि भी वर्ण्यविषय रहे हैं।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्राचीन भारत के कुछ योगदान निम्नलिखित हैं-
गणित - वैदिक साहित्य शून्य के कांसेप्ट, बीजगणित की तकनीकों तथा कलन-पद्धति, वर्गमूल, घनमूल के कांसेप्ट से भरा हुआ है।
खेल - शतरंज, लुडो, साँप-सीढ़ी एवं ताश के खेलों का जन्म प्राचीन भारत में ही हुआ।
ललित कला - वेदों का पाठ किया जाता था जो सस्वर एवं शुद्ध होना आवश्यक था। इसके फलस्वरूप वैदिक काल में ही ध्वनि एवं ध्वनिकी का सूक्ष्म अध्ययन आरम्भ हुआ।
ज्योतिष -

खगोलविज्ञान - ऋग्वेद (2000 ईसापूर्व) में खगोलविज्ञान का उल्लेख है।
भौतिकी - ६०० ईसापूर्व के भारतीय दार्शनिक ने परमाणु एवं आपेक्षिकता के सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख किया है।
रसायन विज्ञान - इत्र का आसवन, गन्दहयुक्त द्रव, वर्ण एवं रंजकों (dyes and pigments) का निर्माण, शर्करा का निर्माण
आयुर्विज्ञान एवं आयुर्वेद - लगभग ८०० ईसापूर्व भारत में चिकित्सा एवं शल्यकर्म पर पहला ग्रन्थ का निर्माण हुआ था।

सैन्य विज्ञान
सिविल इंजीनियरी एवं वास्तुशास्त्र - मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त नगरीय सभयता उस समय में उन्नत सिविल इंजीनियरी एवं आर्किटेक्चर के अस्तित्व कको प्रमाणित करती है।
यांत्रिक एवं वाहन प्रौद्योगिकी - यान-निर्माण एवं नौवहन (Shipbuilding & navigation) - संस्कृत एवं पालि ग्रन्थों में अनेक क्रियाकलापों के उल्लेख मिलते हैं।
धातुकर्म - ग्रीक इतिहासकारों ने लिखा है कि चौथी शताब्दी ईसापूर्व में भारत में कुछ धातुओं का प्रगलन (स्मेल्टिंग) की जाती थी।

1प्राचीन भारत के प्रमुख शास्त्र
o 1.1आयुर्वेदशास्त्र
o 1.2रसायनशास्त्र
o 1.3ज्योतिषशास्त्र
o 1.4गणितशास्त्र
o 1.5कामशास्त्र
o 1.6संगीतशास्त्र
o 1.7धर्मशास्त्र
o 1.8अर्थशास्त्र
o 1.9प्रौद्योगिकी ग्रन्थ
o 1.10अन्य शास्त्र
प्राचीन भारत के प्रमुख शास्त्र
प्राचीन समय में न आफसेट प्रिंटिंग की मशीने थीं, न स्क्रिन प्रिटिंग की मशीनें। न ही इंटरनेट था जहां किसी भी विषय पर असंख्य सूचनाएं उपलब्ध होती हैं। फिर भी प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों ने अपने पुरुषार्थ, ज्ञान और शोध की मदद से कई शास्त्रों की रचना की और उसे विकसित भी किया। इनमें से कुछ प्रमुख शास्त्रों का विवेचन प्रस्तुत है-
आयुर्वेदशास्त्र
आयुर्वेद शास्त्र का विकास उत्तरवैदिक काल में हुआ। इस विषय पर अनेक स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुई। भारतीय परम्परा के अनुसार आयुर्वेद की रचना सबसे पहले ब्रह्मा ने की। ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने अश्विनी कुमारों को और फिर अश्विनी कुमारों ने इस विद्या को इन्द्र को प्रदान किया। इन्द्र के द्वारा ही यह विद्या सम्पूर्ण लोक में विस्तारित हुई। इसे चार उपवेदों में से एक माना गया है।
कुछ विद्वानों के अनुसार यह ऋग्वेद का उपवेद है तो कुछ का मानना है कि यह ‘अथर्ववेद’ का उपवेद है। आयुर्वेद की मुख्य तीन परम्पराएं हैं- भारद्वाज, धनवन्तरि और काश्यप। आयुर्वेद विज्ञान के आठ अंग हैं- शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविधा, कौमारमृत्य, अगदतन्त्रा, रसायन और वाजीकरण। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, काश्यप संहिता इसके प्रमुख ग्रंथ हैं जिन पर बाद में अनेक विद्वानों द्वारा व्याख्याएं लिखी गईं।
आयुर्वेद के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ चरकसंहिता के बारे में ऐसा माना जाता है कि मूल रूप से यह ग्रन्थ आत्रेय पुनर्वसु के शिष्य अग्निवेश ने लिखा था। चरक ऋषि ने इस ग्रन्थ को संस्कृत में रूपांतरित किया। इस कारण इसका नाम चरक संहिता पड़ गया। बताया जाता है कि पतंजलि ही चरक थे। इस ग्रन्थ का रचनाकाल ईं. पू. पांचवी शताब्दी माना जाता है।
रसायनशास्त्र
रसायनशास्त्र का प्रारंभ वैदिक युग से माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में रसायनशास्त्र के ‘रस’ का अर्थ होता था-पारद। पारद को भगवान शिव का वीर्य माना गया है। रसायनशास्त्र के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के खनिजों का अध्ययन किया जाता था। वैदिक काल तक अनेक खनिजों की खोज हो चुकी थी तथा उनका व्यावहारिक प्रयोग भी होने लगा था। परंतु इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम नागार्जुन नामक बौद्ध विद्वान ने किया। उनका काल लगभग 280-320 ई. था। उन्होंने एक नई खोज की जिसमें पारे के प्रयोग से तांबा इत्यादि धातुओं को सोने में बदला जा सकता था।
रसायनशास्त्र के कुछ प्रसिद्ध ग्रंथों में एक है रसरत्नाकर। इसके रचयिता नागार्जुन थे। इसके कुल आठ अध्याय थे परंतु चार ही हमें प्राप्त होते हैं। इसमें मुख्यत: धातुओं के शोधन, मारण, शुद्ध पारद प्राप्ति तथा भस्म बनाने की विधियों का वर्णन मिलता है।
प्रसिद्ध रसायनशास्त्री श्री गोविन्द भगवतपाद जो शंकराचार्य के गुरु थे, द्वारा रचित ‘रसहृदयतन्त्र’ ग्रंथ भी काफी लोकप्रिय है। इसके अलावा रसेन्द्रचूड़ामणि, रसप्रकासुधाकर रसार्णव, रससार आदि ग्रन्थ भी रसायनशास्त्र के ग्रन्थों में ही गिने जाते हैं।
ज्योतिषशास्त्र
ज्योतिष वैदिक साहित्य का ही एक अंग है। इसमें सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, नक्षत्र, ऋतु, मास, अयन आदि की स्थितियों पर गंभीर अध्ययन किया गया है। इस विषय में हमें ‘वेदांग ज्योतिष’ नामक ग्रंथ प्राप्त होता है। इसके रचना का समय 1200 ई. पू. माना गया है। आर्यभट्ट ज्योतिष गणित के सबसे बड़े विद्वान के रूप में माने जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार इनका जन्म 476 ई. में पटना (कुसुमपुर) में हुआ था। मात्र 23 वर्ष की उम्र में इन्होंने ‘आर्यभट्टीय’ नामक प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में पूरे 121 श्लोक हैं। इसे चार खण्डों में बांटा गया है- गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद।
वराहमिहिर के उल्लेख के बिना तो भारतीय ज्योतिष की चर्चा अधूरी है। इनका समय छठी शताब्दी ई. के आरम्भ का है। इन्होंने चार प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की- पंचसिद्धान्तिका, वृहज्जातक, वृहदयात्रा तथा वृहत्संहिता जो ज्योतिष को समझने में मदद करती हैं।
गणितशास्त्र
प्राचीन काल से ही भारत में गणितशास्त्र का विशेष महत्व रहा है। यह सभी जानते हैं कि शून्य एवं दशमलव की खोज भारत में ही हुई। यह भारत के द्वारा विश्व को दी गई अनमोल देन है। इस खोज ने गणितीय जटिलताओं को खत्म कर दिया। गणितशास्त्र को मुख्यत: तीन भागों में बांटा गया है। अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित।
वैदिक काल में अंकगणित अपने विकसित स्वरूप में स्थापित था। ‘यजुर्वेद’ में एक से लेकर 10 खरब तक की संख्याओं का उल्लेख मिलता है। इन अंकों को वर्णों में भी लिखा जा सकता था।
बीजगणित का साधारण अर्थ है, अज्ञात संख्या का ज्ञात संख्या के साथ समीकरण करके अज्ञात संख्या को जानना। अंग्रेजी में इसे ही अलजेब्रा कहा गया है। भारतीय बीजगणित के अविष्कार पर विवाद था। कुछ विद्वानों का मानना था इसके अविष्कार का श्रेय यूनानी विद्वान दिये फान्तस को है। परंतु अब यह साबित हो चुका है कि भारतीय बीजगणित का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है और इसका श्रेय भारतीय विद्वान आर्यभट (446 ई.) को जाता है।
रेखागणित का अविष्कार भी वैदिक युग में ही हो गया था। इस विद्या का प्राचीन नाम है- शुल्वविद्या या शुल्वविज्ञान। अनेक पुरातात्विक स्थलों की खुदाई में प्राप्त यज्ञशालाएं, वेदिकाएं, कुण्ड इत्यादि को देखने तथा इनके अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि इनका निर्माण रेखागणित के सिद्धांत पर किया गया है। ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, नवशती, गणिततिलक, बीजगणित, गणितसारसंग्रह, गणित कौमुदी इत्यादि गणित शास्त्र के प्रमुख ग्रन्थ हैं।
कामशास्त्र
भारतीय समाज में पुरुषार्थ का काफी महत्व है। पुरुषार्थ चार हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। काम का इसमें तीसरा स्थान है। सर्वप्रथम नन्दी ने 1000 अध्यायों का ‘कामशास्त्र’ लिखा जिसे बाभ्रव्य ने 150 अध्यायों में संक्षिप्त रूप में लिखा। कामशास्त्र से संबंधित सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है ‘कामसूत्र’ जिसकी रचना वात्स्यायन ने की थी। इस ग्रंथ में 36 अध्याय हैं जिसमें भारतीय जीवन पद्धति के बारे में बताया गया है। इसमें 64 कलाओं का रोचक वर्णन है। इसके अलावा एक और प्रसिद्ध ग्रंथ है ‘कुहनीमत’ जो एक लघुकाव्य के रूप में है। कोक्कक पंडित द्वारा रचित रतिरहस्य को भी बेहद पसंद किया जाता है।
संगीतशास्त्र
भारतीय परंपरा में भगवान शिव को संगीत तथा नृत्य का प्रथम अचार्य कहा गया है। कहा जाता है के नारद ने भगवान शिव से ही संगीत का ज्ञान प्राप्त किया था। इस विषय पर अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं जैसे नारदशिक्षा, रागनिरूपण, पंचमसारसंहिता, संगीतमकरन्द आदि।
संगीतशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों में मुख्यत: उमामहेश्वर, भरत, नन्दी, वासुकि, नारद, व्यास आदि की गिनती होती है। भरत के नाटयशास्त्र के अनुसार गीत की उत्पत्ति जहां सामवेद से हुई है, वहीं यजुर्वेद ने अभिनय (नृत्य) का प्रारंभ किया।
धर्मशास्त्र
प्राचीन काल में शासन व्यवस्था धर्म आधारित थी। प्रमुख धर्म मर्मज्ञों वैरवानस, अत्रि, उशना, कण्व, कश्यप, गार्ग्य, च्यवन, बृहस्पति, भारद्वाज आदि ने धर्म के विभिन्न सिद्धांतों एवं रूपों की विवेचना की है। पुरुषार्थ के चारों चरणों में इसका स्थान पहला है।
उत्तर काल में लिखे गये संग्रह ग्रंथों में तत्कालीन समय की सम्पूर्ण धार्मिक व्यवस्था का वर्णन मिलता है। स्मृतिग्रंथों में मनुस्मृति, याज्ञवल्कय स्मृति, पराशर स्मृति, नारदस्मृति, बृहस्पतिस्मृति में लोकजीवन के सभी पक्षों की धार्मिक दृष्टिकोण से व्याख्या की गई है तथा कुछ नियम भी प्रतिपादित किये गये हैं।
अर्थशास्त्र
चार पुरुषार्थो में अर्थ का दूसरा स्थान है। महाभारत में वर्णित है कि ब्रह्मा ने अर्थशास्त्र पर एक लाख विभागों के एक ग्रंथ की रचना की। इसके बाद शिव (विशालाक्ष) ने दस हजार, इन्द्र ने पांच हजार, बृहस्पति ने तीन हजार, उशनस ने एक हजार विभागों में इसे संक्षिप्त किया।
अर्थशास्त्र के अंतर्गत केवल वित्त संबंधी चर्चा का ही उल्लेख नहीं किया गया है। वरन राजनीति, दण्डनीति और नैतिक उपदेशों का भी वृहद वर्णन मिलता है। अर्थशास्त्र का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है कौटिल्य का अर्थशास्त्र। इसकी रचना चाणक्य ने की थी। चाणक्य का जीवन काल चतुर्थ शताब्दी के आस-पास माना जाता है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में धर्म, अर्थ, राजनीति, दण्डनीति आदि का विस्तृत उपदेश है। इसे 15 अधिकरणों में बांटा गया है। इसमें वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण, धार्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिष आदि विद्याओं के साथ अनेक प्राचीन अर्थशास्त्रियों के मतों के साथ विषय को प्रतिपादित किया गया है। इसके अलावा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ है कामन्दकीय नीतिसार, नीतिवाक्यामृत, लघुअर्थनीति इत्यादि।
प्रौद्योगिकी ग्रन्थ
'भृगुशिल्पसंहिता' में १६ विज्ञान तथा ६४ प्रौद्योगिकियों का वर्णन है। इंजीनियरी प्रौद्योगिकियों के तीन 'खण्ड' होते थे। 'हिन्दी शिल्पशास्त्र' नामक ग्रन्थ में कृष्णाजी दामोदर वझे ने ४०० प्रौद्योगिकी-विषयक ग्रन्थों की सूची दी है, जिसमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
विश्वमेदिनीकोश, शंखस्मृति, शिल्पदीपिका, वास्तुराजवल्लभ, भृगुसंहिता, मयमतम्, मानसार, अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधार, कश्यपसंहिता, वृहतपराशरीय-कृषि, निसारः, शिगृ, सौरसूक्त, मनुष्यालयचंद्रिका, राजगृहनिर्माण, दुर्गविधान, वास्तुविद्या, युद्धजयार्णव।
प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित १८ प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में से 'कश्यपशिल्पम्' सर्वाधिक प्राचीन मानी जाती है।
प्राचीन खनन एवं खनिकी से सम्बन्धित संस्क्रित ग्रन्थ हैं- 'रत्नपरीक्षा', लोहार्णणव, धातुकल्प, लोहप्रदीप, महावज्रभैरवतंत्र तथा पाषाणविचार।
'नारदशिल्पशास्त्रम' शिल्पशास्त्र का ग्रन्थ है।
अन्य शास्त्र
न्यायशास्त्र, योगशास्त्र, वास्तुशास्त्र, नाट्यशास्त्र, काव्यशास्त्र, अलंकारशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि।
प्राचीन भारतीय गणित, विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर अनुसन्धान
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में ऐसे ग्रन्थों की संख्या लाखों में है जिनका सम्बन्ध धर्म या आध्यात्म से न होकर मानव के दैनन्दिन जीवन तथा उससे जुड़े गणित, विज्ञान और प्रौद्योगिकी से है। इसी तथ्य को देखते हुए कई संस्थानों ने इस दिशा में अनुसन्धान कार्य आरम्भ किया है। मई २०१८ में आई आई टी खडगपुर ने एक ऐसा ही पाठ्यक्रम आरम्भ किया है।[4]
रसविद्या रसविद्या, मध्यकालीन भारत की किमियागारी (alchemy) की विद्या है जो दर्शाती है कि भारत भौतिक संस्कृति में भी अग्रणी था। भारत में केमिस्ट्री (chemistry) के लिये "रसायन शास्त्र", रसविद्या, रसतन्त्र, रसशास्त्र और रसक्रिया आदि नाम प्रयोग में आते थे। जहाँ रसविद्या से सम्बन्धित क्रियाकलाप किये जाते थे उसे रसशाला कहते थे। इस विद्या के मर्मज्ञों को रसवादिन् कहा जाता था।

महत्व
रसविद्या का बड़ा महत्व माना गया है। रसचण्डाशुः नामक ग्रन्थ में कहा गया है-
शताश्वमेधेन कृतेन पुण्यं गोकोटिभि: स्वर्णसहस्रदानात।
नृणां भवेत् सूतकदर्शनेन यत्सर्वतीर्थेषु कृताभिषेकात्॥6॥
अर्थात सौ अश्वमेध यज्ञ करने के बाद, एक करोड़ गाय दान देने के बाद या स्वर्ण की एक हजार मुद्राएँ दान देने के पश्चात् तथा सभी तीर्थों के जल से अभिषेक (स्नान) करने के फलस्वरूप जो जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य केवल पारद के दर्शन मात्र से होता है।
इसी तरह-
मूर्च्छित्वा हरितं रुजं बन्धनमनुभूय मुक्तिदो भवति।
अमरीकरोति हि मृतः कोऽन्यः करुणाकर: सूतात्॥7॥
जो मूर्छित होकर रोगों का नाश करता है, बद्ध होकर मनुष्य को मुक्ति प्रदान करता है, और मृत होकर मनुष्य को अमर करता है, ऐसा दयालु पारद के अतिरिक्त अन्य कौन हो सकता है? अर्थात कोई नहीं।
रसों का वर्गीकरण
रसशास्त्र में प्रयुक्त पदार्थ कई श्रेणियों में रखे गये हैं। इसमें सबसे प्रमुख पारद है। रसों के प्रकार निम्नलिखित हैं-
महारास - इसमें आठ पदार्थ हैं। (अभ्रक, माक्षिक (पाइराइट), विमल (लौह पाइराइट), वैक्रान्त (Tourmaline ), शिलाजीत, सस्यक (Copper Sulphate), चपल (बिस्मथ), रसक (Calamine या जस्ता)
उपरस - गन्धक, गैरिक (Ochre), कासीस (Green Vitriol), फिटकरी ( कांक्षी ), हरताल (Orpiment), मनःशिला (Realgar), अंजन (Collyrium), कंकुष्ठ (Ruhbarb)
साधारण रस - कम्पिल्लक (Kamila), गौरीपाषाण (Arsenic), नौसादर, कपर्द ( कौड़ी ), अग्निजार ( Ambergris), गिरिसिन्दूर (Red Oxide of Mercury), हिंगुल (Cinnabar), मृददारश्रृंग (Litharge)
धातु - स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह, नाग (Lead), वंग (Tin), यशद (जस्ता)
रत्न - माणिक्य (Ruby), मुक्ता ( मोती ), प्रवाल ( मूंगा ), ताक्षर्य ( पन्ना ), पुखराज, भिदुर ( हीरा ), नीलम (Sapphire), गोमेद (Zircon), वैदूर्य
उपरत्न - वैक्रान्त ( Tourmaline), सूर्यकान्त (Sun stone), चन्द्रकान्त ( Moon Stone), राजवर्त ( Lapis lazuli), पिरोजक (Turquise), स्फटिकमणि ( Quartz), तृणकान्त (Amber), पलङ्क (Onyx), पुत्तिका (Peridote)
विष - सर्पविष, बिच्छू का विष आदि
उपविष - धतूरा और कुछल आदि के विष
रसविद्या के प्रमुख ग्रन्थ
इस विद्या के संस्कृत में बहुत से ग्रन्थ हैं।
1. रसार्णव -- गोविन्दाचार्य
2. आनन्दकन्द
3. रसहृदयतन्त्र -- गोविन्द भगवतपाद
4. रसरत्नसमुच्चय -- वाग्भट
5. रसकामधेनु
6. रसमञ्जरी -- शालिनाथ
7. रसप्रकाशसुधाकर -- यशोधर
8. रसप्रकाश -- यशोधर
9. रसरत्नाकर -- नित्यनाथ सिद्ध
10. रससङ्केतकलिका -- चामुण्डा
11. रसाध्याय
12. रसजलनिधि
13. रसेन्द्रचिन्तामणि -- सुधाकर रामचन्द्र
14. रसेन्द्रचिन्तामणि -- ढुण्ढुकनाथ
15. रसेन्द्रचूडामणि -- सोमदेव
16. रसेन्द्रमङ्गल -- नागार्जुन
17. रसकौमुदी -- सर्वज्ञचन्द्र
18. रससार -- गोविन्द आचार्य 1. रसचण्डाशुः या रसरत्नसंग्रह
-- दत्तो बल्लाल बोरकर (२५ अप्रैल, १९१९)
2. रसेन्द्र सार
3. रसोपनिषत
4. रस पद्धति
5. रसराजलक्ष्मी --रामेश्वर भट्ट
6. रसपारिजात
7. रसमुक्तावली -- देवनाथ
8. देव्यरसरत्नाकर
9. स्वर्णतन्त्र
10. स्वर्णसिद्धि
11. गोरख संहिता
12. दत्तात्रेय संहिता
13. वज्रोदन
14. शैलोदक कल्प
15. गन्धक कल्प
16. रुद्रयामल तंत्र
17. लौहपद्धति -- सुरेश्वर 1. लोह सर्वस्व
2. योगसार
3. रत्न घोष
4. पारद सूर्य विज्ञान
5. कपिल सिद्धान्त
6. रसभेषजकल्प -- सूर्य पण्डित
7. कङ्कालीग्रन्थ -- नासिरशाह
आयुर्वेद ग्रन्थ
1. भावप्रकाश -- भावमिश्र
2. शार्ङ्गधरसंहिता -- शार्ङ्गधर
3. अष्टाङ्गहृदय -- वाग्भट
4. अष्टाङ्गसंग्रह -- वाग्भट
5. कैयदेवनिघण्टु
6. मदनपालनिघण्टु
7. राजनिघण्टु

प्रमुख रसवादिन्
नागार्जुन - रसरत्नाकर, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक
वाग्भट्ट – रसरत्नसमुच्चय
गोविन्दाचार्य – रसार्णव
यशोधर – रसप्रकाशसुधाकर
रामचन्द्र – रसेन्द्रचिन्तामणि
सोमदेव - रसेन्द्रचूड़ामणि
रस संस्कार
पारद (रस) के कुल सोलह संस्कार संपन्न किये जाते हैं जिनमे पहले आठ संस्कार रोग मुक्ति हेतु , औषधि निर्माण, रसायन और धातुवाद के लिए आवश्यक हैं जबकि शेष आठ संस्कार खेचरी सिद्धि , धातु परिवर्तन , सिद्ध सूत और स्वर्ण बनाने में प्रयुक्त होते हैं।
आचार्यो ने जो १८ संस्कार बताए हैं वे निम्नलिखित हैं -
१ - स्वेदन
२ - मर्दन
३ - मूर्च्छन
४ - उत्थापन
५ - पातन
६ - रोधन
7 - नियमन
८ - दीपन ९ - ग्रासमान
१० - चारण
११ - गर्भदुती
१२ - जारण
१३ - बार्ह्यादुती
१४ - रंजन
१५ - सारण
१६ - क्रामन
कुछ आचार्यो ने दो और संस्कार माने हे जिन्हें वैध और भक्षण कहा गया है।
प्रमुख यन्त्र
रसरत्नसमुच्चय के अध्याय ७ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं-
(१) दोल यंत्र (२) स्वेदनी यंत्र (३) पाटन यंत्र (४) अधस्पदन यंत्र (५) ढेकी यंत्र (६) बालुक यंत्र
(७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र (८) विद्याधर यंत्र (९) धूप यंत्र (१०) कोष्ठि यंत्र (११) कच्छप यंत्र (१२) डमरू यंत्र।
रसेन्द्रमंगल में निम्नलिखित यन्त्रों का उल्लेख है- शिलायन्त्र, पाषाण यन्त्र, भूधर यन्त्र, बंश यन्त्र, नलिका यन्त्र, गजदन्त यन्त्र, डोला यन्त्र, अधस्पातन यन्त्र, भूवस्पातन यन्त्र, पातन यन्त्र, नियामक यन्त्र, गमन यन्त्र, तुला यन्त्र, कच्छप यन्त्र, चाकी यन्त्र, वलुक यन्त्र, अग्निसोम यन्त्र, गन्धक त्राहिक यन्त्र, मूषा यन्त्र, हण्डिका कम्भाजन यन्त्र, घोण यन्त्र, गुदाभ्रक यन्त्र, नारायण यन्त्र, जलिका यन्त्र, चरण यन्त्र।[3]
इन यन्त्रों का विस्तृत विवरण बाद के ग्रन्थों (जैसे रसार्णव और रसरत्नसमुच्चय ) में मिलता है।
आधुनिक युग में रसशास्त्र का उद्धार
रसशास्त्र पर कम से कम सत्तर या अस्सी प्राथमिक संस्कृत ग्रन्थ हैं। इनमें से लगभग पांचवां हिस्सा मुद्रित हो चुका है, कुछ गंभीर रूप से संपादित किए गए हैं और कोई भी पूरी तरह से अनूदित नहीं है। रसशास्त्र की विस्तृत जानकारी के लिए अभी भी मुख्य और लगभग एकमात्र व्यापक माध्यमिक स्रोत प्रफुल्ल चन्द्र राय द्वारा २०वीं शताब्दी के प्रथम दशक में दो खण्दों में रचित हिन्दू रसायन शास्त्र का इतिहास है। इस ग्रन्थ को आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय के शिष्य पी. राय ने संशोधित किया था और यही ग्रन्थ आज आमतौर पर प्राचीन और माध्यमिक भारत में रसायन विज्ञान के इतिहास के रूप में पढ़ा जाता है। रसशास्त्र से सम्बन्धित कुछ अप्रकाशित शोध प्रबन्ध अधिक मूलभूत हैं। आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय ने हमारे लिए इस विषय को उल्लेखनीय रूप से पूरी तरह से लिपिबद्ध किया जिसके लिए भारत उनका ऋणी रहेगा।
१८६७ में मथुरा के क्षेमराज कृष्णदास ने हिन्दी में रसरत्नाकर का अनुवाद प्रकाशित किया था।
भूदेव मुखोपाध्याय ने १९२६ में चार भागों में रसजलनिधि का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित किया।
स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती ने १९६० में हिन्दी में प्राचीन भारत में रसायन का विकास की रचना की।
आयुर्वेद

धन्वन्तरि आयुर्वेद के देवता हैं। वे विष्णु के अवतार माने जाते हैं।
आयुर्वेद (आयुः + वेद = आयुर्वेद) विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। यह विज्ञान, कला और दर्शन का मिश्रण है। ‘आयुर्वेद’ नाम का अर्थ है, ‘जीवन से सम्बन्धित ज्ञान’। आयुर्वेद, भारतीय आयुर्विज्ञान है। आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ -(चरक संहिता १/४०)
आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य। इसी प्रकार सम्पूर्ण आयुर्वैदिक चिकित्सा के आठ अंग माने गए हैं (अष्टांग वैद्यक), ये आठ अंग ये हैं- कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण।

परिभाषा एवं व्याख्या
(1) आयुर्वेदयति बोधयति इति आयुर्वेदः।
अर्थात जो शास्त्र (विज्ञान) आयु (जीवन) का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहते हैं।
(2) स्वस्थ व्यक्ति एवं आतुर (रोगी) के लिए उत्तम मार्ग बताने वाले विज्ञान को आयुर्वेद कहते हैं।
(3) अर्थात जिस शास्त्र में आयु शाखा (उम्र का विभाजन), आयु विद्या, आयुसूत्र, आयु ज्ञान, आयु लक्षण (प्राण होने के चिन्ह), आयु तंत्र (शारीरिक रचना शारीरिक क्रियाएं) - इन सम्पूर्ण विषयों की जानकारी मिलती है वह आयुर्वेद है।
आयुर्वैदिक चिकित्सा के लाभ
आयुर्वेदीय चिकित्सा विधि सर्वांगीण है। आयुर्वेदिक चिकित्सा के उपरान्त व्यक्ति की शारीरिक तथा मानसिक दोनों में सुधार होता है।
आयुर्वेदिक औषधियों के अधिकांश घटक जड़ी-बूटियों, पौधों, फूलों एवं फलों आदि से प्राप्त की जातीं हैं। अतः यह चिकित्सा प्रकृति के निकट है।
व्यावहारिक रूप से आयुर्वेदिक औषधियों के कोई दुष्प्रभाव (साइड-इफेक्ट) देखने को नहीं मिलते।
अनेकों जीर्ण रोगों के लिए आयुर्वेद विशेष रूप से प्रभावी है।
आयुर्वेद न केवल रोगों की चिकित्सा करता है बल्कि रोगों को रोकता भी है।
आयुर्वेद भोजन तथा जीवनशैली में सरल परिवर्तनों के द्वारा रोगों को दूर रखने के उपाय सुझाता है।
आयुर्वेदिक औषधियाँ स्वस्थ लोगों के लिए भी उपयोगी हैं।
आयुर्वेदिक चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती है क्योंकि आयुर्वेद चिकित्सा में सरलता से उपलब्ध जड़ी-बूटियाँ एवं मसाले काम में लाये जाते हैं।
इतिहास
आयुर्वेद का इतिहास
पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचना काल ईसा के ३,००० से ५०,००० वर्ष पूर्व तक का माना है। ऋग्वेद-संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है। अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद की रचनाकाल ईसा पूर्व ३,००० से ५०,००० वर्ष पहले यानि सृष्टि की उत्पत्ति के आस-पास या साथ का ही है।
आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथो के अनुसार यह देवताओं कि चिकित्सा पद्धति है जिसके ज्ञान को मानव कल्याण के लिए निवेदन किए जाने पर देवताओं के वैद्य ने धरती के महान आचार्यों को दिया। इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ना जैसी कई चमत्कारिक चिकित्साएं की थी। अश्विनीकुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर अलग अलग संप्रदायों के अनुसार उनके प्राचीन और पहले आचार्यों आत्रेय / सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आयुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक। ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम 'तन्त्र' रखा । ये आठ भाग निम्नलिखित हैं :
१) शल्यतन्त्र (surgical techniques),
२) शालाक्यतन्त्र (ENT),
३) कायचिकित्सा (General medicine),
४) भूतविद्या तन्त्र (Psycho-therapy),
५) कुमारभृत्य (Pediatrics),
६) अगदतन्त्र (Toxicology),
७) रसायनतन्त्र (renjunvention and Geriatrics), और
८) वाजीकरण (Virilification, Science of Aphrodisiac and Sexology)।
इस अष्टाङ्ग (=आठ अंग वाले) आयुर्वेद के अन्तर्गत देहतत्त्व, शरीर विज्ञान, शस्त्रविद्या, भेषज और द्रव्य गुण तत्त्व, चिकित्सा तत्त्व और धात्री विद्या भी हैं। इसके अतिरिक्त उसमें सदृश चिकित्सा (होम्योपैथी), विरोधी चिकित्सा (एलोपैथी), जलचिकित्सा (हाइड्रोपैथी), प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी), योग, सर्जरी, नाड़ी विज्ञान (पल्स डायग्नोसिस) आदि आजकल के अभिनव चिकित्सा प्रणालियों के मूल सिद्धान्तों के विधान भी 2500 वर्ष पूर्व ही सूत्र रूप में लिखे पाये जाते हैं ।
आयुर्वेद का अवतरण
चरक मतानुसार (आत्रेय सम्प्रदाय)
आयुर्वेद के ऐतिहासिक ज्ञान के सन्दर्भ में, चरक मत के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से दोनों अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन किया।[3] च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास में ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता (अग्निवेश तंत्र) का निर्माण किया- जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार-स्तम्भ है।
सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)
धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन के पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक हजार अध्यायों तथा एक लाख श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे दोनों अश्विनीकुमारों ने, तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया।
आयुर्वेद का काल-विभाजन
आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -
संहिताकाल
संहिताकाल का समय 5वीं शती ई.पू. से 6वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि - चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी संहिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से कायचिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्रमुख विशेषता है।
व्याख्याकाल
इसका समय 7वीं शती से लेकर 15वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हण की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है।
शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है।
विवृतिकाल
इस काल का समय 14वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है।
स्पष्ट है कि आयुर्वेद की प्राचीनता वेदों के काल से ही सिद्ध है। आधुनिक चिकित्सापद्धति में सामाजिक चिकित्सा पद्धति को एक नई विचारधरा माना जाता है, परन्तु यह कोई नई विचारधारा नहीं अपितु यह उसकी पुनरावृत्ति मात्र है, जिसका उल्लेख 2500 वर्षों से भी पहले आयुर्वेद में किया गया है जिसके सभी सिद्धांतो का प्रत्येक शब्द आज इतने सालों बाद भी अपने सूक्ष्म और स्थूल हर रूप में सही सिद्ध होता है। जैसे कुछ समय पूर्व आधुनिक वैज्ञानिकों ने कृत्रिम नाक बनाए जाने का काम किया है और उन वैज्ञानिकों के अनुसार उनका यह काम सुश्रुत संहिता के मूल सिद्धांतों को पढ़कर और उसपर आगे विस्तृत कार्य करने के बाद ही संभव हो पाया है।
उद्देश्य
आयुर्वेद का उद्देश्य ही स्वस्थ प्राणी के स्वास्थ्य की रक्षा तथा रोगी की रोग को दूर करना है -
प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं आतुरस्यविकारप्रशमनं च ॥ (चरकसंहिता, सूत्रस्थान ३०/२६)
आयुर्वेद के दो उद्देश्य हैं :
(१) स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना,
(२) रोगी (आतुर) व्यक्तियों के विकारों को दूर कर उन्हें स्वस्थ बनाना।
स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना
इसके लिए अपने शरीर और प्रकृति के अनुकूल देश, काल आदि का विचार करना नियमित आहार-विहार, चेष्टा, व्यायाम, शौच, स्नान, शयन, जागरण आदि गृहस्थ जीवन के लिए उपयोगी शास्त्रोक्त दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतुचर्या का पालन करना, संकटमय कार्यों से बचना, प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करना, मन और इंद्रिय को नियंत्रित रखना, देश, काल आदि परिस्थितियों के अनुसार अपने अपने शरीर आदि की शक्ति और अशक्ति का विचार कर कोई कार्य करना, मल, मूत्र आदि के उपस्थित वेगों को न रोकना, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि से बचना, समय-समय पर शरीर में संचित दोषों को निकालने के लिए वमन, विरेचन आदि के प्रयोगों से शरीर की शुद्धि करना, सदाचार का पालन करना और दूषित वायु, जल, देश और काल के प्रभाव से उत्पन्न महामारियों (जनपदोद्ध्वंसनीय व्याधियों, एपिडेमिक डिज़ीज़ेज़) में विज्ञ चिकित्सकों के उपदेशों का समुचित रूप से पालन करना, स्वच्छ और विशोधित जल, वायु, आहार आदि का सेवन करना और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना, ये स्वास्थ्यरक्षा के साधन हैं।
रोगी व्यक्तियों के विकारों को दूर कर उन्हें स्वस्थ बनाना
इसके लिए प्रत्येक रोग के
हेतु (कारण),
लिंग - रोगपरिचायक विषय, जैसे पूर्वरूप, रूप (signs & symptoms), संप्राप्ति (पैथोजेनिसिस) तथा उपशयानुपशय (थिराप्युटिकटेस्ट्स)
औषध का ज्ञान परमावश्यक है।
ये तीनों आयुर्वेद के 'त्रिस्कंध' (तीन प्रधान शाखाएं) कहलाती हैं। इसका विस्तृत विवेचन आयुर्वेद ग्रंथों में किया गया है। यहाँ केवल संक्षिप्त परिचय मात्र दिया जाएगा। किंतु इसके पूर्व आयु के प्रत्येक संघटक का संक्षिप्त परिचय आवश्यक है, क्योंकि संघटकों के ज्ञान के बिना उनमें होनेवाले विकारों को जानना संभव न होगा।
आयु
आयुर्वेद का अर्थ प्राचीन आचार्यों की व्याख्या और इसमें आए हुए 'आयु' और 'वेद' इन दो शब्दों के अर्थों के अनुसार बहुत व्यापक है। आयुर्वेद के आचार्यों ने 'शरीर, इंद्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग' को आयु कहा है।[4] संपत्ति (साद्गुण्य) या विपत्ति (वैगुण्य) के अनुसार आयु के अनेक भेद होते हैं, किंतु संक्षेप में प्रभावभेद से इसे चार प्रकार का माना गया है :[5]
(१) सुखायु : किसी प्रकार के शीरीरिक या मानसिक विकास से रहित होते हुए, ज्ञान, विज्ञान, बल, पौरुष, धनृ धान्य, यश, परिजन आदि साधनों से समृद्ध व्यक्ति को "सुखायु' कहते हैं।
(२) दुखायु : इसके विपरीत समस्त साधनों से युक्त होते हुए भी, शरीरिक या मानसिक रोग से पीड़ित अथवा निरोग होते हुए भी साधनहीन या स्वास्थ्य और साधन दोनों से हीन व्यक्ति को "दु:खायु' कहते हैं।
(३) हितायु : स्वास्थ्य और साधनों से संपन्न होते हुए या उनमें कुछ कमी होने पर भी जो व्यक्ति विवेक, सदाचार, सुशीलता, उदारता, सत्य, अहिंसा, शांति, परोपकार आदि आदि गुणों से युक्त होते हैं और समाज तथा लोक के कल्याण में निरत रहते हैं उन्हें हितायु कहते हैं।
(४) अहितायु : इसके विपरीत जो व्यक्ति अविवेक, दुराचार, क्रूरता, स्वार्थ, दंभ, अत्याचार आदि दुर्गुणों से युक्त और समाज तथा लोक के लिए अभिशाप होते हैं उन्हें अहितायु कहते हैं।
इस प्रकार हित, अहित, सुख और दु:ख, आयु के ये चार भेद हैं। इसी प्रकार कालप्रमाण के अनुसार भी दीर्घायु, मध्यायु और अल्पायु, संक्षेप में ये तीन भेद होते हैं। वैसे इन तीनों में भी अनेक भेदों की कल्पना की जा सकती है।
'वेद' शब्द के भी सत्ता, लाभ, गति, विचार, प्राप्ति और ज्ञान के साधन, ये अर्थ होते हैं और आयु के वेद को आयुर्वेद (नॉलेज ऑव सायन्स ऑव लाइफ़) कहते हैं। अर्थात्‌ जिस शास्त्र में आयु के स्वरूप, आयु के विविध भेद, आयु के लिए हितकारक और अप्रमाण तथा उनके ज्ञान के साधनों का एवं आयु के उपादानभूत शरीर, इंद्रिय, मन और आत्मा, इनमें सभी या किसी एक के विकास के साथ हित, सुख और दीर्घ आयु की प्राप्ति के साधनों का तथा इनके बाधक विषयों के निराकरण के उपायों का विवचेन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं। किंतु आजकल आयुर्वेद "प्राचीन भारतीय चिकित्सापद्धति' इस संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता है।
शरीर
समस्त चेष्टाओं, इंद्रियों, मन ओर आत्मा के आधारभूत पंचभौतिक पिंड को 'शरीर' कहते हैं। मानव शरीर के स्थूल रूप में छह अंग हैं; दो हाथ, दो पैर, शिर और ग्रीवा एक तथा अंतराधि (मध्यशरीर) एक। इन अंगों के अवयवों को प्रत्यंग कहते हैं-
मूर्धा (हेड), ललाट, भ्रू, नासिका, अक्षिकूट (ऑर्बिट), अक्षिगोलक (आइबॉल), वर्त्स (पलक), पक्ष्म (बरुनी), कर्ण (कान), कर्णपुत्रक (ट्रैगस), शष्कुली और पाली (पिन्न एंड लोब ऑव इयर्स), शंख (माथे के पार्श्व, टेंपुल्स), गंड (गाल), ओष्ठ (होंठ), सृक्कणी (मुख के कोने), चिबुक (ठुड्डी), दंतवेष्ट (मसूड़े), जिह्वा (जीभ), तालु, टांसिल्स, गलशुंडिका (युवुला), गोजिह्विका (एपीग्लॉटिस), ग्रीवा (गरदन), अवटुका (लैरिंग्ज़), कंधरा (कंधा), कक्षा (एक्सिला), जत्रु (हंसुली, कालर), वक्ष (थोरेक्स), स्तन, पार्श्व (बगल), उदर (बेली), नाभि, कुक्षि (कोख), बस्तिशिर (ग्रॉयन), पृष्ठ (पीठ), कटि (कमर), श्रोणि (पेल्विस), नितंब, गुदा, शिश्न या भग, वृषण (टेस्टीज़), भुज, कूर्पर (केहुनी), बाहुपिंडिका या अरत्नि (फ़ोरआर्म), मणिबंध (कलाई), हस्त (हथेली), अंगुलियां और अंगुष्ठ, ऊरु (जांघ), जानु (घुटना), जंघा (टांग, लेग), गुल्फ (टखना), प्रपद (फुट), पादांगुलि, अंगुष्ठ और पादतल (तलवा),। इनके अतिरिक्त हृदय, फुफ्फुस (लंग्स), यकृत (लिवर), प्लीहा (स्प्लीन), आमाशय (स्टमक), पित्ताशय (गाल ब्लैडर), वृक्क (गुर्दा, किडनी), वस्ति (यूरिनरी ब्लैडर), क्षुद्रांत (स्मॉल इंटेस्टिन), स्थूलांत्र (लार्ज इंटेस्टिन), वपावहन (मेसेंटेरी), पुरीषाधार, उत्तर और अधरगुद (रेक्टम), ये कोष्ठांग हैं और सिर में सभी इंद्रियों और प्राणों के केंद्रों का आश्रय मस्तिष्क (ब्रेन) है।
आयुर्वेद के अनुसार सारे शरीर में ३०० अस्थियां हैं, जिन्हें आजकल केवल गणना-क्रम-भेद के कारण दो सौ छह (२०६) मानते हैं तथा संधियाँ (ज्वाइंट्स) २००, स्नायु (लिंगामेंट्स) ९००, शिराएं (ब्लड वेसेल्स, लिफ़ैटिक्स ऐंड नर्ब्ज़) ७००, धमनियां (क्रेनियल नर्ब्ज़) २४ और उनकी शाखाएं २००, पेशियां (मसल्स) ५०० (स्त्रियों में २० अधिक) तथा सूक्ष्म स्रोत ३०,९५६ हैं।
आयुर्वेद के अनुसार शरीर में रस (बाइल ऐंड प्लाज्मा), रक्त, मांस, मेद (फ़ैट), अस्थि, मज्जा (बोन मैरो) और शुक्र (सीमेन), ये सात धातुएँ हैं। नित्यप्रति स्वाभावत: विविध कार्यों में उपयोग होने से इनका क्षय भी होता रहता है, किंतु भोजन और पान के रूप में हम जो विविध पदार्थ लेते रहते हैं उनसे न केवल इस क्षति की पूर्ति होती है, वरन्‌ धातुओं की पुष्टि भी होती रहती है। आहाररूप में लिया हुआ पदार्थ पाचकाग्नि, भूताग्नि और विभिन्न धात्वनिग्नयों द्वारा परिपक्व होकर अनेक परिवर्तनों के बाद पूर्वोक्त धातुओं के रूप में परिणत होकर इन धातुओं का पोषण करता है। इस पाचनक्रिया में आहार का जो सार भाग होता है उससे रस धातु का पोषण होता है और जो किट्ट भाग बचता है उससे मल (विष्ठा) और मूत्र बनता है। यह रस हृदय से होता हुआ शिराओं द्वारा सारे शरीर में पहुँचकर प्रत्येक धातु और अंग को पोषण प्रदान करता है। धात्वग्नियों से पाचन होने पर रस आदि धातु के सार भाग से रक्त आदि धातुओं एवं शरीर का भी पोषण होता है तथा किट्ट भाग से मलों की उत्पत्ति होती है, जैसे रस से कफ; रक्त पित्त; मांस से नाक, कान और नेत्र आदि के द्वारा बाहर आनेवाले मल; मेद से स्वेद (पसीना); अस्थि से केश तथा लोम (सिर के और दाढ़ी, मूंछ आदि के बाल) और मज्जा से आंख का कीचड़ मलरूप में बनते हैं। शुक्र में कोई मल नहीं होता, उसके सारे भाग से ओज (बल) की उत्पत्ति होती है।
इन्हीं रसादि धातुओं से अनेक उपधातुओं की भी उत्पत्ति होती है, यथा रस से दूध, रक्त से कंडराएं (टेंडंस) और शिराएँ, मांस से वसा (फ़ैट), त्वचा और उसके छह या सात स्तर (परत), मेद से स्नायु (लिंगामेंट्स), अस्थि से दांत, मज्जा से केश और शुक्र से ओज नामक उपधातुओं की उत्पत्ति होती है।
ये धातुएं और उपधातुएं विभिन्न अवयवों में विभिन्न रूपों में स्थित होकर शरीर की विभिन्न क्रियाओं में उपयोगी होती हैं। जब तक ये उचित परिमाण और स्वरूप में रहती हैं और इनकी क्रिया स्वाभाविक रहती है तब तक शरीर स्वस्थ रहता है और जब ये न्यून या अधिक मात्रा में तथा विकृत स्वरूप में होती हैं तो शरीर में रोग की उत्पत्ति होती है।
प्राचीन दार्शनिक सिंद्धांत के अनुसार संसार के सभी स्थूल पदार्थ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों के संयुक्त होने से बनते हैं। इनके अनुपात में भेद होने से ही उनके भिन्न-भिन्न रूप होते हैं। इसी प्रकार शरीर के समस्त धातु, उपधातु और मल पांचभौतिक हैं। परिणामत: शरीर के समस्त अवयव और अतत: सारा शरीर पांचभौतिक है। ये सभी अचेतन हैं। जब इनमें आत्मा का संयोग होता है तब उसकी चेतनता में इनमें भी चेतना आती है।
उचित परिस्थिति में शुद्ध रज और शुद्ध वीर्य का संयोग होने और उसमें आत्मा का संचार होने से माता के गर्भाशय में शरीर का आरंभ होता है। इसे ही गर्भ कहते हैं। माता के आहारजनित रक्त से अपरा (प्लैसेंटा) और गर्भनाड़ी के द्वारा, जो नाभि से लगी रहती है, गर्भ पोषण प्राप्त करता है। यह गर्भोदक में निमग्न रहकर उपस्नेहन द्वारा भी पोषण प्राप्त करता है तथा प्रथम मास में कलल (जेली) और द्वितीय में घन होता है? तीसरे मास में अंग प्रत्यंग का विकास आरंभ होता है। चौथे मास में उसमें अधिक स्थिरता आ जाती है तथा गर्भ के लक्षण माता में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगते हैं। इस प्रकार यह माता की कुक्षि में उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ जब संपूर्ण अंग, प्रत्यंग और अवयवों से युक्त हो जाता है, तब प्राय: नवें मास में कुक्षि से बाहर आकर नवीन प्राणी के रूप में जन्म ग्रहण करता है।
इंद्रिय
शरीर में प्रत्येक अंग या किसी भी अवयव का निर्माण उद्देश्यविशेष से ही होता है, अर्थात्‌ प्रत्येक अवयव के द्वारा विशिष्ट कार्यों की सिद्धि होती है, जैसे हाथ से पकड़ना, पैर से चलना, मुख से खाना, दांत से चबाना आदि। कुछ अवयव ऐसे भी हैं जिनसे कई कार्य होते हैं और कुछ ऐसे हैं जिनसे एक विशेष कार्य ही होता है। जिनसे कार्यविशेष ही होता है उनमें उस कार्य के लिए शक्तिसंपन्न एक विशिष्ट सूक्ष्म रचना होती है। इसी को इंद्रिय कहते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन बाह्य विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्रमानुसार कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका ये अवयव इंद्रियाश्रय अवयव (विशेष इंद्रियों के अंग) कहलाते हैं और इनमें स्थित विशिष्ट शक्तिसंपन्न सूक्ष्म वस्तु को इंद्रिय कहते हैं। ये क्रमश: पाँच हैं-
श्रोत्र, त्वक्‌, चक्षु, रसना और घ्राण।
इन सूक्ष्म अवयवों में पंचमहाभूतों में से उस महाभूत की विशेषता रहती है जिसके शब्द (ध्वनि) आदि विशिष्ट गुण हैं; जैसे शब्द के लिए श्रोत्र इंद्रिय में आकाश, स्पर्श के लिए त्वक्‌ इंद्रिय में वायु, रूप के लिए चक्षु इंद्रिय में तेज, रस के लिए रसनेंद्रिय में जल और गंध के लिए घ्राणेंद्रिय में पृथ्वी तत्व। इन पांचों इंद्रियों को ज्ञानेंद्रिय कहते हैं। इनके अतिरिक्त विशिष्ट कार्यसंपादन के लिए पांच कमेंद्रियां भी होती हैं, जैसे गमन के लिए पैर, ग्रहण के लिए हाथ, बोलने के लिए जिह्वा (गोजिह्वा), मलत्याग के लिए गुदा और मूत्रत्याग तथा संतानोत्पादन के लिए शिश्न (स्त्रियों में भग)। आयुर्वेद दार्शनिकों की भाँति इंद्रियों को आहंकारिक नहीं, अपितु भौतिक मानता है। इन इंद्रियों की अपने कार्यों मन की प्रेरणा से ही प्रवृत्ति होती है। मन से संपर्क न होने पर ये निष्क्रिय रहती है।
मन
प्रत्येक प्राणी के शरीर में अत्यन्त सूक्ष्म अणु रूप का और केवल एक ही मन होता है (अणुत्वं च एकत्वं दौ गुणौ मनसः स्मृतः)। यह अत्यन्त द्रुतगति वाला और प्रत्येक इंद्रिय का नियंत्रक होता है। किन्तु यह स्वयं भी आत्मा के संपर्क के बिना अचेतन होने से निष्क्रिय रहता है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में सत्व, रज और तम, ये तीनों प्राकृतिक गुण होते हुए भी इनमें से किसी एक की सामान्यत: प्रबलता रहती है और उसी के अनुसार व्यक्ति सात्विक, राजस या तामस होता है, किंतु समय-समय पर आहार, आचार एवं परिस्थितियों के प्रभाव से दसरे गुणों का भी प्राबल्य हो जाता है। इसका ज्ञान प्रवृत्तियों के लक्षणों द्वारा होता है, यथा राग-द्वेष-शून्य यथार्थद्रष्टा मन सात्विक, रागयुक्त, सचेष्ट और चंचल मन राजस और आलस्य, दीर्घसूत्रता एवं निष्क्रियता आदि युक्त मन तामस होता है। इसीलिए सात्विक मन को शुद्ध, सत्व या प्राकृतिक माना जाता है और रज तथा तम उसके दोष कहे गए हैं। आत्मा से चेतनता प्राप्त कर प्राकृतिक या सदोष मन अपने गुणों के अनुसार इंद्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त करता है और उसी के अनुरूप शारीरिक कार्य होते हैं। आत्मा मन के द्वारा ही इंद्रियों और शरीरावयवों को प्रवृत्त करता है, क्योंकि मन ही उसका करण (इंस्ट्रुमेंट) है। इसीलिए मन का संपर्क जिस इंद्रिय के साथ होता है उसी के द्वारा ज्ञान होता है, दूसरे के द्वारा नहीं। क्योंकि मन एक ओर सूक्ष्म होता है, अत: एक साथ उसका अनेक इंद्रियों के साथ संपर्क सभव नहीं है। फिर भी उसकी गति इतनी तीव्र है कि वह एक के बाद दूसरी इंद्रिय के संपर्क में शीघ्रता से परिवर्तित होता है, जिससे हमें यही ज्ञात होता है कि सभी के साथ उसका संपर्क है और सब कार्य एक साथ हो रहे हैं, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता।
आत्मा
आत्मा पंचमहाभूत और मन से भिन्न, चेतनावान्‌, निर्विकार और नित्य है तथा साक्षी स्वरूप है, क्योंकि स्वयं निर्विकार तथा निष्क्रिय है। इसके संपर्क से सक्रिय किंतु अचेतन मन, इंद्रियों और शरीर में चेतना का संचार होता है और वे सचेष्ट होते हैं। आत्मा में रूप, रंग, आकृति आदि कोई चिह्न नहीं है, किंतु उसके बिना शरीर अचेतन होने के कारण निश्चेष्ट पड़ा रहता है और मृत कहलता है तथा उसके संपर्क से ही उसमें चेतना आती है तब उसे जीवित कहा जाता है और उसमें अनेक स्वाभाविक क्रियाएं होने लगती हैं; जैसे श्वासोच्छ्‌वास, छोटे से बड़ा होना और कटे हुए घाव भरना आदि, पलकों का खुलना और बंद होना, जीवन के लक्षण, मन की गति, एक इंद्रिय से हुए ज्ञान का दूसरी इंद्रिय पर प्रभाव होना (जैसे आँख से किसी सुंदर, मधुर फल को देखकर मुँह में पानी आना), विभिन्न इंद्रियों और अवयवों को विभन्न कार्यों में प्रवृत्त करना, विषयों का ग्रहण और धारण करना, स्वप्न में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना, एक आँख से देखी वस्तु का दूसरी आँख से भी अनुभव करना। इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, प्रयत्न, धैर्य, बुद्धि, स्मरण शक्ति, अहंकार आदि शरीर में आत्मा के होने पर ही होते हैं; आत्मारहित मृत शरीर में नहीं होते। अत: ये आत्मा के लक्षण कहे जाते हैं, अर्थात्‌ आत्मा का पूर्वोक्त लक्षणों से अनुमान मात्र किया जा सकता है। मानसिक कल्पना के अतिरिक्त किसी दूसरी इंद्रिय से उसका प्रत्यक्ष करना संभव नहीं है।
यह आत्मा नित्य, निर्विकार और व्यापक होते हुए भी पूर्वकृत शुभ या अशुभ कर्म के परिणामस्वरूप जैसी योनि में या शरीर में, जिस प्रकार के मन और इंद्रियों तथा विषयों के संपर्क में आती है वैसे ही कार्य होते हैं। उत्तरोत्तर अशुभ कार्यों के करने से उत्तरोत्तर अधोगति होती है तथा शुभ कर्मों के द्वारा उत्तरोत्तर उन्नति होने से, मन के राग-द्वेष-हीन होने पर, मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा तो निर्विकार है, किंतु मन, इंद्रिय और शरीर में विकृति हो सकती है और इन तीनों के परस्पर सापेक्ष्य होने के कारण एक का विकार दूसरे को प्रभावित कर सकता है। अत: इन्हें प्रकृतिस्थ रखना या विकृत होने पर प्रकृति में लाना या स्वस्थ करना परमावश्यक है। इससे दीर्घ सुख और हितायु की प्राप्ति होती है, जिससे क्रमश: आत्मा को भी उसके एकमात्र, किंतु भीषण, जन्म मृत्यु और भवबंधनरूप रोग से मुक्ति पाने में सहायता मिलती है, जो आयुर्वेद में नैतिष्ठकी चिकित्सा कही गई है।

रोग और स्वास्थ्य
चरक ने संक्षेप में रोग और आरोग्य का लक्षण यह लिखा है-
वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों का सम मात्रा (उचित प्रमाण) में होना ही आरोग्य और इनमें विषमता होना ही रोग है।
सुश्रुत ने स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण विस्तार से दिया है-
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥
जिससे सभी दोष सम मात्रा में हों, अग्नि सम हो, धातु, मल और उनकी क्रियाएं भी सम (उचित रूप में) हों तथा
जिसकी आत्मा, इंद्रिय और मन प्रसन्न (शुद्ध) हों उसे स्वस्थ समझना चाहिए।
इसके विपरीत लक्षण हों तो अस्वस्थ समझना चाहिए। रोग को विकृति या विकार भी कहते हैं। अत: शरीर, इंद्रिय और मन के प्राकृतिक (स्वाभाविक) रूप या क्रिया में विकृति होना रोग है।
रोगों के हेतु या कारण (इटियॉलोजी)
चरकसंहिता के निदानस्थान के श्लोक-२ में कहा गया है कि इस प्रकरन में हेतु, निमित्त, आयतन, कर्ता, कारण, प्रत्यय, समुत्थान तथा निदान एकार्थवाचक हैं। हेतु तीन प्रकार का होता है- असात्म्येन्द्रियार्थसंयोग, प्रज्ञापराध तथा परिणाम'
संसार की सभी वस्तुएँ साक्षात् या परंपरा से शरीर, इंद्रियों और मन पर किसी न किसी प्रकार का निश्चित प्रभाव डालती हैं और अनुचित या प्रतिकूल प्रभाव से इनमें विकार उत्पन्न कर रोगों का कारण होती हैं। इन सबका विस्तृत विवेचन कठिन है, अत: संक्षेप में इन्हें तीन वर्गों में बाँट दिया गया है :
(१) असात्म्येन्द्रियार्थसंयोग : चक्षु आदि इंद्रियों का अपने-अपने रूप आदि विषयों के साथ असात्म्य (प्रतिकूल, हीन, मिथ्या और अति) संयोग इंद्रियों, शरीर और मन के विकार का कारण होता है; यथा आँख से बिलकुल न देखना (अयोग), अति तेजस्वी वस्तुओं का देखना और बहुत अधिक देखना (अतियोग) तथा अतिसूक्ष्म, संकीर्ण, अति दूर में स्थित तथा भयानक, बीभत्स, एवं विकृतरूप वस्तुओं को देखना (मिथ्यारोग)। ये चक्षुरिंद्रिय और उसके आश्रय नेत्रों के साथ मन और शरीर में भी विकार उत्पन्न करते हैं। इसी को दूसरे शब्दों में अर्थ का दुर्योग भी कहते हैं। ग्रीष्म, वर्षा, शीत आदि ऋतुओं तथा बाल्य, युवा और वृद्धावस्थाओं का भी शरीर आदि पर प्रभाव पड़ता ही है, किंतु इनके हीन, मिथ्या और अतियोग का प्रभाव विशेष रूप से हानिकर होता है।
(२) प्रज्ञापराध : अविवेक (धीभ्रंश), अधीरता (धृतिभ्रंश) तथा पूर्व अनुभव और वास्तविकता की उपेक्षा (स्मृतिभ्रंश) के कारण लाभ हानि का विचार किए बिना ही किसी विषय का सेवन या जानते हुए भी अनुचित वस्तु का सेवन करना। इसी को दूसरे और स्पष्ट शब्दों में कर्म (शारीरिक, वाचिक और मानसिक चेष्टाएं) का हीन, मिथ्या और अति योग भी कहते हैं।
(३) परिणाम
पूर्वोक्त कारणों के प्रकारान्तर से अन्य भेद भी होते हैं; यथा
(१) विप्रकृष्ट कारण (रिमोट कॉज़), जो शरीर में दोषों का संचय करता रहता है और अनुकूल समय पर रोग को उत्पन्न करता है,
(२) संनिकृष्ट कारण (इम्मीडिएट कॉज़), जो रोग का तात्कालिक कारण होता है,
(३) व्यभिचारी कारण (अबॉर्टिव कॉज़) जो परिस्थितिवश रोग को उत्पन्न करता है और नहीं भी करता तथा
(४) प्राधानिक कारण (स्पेसिफ़िक कॉज़), जो तत्काल किसी धातु या अवयवविशेष पर प्रभाव डालकर निश्चित लक्षणोंवाले विकार को उत्पन्न करता है, जैसे विभिन्न स्थावर और जांतव विष।
प्रकारान्तर से इनके अन्य दो भेद होते हैं-
(१) उत्पादक (प्रीडिस्पोज़िंग), जो शरीर में रोगविशेष की उत्पत्ति के अनुकूल परिवर्तन कर देता है;
(२) व्यंजक (एक्साइटिंग), जो पहले से रोगानुकूल शरीर में तत्काल विकारों को व्यक्त करता है।
हेतुओं का शरीर पर प्रभाव
शरीर पर इन सभी कारणों के तीन प्रकार के प्रभाव होते हैं :
(१) दोषप्रकोप- अनेक कारणों से शरीर के उपादानभूत आकाश आदि पांच तत्वों में से किसी एक या अनेक में परिवर्तन होकर उनके स्वाभाविक अनुपात में अंतर आ जाना अनिवार्य है। इसी को ध्यान में रखकर आयुर्वेदाचार्यों ने इन विकारों को वात, पित्त और कफ इन वर्गों में विभक्त किया है। पंचमहाभूत एवं त्रिदोष का अलग से विवेचन ही उचित है, किंतु संक्षेप में यह समझना चाहिए कि संसार के जितने भी मूर्त (मैटिरयल) पदार्थ हैं वे सब आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी इन पांच तत्वों से बने हैं।
ये पृथ्वी आदि वे ही नहीं है जो हमें नित्यप्रति स्थूल जगत् में देखने को मिलते हैं। ये पिछले सब तो पूर्वोक्त पांचों तत्वों के संयोग से उत्पन्न पांचभौतिक हैं। वस्तुओं में जिन तत्वों की बहुलता होती है वे उन्हीं नामों से वर्णित की जाती हैं। उसी प्रकार हमारे शरीर की धातुओं में या उनके संघटकों में जिस तत्व की बहुलता रहती है वे उसी श्रेणी के गिने जाते हैं। इन पांचों में आकाश तो निर्विकार है तथा पृथ्वी सबसे स्थूल और सभी का आश्रय है। जो कुछ भी विकास या परिवर्तन होते हैं उनका प्रभाव इसी पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। शेष तीन (वायु, तेज और जल) सब प्रकार के परिवर्तन या विकार उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। अत: तीनों की प्रचुरता के आधार पर, विभिन्न धातुओं एवं उनके संघटकों को वात, पित्त और कफ की संज्ञा दी गई है। सामान्य रूप से ये तीनों धातुएं शरीर की पोषक होने के कारण विकृत होने पर अन्य धातुओं को भी दूषित करती हैं। अत: दोष तथा मल रूप होने से मल कहलाती हैं। रोग में किसी भी कारण से इन्हीं तीनों की न्यूनता या अधिकता होती है, जिसे दोषप्रकोप कहते हैं।
(२) धातुदूषण- कुछ पदार्थ या कारण ऐसे होते हैं जो किसी विशिष्ट धातु या अवयव में ही विकार करते हैं। इनका प्रभाव सारे शरीर पर नहीं होता। इन्हें धातुप्रदूषक कहते हैं।
(३) उभयहेतु- वे पदार्थ जो सारे शरीर में वात आदि दोषों को कुपित करते हुए भी किसी धातु या अंग विशेष में ही विशेष विकार उत्पन्न करते हैं, उभयहेतु कहलाते हैं। किंतु इन तीनों में जो परिवर्तन होते हैं वे वात, पित्त या कफ इन तीनों में से किसी एक, दो या तीनों में ही विकार उत्पन्न करते हैं। अत: ये ही तीनों दोष प्रधान शरीरगत कारण होते हैं, क्योंकि इनके स्वाभाविक अनुपात में परिवर्तन होने से शरीर की धातुओं आदि में भी विकृति होती है। रचना में विकार होने से क्रिया में भी विकार होना स्वाभाविक है। इस अस्वाभाविक रचना और क्रिया के परिणामस्वरूप अतिसार, कास आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं और इन लक्षणों के समूह को ही रोग कहते हैं।
इस प्रकार जिन पदार्थों के प्रभाव से वात आदि दोषों में विकृतियां होती हैं तथा वे वातादि दोष, जो शारीरिक धातुओं को विकृत करते हैं, दोनों ही हेतु (कारण) या निदान (आदिकारण) कहलाते हैं। अंतत: इनके दो अन्य महत्वपूर्ण भेदों का विचार अपेक्षित है :
(१) निज (इडियोपैथिक)- जब पूर्वोक्त कारणों से क्रमश: शरीरगत वातादि दोष में और उनके द्वारा धातुओं में, विकार उत्पन्न होते हैं तो उनको निज हेतु या निज रोग कहते हैं।
(२) आगंतुक (ऐक्सिडेंटल)- चोट लगना, आग से जलना, विद्युत्प्रभाव, सांप आदि विषैले जीवों के काटने या विषप्रयोग से जब एकाएक विकार उत्पन्न होते हैं तो उनमें भी वातादि दोषों का विकार होते हुए भी, कारण की भिन्नता और प्रबलता से, वे कारण और उनसे उत्पन्न रोग आगंतुक कहलाते हैं।
रोग जानकारी के साधन : लिंग
पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न विकारों की पहचान जिन साधनों द्वारा होती है उन्हें लिंग कहते हैं। इसके चार भेद हैं : पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय।
पूर्वरूप- किसी रोग के व्यक्त होने के पूर्व शरीर के भीतर हुई अत्यल्प या आरंभिक विकृति के कारण जो लक्षण उत्पन्न होकर किसी रोगविशेष की उत्पत्ति की संभावना प्रकट करते हैं उन्हें पूर्वरूप (प्रोडामेटा) कहते हैं।
रूप (साइंस एंड सिंप्टम्स) - जिन लक्षणों से रोग या विकृति का स्पष्ट परिचय मिलता है उन्हें रूप कहते हैं।
संप्राप्ति (पैथोजेनेसिस) : किस कारण से कौन सा दोष स्वतंत्र रूप में या परतंत्र रूप में, अकेले या दूसरे के साथ, कितने अंश में और कितनी मात्रा में प्रकुपित होकर, किस धातु या किस अंग में, किस-किस स्वरूप का विकार उत्पन्न करता है, इसके निर्धारण को संप्राप्ति कहते हैं। चिकित्सा में इसी की महत्वपूर्ण उपयोगिता है। वस्तुत: इन परिवर्तनों से ही ज्वरादि रूप में रोग उत्पन्न होते हैं, अत: इन्हें ही वास्तव में रोग भी कहा जा सकता है और इन्हीं परिवर्तनों को ध्यान में रखकर की गई चिकित्सा भी सफल होती है।
उपशय और अनुपशय (थेराप्यूटिक टेस्ट) - जब अल्पता या संकीर्णता आदि के कारण रोगों के वास्तविक कारणों या स्वरूपों का निर्णय करने में संदेह होता है, तब उस संदेह के निराकरण के लिए संभावित दोषों या विकारों में से किसी एक के विकार से उपयुक्त आहार-विहार और औषध का प्रयोग करने पर जिससे लाभ होता है उसे उपचय के विवेचन में आयुर्वेदाचार्यो ने छह प्रकार से आहार-विहार और औषध के प्रयोगों का सूत्र बतलाते हुए उपशय के १८ भेदों का वर्णन किया है। ये सूत्र इतने महत्व के हैं कि इनमें से एक-एक के आधार पर एक-एक चिकित्सापद्धति का उदय हो गया है; जैसे,
(१) हेतु के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना।
(२) व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं एलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी (ऐलोज़ = विपरीत ; अपैथोज़ = वेदना)।
(३) हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना।
(४) हेतुविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग; जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है तथा रक्त का जमना रुकने, पाक के रुकने पर शांति मिलती है।
(५) व्याधिविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग या वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग (होमियोपैथी से तुलना करें : होमियो =समान, अपैथोज़ =वेदना )।
(६) उभयविरीतार्थकारी, अर्थात् कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग।
उपशय और अनुपशय से भी रोग की पहचान में सहायता मिलती है। अत: इनको भी प्राचीनों ने "लिंग' में ही गिना है। हेतु और लिंग के द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करने पर ही उसकी उचित और सफल चिकित्सा (औषध) संभव है। हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा करनी चाहिए।
रोगी की परीक्षा
रोगी परीक्षा के साधन चार हैं - आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति।
आप्तोपदेश
योग्य अधिकारी, तप और ज्ञान से संपन्न होने के कारण, शास्त्रतत्वों को राग-द्वेष-शून्य बुद्धि से असंदिग्ध और यथार्थ रूप से जानते और कहते हैं। ऐसे विद्वान्, अनुसंधानशील, अनुभवी, पक्षपातहीन और यथार्थ वक्ता महापुरुषों को आप्त (अथॉरिटी) और उनके वचनों या लेखों को आप्तोपदेश कहते हैं। आप्तजनों ने पूर्ण परीक्षा के बाद शास्त्रों का निर्माण कर उनमें एक-एक के संबंध में लिखा है कि अमुक कारण से, इस दोष के प्रकुपित होने और इस धातु के दूषित होने तथा इस अंग में आश्रित होने से, अमुक लक्षणोंवाला अमुक रोग उत्पन्न होता है, उसमें अमुक-अमुक परिवर्तन होते हैं तथा उसकी चिकित्सा के लिए इन आहार विहार और अमुक औषधियों के इस प्रकार उपयोग करने से तथा चिकित्सा करने से शांति होती है। इसलिए प्रथम योग्य और अनुभवी गुरुजनों से शास्त्र का अध्ययन करने पर रोग के हेतु, लिंग और औषधज्ञान में प्रवृत्ति होती है। शास्त्रवचनों के अनुसार ही लक्षणों की परीक्षा प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति से की जाती है।
प्रत्यक्ष
मनोयोगपूर्वक इंद्रियों द्वारा विषयों का अनुभव प्राप्त करने को प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके द्वारा रोगी के शरीर के अंग प्रत्यंग में होनेवाले विभिन्न शब्दों (ध्वनियों) की परीक्षा कर उनके स्वाभाविक या अस्वाभाविक होने का ज्ञान श्रोत्रेंद्रिय द्वारा करना चाहिए। वर्ण, आकृति, लंबाई, चौड़ाई आदि प्रमाण तथा छाया आदि का ज्ञान नेत्रों द्वारा, गंधों का ज्ञान घ्राणेन्द्रिय तथा शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध एवं नाड़ी आदि के स्पंदन आदि भावों का ज्ञान स्पर्शेंद्रिय द्वारा प्राप्त करना चाहिए। रोगी के शरीरगत रस की परीक्षा स्वयं अपनी जीभ से करना उचित न होने के कारण, उसके शरीर या उससे निकले स्वेद, मूत्र, रक्त, पूय आदि मंस चींटी लगना या न लगना, मक्खियों का आना और न आना, कौए या कुत्ते आदि द्वारा खाना या न खाना, प्रत्यक्ष देखकर उनके स्वरूप का अनुमान किया जा सकता है।
अनुमान
युक्तिपूर्वक तर्क (ऊहापाह) के द्वारा प्राप्त ज्ञान अनुमान (इनफ़रेंस) है। जिन विषयों का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता या प्रत्यक्ष होने पर भी उनके संबंध में संदेह होता है वहाँ अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिए; यथा, पाचनशक्ति के आधार पर अग्निबल का, व्यायाम की शक्ति के आधार पर शारीरिक बल का, अपने विषयों को ग्रहण करने या न करने से इंद्रियों की प्रकृति या विकृति का तथा इसी प्रकार भोजन में रुचि, अरुचि तथा प्यास एवं भय, शोक, क्रोध, इच्छा, द्वेष आदि मानसिक भावों के द्वारा विभिन्न शारीरिक और मानसिक विषयों का अनुमान करना चाहिए। पूर्वोक्त उपशयानुपशय भी अनुमान का ही विषय है।
युक्ति
इसका अर्थ है योजना। अनेक कारणों के सामुदायिक प्रभाव से किसी विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति को देखकर, तदनुकूल विचारों से जो कल्पना की जाती है उसे युक्ति कहते हैं। जैसे खेत, जल, जुताई, बीज और ऋतु के संयोग से ही पौधा उगता है। धुएं का आग के साथ सदैव संबंध रहता है, अर्थात् जहाँ धुआँ होगा वहाँ आग भी होगी। इसी को व्याप्तिज्ञान भी कहते हैं और इसी के आधार पर तर्क कर अनुमान किया जाता है। इस प्रकार निदान, पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय इन सभी के सामुदायिक विचार से रोग का निर्णय युक्तियुक्त होता है। योजना का दूसरी दृष्टि से भी रोगी की परीक्षा में प्रयोग कर सकते हैं। जैसे किसी इंद्रिय में यदि कोई विषय सरलता से ग्राह्य न हो तो अन्य यंत्रादि उपकरणों की सहायता से उस विषय का ग्रहण करना भी युक्ति में ही अंतर्भूत है।
परीक्षण विषय
पूर्वोक्त लिंगों के ज्ञान के लिए तथा रोगनिर्णय के साथ साध्यता या असाध्यता के भी ज्ञान के लिए आप्तोपदेश के अनुसार प्रत्यक्ष आदि परीक्षाओं द्वारा रोगी के सार, तत्व (डिसपोज़िशन), सहनन (उपचय), प्रमाण (शरीर और अंग प्रत्यंग की लंबाई, चौड़ाई, भार आदि), सात्म्य (अभ्यास आदि, हैबिट्स), आहारशक्ति, व्यायामशक्ति तथा आयु के अतिरिक्त वर्ण, स्वर, गंध, रस और स्पर्श ये विषय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पशेंद्रिय, सत्व, भक्ति (रुचि), शैच, शील, आचार, स्मृति, आकृति, बल, ग्लानि, तंद्रा, आरंभ (चेष्टा), गुरुता, लघुता, शीतलता, उष्णता, मृदुता, काठिन्य आदि गुण, आहार के गुण, पाचन और मात्रा, उपाय (साधन), रोग और उसके पूर्वरूप आदि का प्रमाण, उपद्रव (कांप्लिकेशंस), छाया (लस्टर), प्रतिच्छाया, स्वप्न (ड्रीम्स), रोगी को देखने को बुलाने के लिए आए दूत तथा रास्ते और रोगी के घर में प्रवेश के समय के शकुन और अपशकुन, ग्रहयोग आदि सभी विषयों का प्रकृति (स्वाभाविकता) तथा विकृति (अस्वाभाविकता) की दृष्टि से विचार करते हुए परीक्षा करनी चाहिए। विशेषत: नाड़ी, मल, मूत्र, जिह्वा, शब्द (ध्वनि), स्पर्श, नेत्र और आकृति की सावधानी से परीक्षा करनी चाहिए। आयुर्वेद में नाड़ी की परीक्षा अति महत्व का विषय है। केवल नाड़ीपरीक्षा से दोषों एवं दूष्यों के साथ रोगों के स्वरूप आदि का ज्ञान अनुभवी वैद्य प्राप्त कर लेता है।
औषध
जिन साधनों के द्वारा रोगों के कारणभूत दोषों एवं शारीरिक विकृतियों का शमन किया जाता है उन्हें औषध कहते हैं। ये मख्यतः दो प्रकार की होती है : अपद्रव्यभूत और द्रव्यभूत।
अद्रव्यभूत औषध वह है जिसमें किसी द्रव्य का उपयोग नहीं होता, जैसे उपवास, विश्राम, सोना, जागना, टहलना, व्यायाम आदि।
बाह्य या आभ्यंतर प्रयोगों द्वारा शरीर में जिन बाह्य द्रव्यों (ड्रग्स) का प्रयोग होता है वे द्रव्यभूत औषध हैं। ये द्रव्य संक्षेप में तीन प्रकार के होते हैं :
(१) जांगम (ऐनिमल ड्रग्स), जो विभिन्न प्राणियों के शरीर से प्राप्त होते हैं, जैसे मधु, दूध, दही, घी, मक्खन, मठ्ठा, पित्त, वसा, मज्जा, रक्त, मांस, पुरीष, मूत्र, शुक्र, चर्म, अस्थि, शृंग, खुर, नख, लोम आदि;
(२) औद्भिद (हर्बल ड्रग्स) : मूल (जड़), फल आदि
(३) पार्थिव (खनिज, मिनरल ड्रग्स), जैसे सोना, चांदी, सीसा, रांगा, तांबा, लोहा, चूना, खड़िया, अभ्रक, संखिया, हरताल, मैनसिल, अंजन (एंटीमनी), गेरू, नमक आदि।
शरीर की भांति ये सभी द्रव्य भी पांचभौतिक होते हैं, इनके भी वे ही संघटक होते हैं जो शरीर के हैं। अत: संसार में कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है जिसका किसी न किसी रूप में किसी न किसी रोग के किसी न किसी अवस्थाविशेष में औषधरूप में प्रयोग न किया जा सके। किंतु इनके प्रयोग के पूर्व इनके स्वाभाविक गुणधर्म, संस्कारजन्य गुणधर्म, प्रयोगविधि तथा प्रयोगमार्ग का ज्ञान आवश्यक है। इनमें कुछ द्रव्य दोषों का शमन करते हैं, कुछ दोष और धातु को दूषित करते हैं और कुछ स्वस्थ्वृत में, अर्थात् धातुसाम्य को स्थिर रखने में उपयोगी होते हैं, इनकी उपयोगिता के समुचित ज्ञान के लिए द्रव्यों के पांचभौतिक संघटकों में तारतम्य के अनुसार स्वरूप (कंपोज़िशन), गुरुता, लघुता, रूक्षता, स्निग्धता आदि गुण, रस (टेस्ट एंड लोकल ऐक्शन), वपाक (मेटाबोलिक चेंजेज़), वीर्य (फिज़िओलॉजिकल ऐक्शन), प्रभाव (स्पेसिफ़िक ऐक्शन) तथा मात्रा (डोज़) का ज्ञान आवश्यक होता है।
भैषज्यकल्पना
मुख्य लेख: भैषज्य कल्पना
सभी द्रव्य सदैव अपने प्राकृतिक रूपों में शरीर में उपयोगी नहीं होते। रोग और रोगी की आवश्यकता के विचार से शरीर की धातुओं के लिए उपयोगी एवं सात्म्यकरण के अनुकूल बनाने के लिए; इन द्रव्यों के स्वाभाविक स्वरूप और गुणों में परिवर्तन के लिए, विभिन्न भौतिक एवं रासायनिक संस्कारों द्वारा जो उपाय किए जाते हैं उन्हें "कल्पना' (फ़ार्मेसी या फ़ार्मास्युटिकल प्रोसेस) कहते हैं। जैसे-स्वरस (जूस), कल्क या चूर्ण (पेस्ट या पाउडर), शीत क्वाथ (इनफ़्यूज़न), क्वाथ (डिकॉक्शन), आसव तथा अरिष्ट (टिंक्चर्स), तैल, घृत, अवलेह आदि तथा खनिज द्रव्यों के शोधन, जारण, मारण, अमृतीकरण, सत्वपातन आदि।
चिकित्सा (ट्रीटमेंट)
चिकित्सक, परिचायक, औषध और रोगी, ये चारों मिलकर शारीरिक धातुओं की समता के उद्देश्य से जो कुछ भी उपाय या कार्य करते हैं उसे चिकित्सा कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है : (१) निरोधक (प्रिवेंटिव) तथा (२) प्रतिषेधक (क्योरेटिव); जैसे शरीर के प्रकृतिस्थ दोषों और धातुओं में वैषम्य (विकार) न हो तथा साम्य की परंपरा निरंतर बनी रहे, इस उद्देश्य से की गई चिकित्सा निरोधक है तथा जिन क्रियाओं या उपचारों से विषम हुई शरीरिक धातुओं में समता उत्पन्न की जाती है उन्हें प्रतिषेधक चिकित्सा कहते हैं।
पुनः चिकित्सा तीन प्रकार की होती है - (१) दैवव्यपाश्रय (२) सत्वावजय (३) युक्तिव्यपाश्रय।[7]
दैवव्यपाश्रय
जो रोग दोषज ना होकर कर्मज होते हैं, जो पूर्वजन्मकृत पापों से या सिद्ध, ऋषि या देवता आदि के अपमान करने पर उनके शाप से होते हैं, उनकी शान्ति के लिए मंत्र, व्रत, उपवास करना, मंगलवाचक वेदमंत्रों का पाठ करना, देवता, गुरू व ब्राह्मण को झुककर प्रणाम करना और तीर्थयात्रा करना आदि उपाय हैं।
सत्वावजय (साइकोलॉजिकल)
मानसिक् रोगों को नियन्त्रित करने के लिए ज्ञान-विज्ञान-धैर्य-स्मृति और समाधि द्वारा मन को एकाग्र करना तथा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक आहार-विहार से मन को रोकना 'सत्त्वावजय' चिकित्सा है।
गीता में स्पष्ट उल्लिखित है- मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः  - केवल मानसिक ही नहीं अपितु अनेकानेक शारीरिक रोगों की चिकित्सा में भी यदि मनुष्य को प्रेरित किया जाए तो आशातीत सफलता प्राप्त होती है। इसमें मन को अहित विषयों से रोकना तथा हर्षण, आश्वासन आदि उपाय हैं।अनेेकानेक व्यक्तियों ने अपने आत्मबल के बलबूते पर गम्भीर रोगों को परास्त किया है। अतएव एक सफल चिकित्सक रोगी के आत्मबल को विकसित करने का प्रयास करता है। इसमें ग्रह आदि दोषों के शमनार्थ तथा पूर्वकृत अशुभ कर्म के प्रायश्चित्तस्वरूप देवाराधन, जप, हवन, पूजा, पाठ, व्रात, तथा मणि, मंत्र, यंत्र, रत्न और औषधि आदि का धारण, ये उपाय होते हैं।
युक्तिव्यपाश्रय (मेडिसिनल अर्थात् सिस्टमिक ट्रीटमेंट)
रोग और रोगी के बल, स्वरूप, अवस्था, स्वास्थ्य, सत्व, प्रकृति आदि के अनुसार उपयुकत औषध की उचित मात्रा, अनुकूल कल्पना (बनाने की रीति) आदि का विचार कर प्रयुक्त करना। इसके भी मुख्यत: तीन प्रकार हैं : अंतःपरिमार्जन, बहिःपरिमार्जन और शस्त्रप्रणिधान।
(१) अन्तःपरिमार्जन (औषधियों का आभ्यन्तर प्रयोग)
हृष्ट-पुष्ट रोगी के लिए अपतर्पण चिकित्सा की जाती है जिससे उसके शरीर में लघुता आये। दुबले-पतले रोगी के ले संतर्पण चिकित्सा की जाती है जिससे उसके शरीर में गुरुता आए।
इन दोनों प्रकार की चिकित्साओं के भी पुनः मुख्यतः दो प्रकार हैं-

आयुर्वेदिक चिकित्सा
(क) लङ्घन चिकित्सा - शरीर में लघुता लाने के लिए। यह भी दो प्रकार की होती है -
(अ) संशोधन – जिस चिकित्सा में प्रकुपित दोषों और मलों को शरीर के स्वाभाविक विसर्जन अंगों द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है। इस पांच प्रकार की चिकित्सा, वमन, विरेचन, अनुवासन बस्ति, निरूह बस्ति तथा नस्य, को पंचकर्म कहा जाता है जो आयुर्वेद की अत्यन्त ही प्रसिद्ध तथा प्रचलित चिकित्सा है।
(आ) शमन – दोषों को विसर्जित किये बिना ही विभिन्न प्रकार से साम्यावस्था में लाया जाता है जैसे पिपासा-निग्रह (प्यासे रहना), आतप और मारूत (धूप और ताजी हवा का सेवन), पाचन और दीपन (पाचन शक्ति की वृद्धि तथा भोजन का परिपाक करने वाली औषधियों का सेवन), उपवास (भूखे रहना) तथा शारीरिक व्यायाम (शारीरिक श्रम तथा योगासन)।
(ख) बृंहण चिकित्सा – शरीर की पुष्टि के लिए।
शमन-लाक्षणिक चिकित्सा (सिंप्टोमैटिक ट्रीटमेंट) : विभिन्न लक्षणों के अनुसार दोषों और विकारों के शमनार्थ विशेष गुणवाली औषधि का प्रयोग, जैसे ज्वरनाशक, छर्दिघ्न (वमन रोकनेवाला), अतिसारहर (स्तंभक), उद्दीपक, पाचक, हृद्य, कुष्ठघ्न, बल्य, विषघ्न, कासहर, श्वासहर, दाहप्रशामक, शीतप्रशामक, मूत्रल, मूत्रविशोधक, शुक्रजनक, शुक्रविशोधक, स्तन्यजनक, स्वेदल, रक्तस्थापक, वेदनाहर, संज्ञास्थापक, वयःस्थापक, जीवनीय, बृंहणीय, लेखनीय, मेदनीय, रूक्षणीय, स्नहेनीय आदि द्रव्यों का आवश्यकतानुसार उचित कल्पना और मात्रा में प्रयोग करना।
इन औषधियों का प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए :
"यह औषधि इस स्वभाव की होने के कारण तथा अमुक तत्वों की प्रधानता के कारण, अमुक गुणवाली होने से, अमुक प्रकार के देश में उत्पन्न और अमुक ऋतु में संग्रह कर, अमुक प्रकार सुरक्षित रहकर, अमुक कल्पना से, अमुक मात्रा से, इस रोग की, इस-इस अवस्था में तथा अमुक प्रकार के रोगी को इतनी मात्रा में देने पर अमुक दोष को निकालेगी या शांत करेगी। इसके प्रभाव में इसी के समान गुणवाली अमुक औषधि का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें यह यह उपद्रव हो सकते हैं और उसके शमनार्थ ये उपाय करने चाहिए।"
(२) बहिःपरिमार्जन (एक्स्टर्नल मेडिकेशन)
जैसे अभ्यंग, स्नान, लेप, धूपन, स्वेदन आदि।
(३) शस्त्रकर्म
विभिन्न अवस्थाओं में निम्नलिखित आठ प्रकार के शस्त्रकर्मों में से कोई एक या अनेक करने पड़ते हैं :
१. छेदन- काटकर दो फांक करना या शरीर से अलग करना (एक्सिज़न),
२. भेदन- चीरना (इंसिज़न),
३. लेखन- खुरचना (स्क्रेपिंग या स्कैरिफ़िकेशन),
४. वेधन- नुकीले शस्त्र से छेदना (पंक्चरिंग),
 ५. एषण (प्रोबिंग),
६. आहरण- खींचकर बाहर निकालना (एक्स्ट्रैक्शन),
७. विस्रावण-रक्त, पूय आदि को चुवाना (ड्रेनेज),
८. सीवन- सीना (स्यूचरिंग या स्टिचिंग)।
इनके अतिरिक्त उत्पाटन (उखाड़ना), कुट्टन (कुचकुचाना, प्रिकिंग), मंथन (मथना, ड्रिलिंग), दहन (जलाना, कॉटराइज़ेशन) आदि उपशस्त्रकर्म भी होते हैं। शस्त्रकर्म (ऑपरेशन) के पूर्व की तैयारी को पूर्वकर्म कहते हैं, जैसे रोगी का शोधन, यंत्र (ब्लंट इंस्ट्रुमेंट्स), शस्त्र (शार्प इंस्ट्रुमेंट्स) तथा शस्त्रकर्म के समय एवं बाद में आवश्यक रुई, वस्त्र, पट्टी, घृत, तेल, क्वाथ, लेप आदि की तैयारी और शुद्धि। वास्तविक शस्त्रकर्म को प्रधान कर्म कहते हैं। शस्त्रकर्म के बाद शोधन, रोहण, रोपण, त्वक्स्थापन, सवर्णीकरण, रोमजनन आदि उपाय पश्चात्कर्म हैं।

शस्त्रसाध्य तथा अन्य अनेक रोगों में क्षार या अग्निप्रयोग के द्वारा भी चिकित्सा की जा सकती है। रक्त निकालने के लिए जोंक, सींगी, तुंबी, प्रच्छान तथा शिरावेध का प्रयोग होता है।

मानस रोग
मन भी आयु का उपादान है। मन के पूर्वोक्त रज और तम इन दो दोषों से दूषित होने पर मानसिक संतुलन बिगड़ने का इंद्रियों और शरीर पर भी प्रभाव पड़ता है। शरीर और इंद्रियों के स्वस्थ होने पर भी मनोदोष से मनुष्य के जीवन में अस्तव्यस्तता आने से आयु का ह्रास होता है। उसकी चिकित्सा के लिए मन के शरीराश्रित होने से शारीरिक शुद्धि आदि के साथ ज्ञान, विज्ञान, संयम, मनःसमाधि, हर्षण, आश्वासन आदि मानस उपचार करना चाहिए। मन को क्षोभक आहार-विहार आदि से बचना चाहिए तथा मानस-रोग-विशेषज्ञों से उपचार कराना चाहिए।

इंद्रियां - ये आयुर्वेद में भौतिक मानी गई हैं। ये शरीराश्रित तथा मनोनियंत्रित होती हैं। अत: शरीर और मन के आधार पर ही इनके रोगों की चिकित्सा की जाती है।

आत्मा को पहले ही निर्विकार बताया गया है। उसके साधनों (मन और इंद्रियों) तथा आधार (शरीर) में विकार होने पर इन सबकी संचालक आत्मा में विकार का हमें आभास मात्र होता है। किंतु पूर्वकृत अशुभ कर्मों परिणामस्वरूप आत्मा को भी विविध योनियों में जन्मग्रहण आदि भवबंधनरूपी रोग से बचाने के लिए, इसके प्रधान उपकरण मन को शुद्ध करने के लिए, सत्संगति, ज्ञान, वैराग्य, धर्मशास्त्रचिंतन, व्रत, उपवास आदि करना चाहिए। इनसे तथा यम-नियम आदि योगाभ्यास द्वारा स्मृति (तत्वज्ञान) की उत्पत्ति होने से कर्मसंन्यास द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसे नैष्ठिकी चिकित्सा कहते हैं। क्योंकि संसार द्वंद्वमय है, जहाँ सुख है वहाँ दु:ख भी है, अत: आत्यंतिक (सतत) सुख तो द्वंद्वमुक्त होने पर ही मिलता है और उसी को कहते हैं मोक्ष।

अष्टाङ्ग वैद्यक : आयुर्वेद के आठ विभाग
विस्तृत विवेचन, विशेष चिकित्सा तथा सुगमता आदि के लिए आयुर्वेद को आठ भागों (अष्टांग वैद्यक) में विभक्त किया गया है :ये आठ अंग ये हैं-

कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण।
कायचिकित्सा
इसमें सामान्य रूप से औषधिप्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। प्रधानत: ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा इसके अंतर्गत आती है। शास्त्रकार ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है-

कायचिकित्सानाम सर्वांगसंश्रितानांव्याधीनां ज्वररक्तपित्त-
शोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम्। (सुश्रुत संहिता १.३)
शल्यतंत्र
मुख्य लेख: शल्यतंत्र
विविध प्रकार के शल्यों को निकालने की विधि एवं अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्र आदि के प्रयोग द्वारा संपादित चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहते हैं। किसी व्रण में से तृण के हिस्से, लकड़ी के टुकड़े, पत्थर के टुकड़े, धूल, लोहे के खंड, हड्डी, बाल, नाखून, शल्य, अशुद्ध रक्त, पूय, मृतभ्रूण आदि को निकालना तथा यंत्रों एवं शस्त्रों के प्रयोग एवं व्रणों के निदान, तथा उसकी चिकित्सा आदि का समावेश शल्ययंत्र के अंतर्गत किया गया है।

शल्यंनाम विविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्ठस्थिवालनखपूयास्रावद्रष्ट्व्राणां-
तर्गर्भशल्योद्वरणार्थ यंत्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधान्व्राण विनिश्चयार्थच। (सु.सू. १.१)।
शालाक्यतंत्र
मुख्य लेख: शालाक्य
गले के ऊपर के अंगों की चिकित्सा में बहुधा 'शलाका' सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों का प्रयोग होने से इसे शालाक्यतंत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रधानतः मुख, नासिका, नेत्र, कर्ण आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा आती है।

शालाक्यं नामऊर्ध्वजन्तुगतानां श्रवण नयन वदन घ्राणादि संश्रितानां व्याधीनामुपशमनार्थम्। (सु.सू. १.२)।
कौमारभृत्य
मुख्य लेख: कौमारभृत्य
बच्चों, स्त्रियों विशेषतः गर्भिणी स्त्रियों और विशेष स्त्रीरोग के साथ गर्भविज्ञान का वर्णन इस तंत्र में है।

कौमारभृत्यं नाम कुमारभरण धात्रीक्षीरदोषश् संशोधनार्थं
दुष्टस्तन्यग्रहसमुत्थानां च व्याधीनामुपशमनार्थम्॥ (सु.सू. १.५)।
अगदतंत्र
मुख्य लेख: अगदतंत्र
इसमें विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन है।

अगदतंत्रं नाम सर्पकीटलतामषिकादिदष्टविष व्यंजनार्थं
विविधविषसंयोगोपशमनार्थं च॥ (सु.सू. १.६)।
भूतविद्या
इसमें देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्न हुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन है।

भूतविद्यानाम देवासुरगंधर्वयक्षरक्ष: पितृपिशाचनागग्रहमुपसृष्ट
चेतसांशान्तिकर्म वलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम्॥ (सु.सू. १.४)।
रसायनतंत्र
चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय इस तंत्र में वर्णित हैं।

रसायनतंत्र नाम वय: स्थापनमायुमेधावलकरं रोगापहरणसमर्थं च। (सु.सू. १.७)।
वाजीकरण
मुख्य लेख: वाजीकरण
शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन इसके अंतर्गत आते हैं।

वाजीकरणतंत्रं नाम अल्पदुष्ट क्षीणविशुष्करेतसामाप्यायन
प्रसादोपचय जनननिमित्तं प्रहर्षं जननार्थंच। (सु.सू. १.८)।
वर्तमान समय में आयुर्वेद का शिक्षण-प्रशिक्षण के विषय
इन्हें भ देखें- बैचलर ऑफ आयुर्वेद मेडिसिन एंड सर्जरी

वर्तमान में आयुर्वेद में शिक्षण एवं प्रशिक्षण के विकास के कारण अब इसे विशिष्ट शाखाओं में विकसित किया गया है। वे हैः-

(1) आयुर्वेद सिद्धांत (फंडामेंटल प्रिंसीपल्स ऑफ आयुर्वेद)

(2) आयुर्वेद संहिता

(3) रचना शारीर (एनाटमी)

(4) क्रिया शारीर (फिजियोलॉजी)

(5) द्रव्यगुण विज्ञान (मैटिरिया मेडिका एंड फार्माकॉलाजी)

(6) रस शास्त्र (इंटर्नल मेडिसिन)

(12) रोग निदान (पैथोलॉजी)

(13) शल्य तंत्र (सर्जरी)

(14) शालाक्य तंत्र (आई. एवं ई.एन.टी.)

(15) मनोरोग (साईकियाट्री)

(16) पंचकर्म

आयुर्वेद सम्बन्धी शोध
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार का ध्यान आयुर्वेदिक सिद्धांत एवं चिकित्सा संबंधी शोध की ओर आकर्षित हुआ। फलस्वरूप इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं और एकाधिक शोधपरिषदों एवं संस्थानों की स्थापना की गई है जिनमें से प्रमुख ये है :

भारतीय चिकित्सापद्धति एवं होम्योपैथी की केंद्रीय अनुसंधान परिषद्
सेंट्रल कौंसिल फॉर रिसर्च इन इंडियन मेडिसिन ऐंड होम्योपैथी नामक इस स्वायत्तशासी केंद्रीय अनुसंधान परिषद् की स्थापना का बिल भारत सरकार ने २२ मई १९६९ की लोकसभा में पारित किया था। इसका मुख्य उद्देश्य आयुर्वेदिक चिकित्सा के सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक पहलुओं के विभिन्न पक्षों पर अनुसंधान के सूत्रपात को निदेशित, प्रोन्नत, संवर्धित तथा विकसित करना है। इस संस्था के प्रधान कार्य एवं उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

(१) भारतीय चिकित्सा (आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी, योग एवं होम्योपैथी) पद्धति से संबंधित अनुसंधान को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करना।
(२) रोगनिवारक एवं रोगोत्पादक हेतुओं से संबंधित तथ्यों का अनुशीलन एवं तत्संबंधी अनुसंधान में सहयोग प्रदान करना, ज्ञानसंवर्धन एवं प्रायोगिक विधि में वृद्धि करना।
(३) भारतीय चिकित्साप्रणाली, होम्योपैथी तथा योग के विभिन्न सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पहलुओं में वैज्ञानिक अनुसंधान का सूत्रपात, संवर्धन एवं सामंजस्य स्थापित करना।
(४) केंद्रीय परिषद् के समान उद्देश्य रखनेवाली अन्य संस्थाओं, मंडलियों एवं परिषदों के साथ विशेषकर पूर्वांचल प्रदेशीय व्याधियों और खासकर भारत में उत्पन्न होनेवाली व्याधियों से संबंधित विशिष्ट अध्ययन एवं पर्यवेक्षण संबंधी विचारों का आदान प्रदान करना।
(५) केंद्रीय परिषद् एवं आयुर्वेदीय वाङमय के उत्कर्ष पत्रों आद का मुद्रण, प्रकाशन एवं प्रदर्शन करना।
(६) केंद्रीय परिषद् के उद्देश्यों के उत्कर्ष निमित्त पुरस्कार प्रदान करना तथा छात्रवृत्ति स्वीकृत करना। छात्रों को यात्रा हेतु धनराशि की स्वीकृति देना भी इसमें सम्मिलित है।
केन्द्रीय अनुसंधान संस्थान (सेंट्रल रिसर्च इंस्टिट्यूट)
आतुरालयों, प्रयोगशालाओं, आयुर्विज्ञान के आधारभूत सिद्धांतों एवं प्रायोगिक समस्याओं पर बृहद् रूप से शोध कर रहा है। इसके प्रधान उद्देश्य निम्नलिखित हैं :[15]

१. रोगनिवारण एवं उन्मूलन हेतु अच्छी, सस्ती तथा प्रभावकारी औषधियों का पता लगाना।
२. विभिन्न केंद्रों (केंद्रीय परिषद् के) में संलग्न कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण संबंधी सुविधाएँ प्रदान करना।
३. विभिन्न व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा "रोगनिवारण' के दावों का मूल्याँकन करना।
४. आयुर्वेदीयविज्ञान के सिद्धांतों का संवर्धन करना।
५. आधुनिक चिकित्साविज्ञान के दृष्टिकोण से आयुर्वेदीय सिद्धांतों की पुनर्व्याख्या करना।
६. विभिन्न नैदानिक पहलुओं पर अनुसंधान करना।
उपर्युक्त संस्थान के साथ (१) औषधीय वनस्पति सर्वेक्षण इकाइयाँ (सर्वे ऑफ मेडिसिनल प्लांट्स यूनिट्स), (२) तथ्यनिष्कासन चल नैदानिक अनुसंधान इकाइयाँ

इसके अतिरिक्त केंद्रीय संस्थान निम्न स्थानों पर कार्य कर रहे हैं :

आयुर्वेद : केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, चेरूथरुथी, केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, पटियाला।

सिद्ध : केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, मद्रास।

यूनानी : केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद।

होम्योपैथी : केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, कलकत्ता।

क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान (रीजनल रिसर्च इंस्टिट्यूट)
इस संस्थान का कार्य भी प्राय: केंद्रीय अनंसधान संस्थान के समान ही है। ऐसे संस्थानों के साथ २५ शय्यावाले आतुरालय भी संबद्ध हैं। भुवनेश्वर, जयपुर, योगेंद्रनगर तथा कलकत्ता में क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र स्थापित किए गए हैं। इन संस्थानों के साथ भी (१) औषधीय वनस्पति सर्वेक्षण इकाइयाँ, (२) तथ्यनिष्कासन चल नैदानिक अनुसंधान इकाइयाँ तथा (३) नैदानिक अनुसंधान इकाइयाँ संबद्ध हैं।

औषधीय वनस्पति सर्वेक्षण इकाई के उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

१. आयुर्वेदीय वनस्पतियों के (जिनका विभिन्न आयुर्वेदीय संहिताओं में उल्लेख है) क्षेत्र का विस्तार एवं परिमाण का अनुमान।
२. विभिन्न औषधियों का संग्रह करना।
३. विभिन्न इकाइयों (अनसंधान) में जाँच हेतु हरे पौधों, बीज एवं अन्य औषधियों में प्रयुक्त होनेवाले भाग का प्रचुर परिमाण में संग्रह करना आदि।
४. इसके अतिरिक्त आयुर्वेदिक औषधि उद्योग में प्रयुक्त होनेवाले द्रव्य, अन्य सुंदर तथा आकर्षक पौधे, विभिन्न जंगली द्रव्यों एवं अलभ्य पौधों और द्रव्यों के संबंध में छानबीन करना।
मिश्रित भेषज अनुसंधन योजना (कंपोज़िट ड्रग रिसर्च स्कीम)
इस योजना के अंतर्गत कुछ आधुनिक प्रयोग में आई नवीन औषधियों का अध्ययन प्राथमिक रूस से किया जा रहा है। विभिन्न दृष्टिकोणों को लेकर अर्थात् नैदानिक, क्रियाशीलता संबंधी, रासायनिक तथा संघटनात्मक अध्ययन इसके क्षेत्र में सम्मिलित किए गए हैं।

वाङमय अनुसंधान इकाई (लिटरेरी रिसर्च यूनिट)
आयुर्वेद के बिखरे एवं नष्टप्राय वाङमय को विभिन्न निजी एवं सार्वजनिक पुस्तकालयों के सर्वेक्षण द्वारा संकलित करना इस इकाई का काम है। प्राचीन काल में तालपत्र, भोजपत्र आदि पर लिखे आयुर्वेद के अमूल्य रत्नों का संकलन एवं संवर्धन भी इसके प्रमुख उद्देश्य में से एक हैं।

चिकित्साशास्त्र के इतिहास का संस्थान (इंस्टिट्यूट ऑव हिस्टरी ऑव मेडिसिन)
यह संस्थान हैदराबाद में स्थित है। इसका मुख्य उद्देश्य युगानुरूप आयुर्वेद के इतिहास का प्रारूप तैयार करना है। प्रागैतिहासिक युग से आधुनिक युगपर्यंत आयुर्वेद की प्रगति एवं ह्रास का अध्ययन ही इसका कार्य है।


आयुर्वेद – इतिहास, नियम, प्रभाव, संपूर्ण जानकारी
आयुर्वेद का इतिहास
पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचना काल ५,००० से लाखों वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थकार आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है। अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद का रचनाकाल ईसा पूर्व ३,००० से ५०,००० वर्ष पहले का है।
इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वन्तरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक।


आयुर्वेद का अवतरण
चरक मतानुसार (आत्रेय सम्प्रदाय)
चरक मत के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भरद्वाज ने प्राप्त किया। च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास मे ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है।
सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)
सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत जब आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वंतरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार धन्वंतरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे अश्विनीकुमार द्वय तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया।
आयुर्वेद का काल-विभाजन
आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -
संहिताकाल
संहिताकाल का समय ५वीं शती ई.पू. से ६वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि-चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी सं हिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से काययिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्र मुख विशेषता है।
व्याख्याकाल
इसका समय ७वीं शती से लेकर १५वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हड़ की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है।
शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है।
विवृतिकाल
इस काल का समय १४वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है।
स्पष्ट है कि आयुर्वेद की प्राचीनता वेदों के काल से ही सिद्ध है। आधुनिक चिकित्सापद्धति में सामाजिक चिकित्सा पद्धति को एक नई विचारधरा माना जाता है, परन्तु यह कोई नई विचारधारा नहीं अपितु यह उसकी पुनरावृत्ति मात्र है, जिसका उल्लेख 2500 वर्षों से भी पहले आयुर्वेद में किया गया है।
वेदों में आयुर्वेद
वेद प्राचीन काल से ही मानव-सभ्यता के प्रकाश-स्तम्भ रहे हैं। वेद की परम्परा में रुद्र को प्रथम वैद्य स्वीकार किया गया है। ‘यजुर्वेद’ में कहा गया है कि 'प्रथमो दैव्यों भिषक'।तथा इसी प्रकार ऋग्वेद में भी उल्लिखित है कि ‘भिषक्तमं त्वां भिषजां शृणोमि'। और आयुर्वेद ग्रन्थो की परम्परा में ब्रह्मा आयुर्वेद का प्रथम उपदेष्टा है।
वेदों में अश्विनों और रुद्रदेवता के अतिरिक्त अग्नि, वरुण, इन्द्र, अप् तथा मरुत् को भी 'भिषक्' शब्द से अभिनिहित किया गया है। परन्तु मुख्य रूप से इस शब्द का सम्बन्ध रुद्र और अश्विनौ के साथ ही है। अतः वेद आयुर्वेदशास्त्र के लिए एक महत्त्वपूर्ण संकेतक तथा स्रोत हैं।
ऋग्वेद में आयुर्वेद
आयुर्वेद के महत्वपूर्ण तथ्यों का वर्णन ऋग्वेद में उपलब्ध है। ऋग्वेद में आयुर्वेद का उद्देश्य, वैद्य के गुण-कर्म, विविध औषधियों के लाभ तथा शरीर के अंग और अग्निचिकित्सा, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, विषचिकित्सा, वशीकरण आदि का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। ऋग्वेद में 67 औषधियों का उल्लेख मिलता हैं। अतः आयुर्वेद की दृष्टि से ऋग्वेद बहुत उपयोगी है।
यजुर्वेद में आयुर्वेद
यजुर्वेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित निम्नांकित विषयों का वर्णन प्राप्त होता है : विभिन्न औषधियों के नाम, शरीर के विभिन्न अंग, वैद्यक गुण-कर्म चिकित्सा, नीरोगता, तेज वर्चस् आदि। इसमें 82 औषधियों का उल्लेख दिया गया है।
सामवेद में आयुर्वेद
आयुर्वेद के अध्ययन के रूप में सामवेद का योगदान कम है। इसमें मुख्यतया आयुर्वेद से सम्बन्धित कुछ मन्त्रा में वैद्य, तथा अत्यल्प रोगों की चिकित्सा का वर्णन प्राप्त होता है।
अथर्ववेद में आयुर्वेद
आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें आयुर्वेद के प्रायः सभी अंगों एवं उपांगों का विस्तृत विवरण मिलता है। अथर्ववेद ही आयुर्वेद का मूल आधार है। अथर्ववेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित विभिन्न विषयों का वर्णन उपलब्ध है जिनमें से मुख्य है- ‘वैद्य के गुण, कर्म या भिषज, भैषज्य, दीर्घायुष्य, बाजीकरण, रोगनाशक विभिन्न मणियां, प्राणचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, वशीकरण, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा तथा विविध औषधियों के नाम, गुण, कर्म आदि।
आयुर्वेद को अर्थवेद में 'भेषज' या 'भिषग्वेद' नाम से जाना जाता है।गोपथ ब्राह्मण में भी अथर्ववेद के मंत्रों को आयुर्वेद से सम्बन्धित बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में प्राण को 'अथर्वा' कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि प्राणविद्या या जीवनविद्या आथर्वण विद्या ही है।गोपथ ब्राह्मण के अनुसार ‘‘अंगिरस् का सीधा सम्बन्ध आयुर्वेद तथा शरीर विज्ञान से है। अंगों के रसों अर्थात तत्त्वों का वर्णन जिसमें प्राप्त होता है वह अंगिरस् कहा जाता है। अंगों से जो रस निकलता है वह अंगरस है और उसी को अंगिरस् कहा जाता है।अथर्ववेद को वैदिक जगत् में क्षत्रवेद, ब्रह्मवेद, भिषग्वेद तथा अर्घिंरोवेद इत्यदि नामों से भी जाना जाता है।
स्पष्ट है कि वेदों में आयुर्वेद से सम्बन्धित सैकड़ों मन्त्रों का वर्णन है, जिसमें विभिन्न रोगों की चिकित्सा का उल्लेख है। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद - इन चारों वेदों में अथर्ववेद को ही आयुर्वेद की आत्मा माना गया है। अथर्ववेद में स्वस्त्ययन मंगलकर्म, उपवास, बलिदान, होम, नियम, प्रायश्चित और मन्त्र आदि से भी चिकित्सा करने को कहा गया है। अथर्ववेद में सर्वाधिक 289 औषधियों का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि आयुर्विषययक औषधियों का विस्तृत विवरण अथर्ववेद में ही पाया जाता है।
आयुर्वेद ग्रन्थ एवं उनके रचनाकार
आयुर्वेद के मूल ग्रन्थों में काश्यप संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भेलसंहिता तथा भारद्वाज संहिता में से काश्यप संहिता को अति प्राचीन माना गया है। इसमें महर्षि कश्यप ने शंका समाधान की शैली में दुःखात्मक रोग, उनके निदान, रोगों का पश्रिहार तथा रोग परिहार के साधन (औषध) इन चारों विषयों का भी प्रकार प्रतिपादन किया गया है। इसके पश्चात जीवक ने काश्यप संहिता को संक्षिप्त कर ‘वृद्ध जीवकीय तंत्र‘ नाम से प्रकाशित है। इसके ८ भाग हैं-
1. कौमार भृत्य, 2. शल्य क्रिया प्रधान शल्य, 3. शालाक्य, 4. वाजीकरण,
5. प्रधार रसायन, 6. शारीरिक-मानसिक चिकित्सा, 7. विष प्रशमन तथा 8. भूत विद्या।
इसी से यह ‘अष्टांग आयुर्वेद' कहताला है। पुनः इन विषयों को प्रतिपादन के अनुसार आठ स्थानों में विभक्त किया गया। इनमंव सूत्र स्थान में 30, निदान स्थान में 12, चिकित्सा स्थान में 30, सिद्धि में 12, कल्प स्थान में 12, तथा खिल स्थान/भाग में 80 अध्याय है। इस प्रकार आचार्य जीवक ने कुल 200 अध्यायों में वृद्ध जीवकीय तंत्र को संग्रहीत कर आर्युविज्ञान का प्रचार प्रसार किया। वृद्ध जीवकीय तंत्र नेपाल के राजकीय पुस्तकालय में उपलब्ध है।
ईसा पूर्व 2350-1200 के लगभग शालिहोत्र नामक अश्व विशेषज्ञ हुए है जिन्हें पशु चिकित्सा का ज्ञान था। इन्होने हेय आयुर्वेद, अश्व प्राशन तथा अश्व लक्षण शास्त्र की रचना की। इसे ‘शालिहोत्र संहिता‘ भी कहा जाता है। इसमें 12000 श्लोक है। इन्हें विश्व का प्रथम पशु चिकित्सक माना जाता है।
मुनि पालकाप्य का काल 1800 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है जिन्हें विशाल ग्रन्थ 'हस्ति आयुर्वेद' की रचना की थी। इसमें चार खण्ड तथा 152 अध्याय है। महाभारत काल में आयुर्वेद अपने चरम पर माना गया है। यह काल 1000 से 900 वर्ष ईसा से पूर्व का माना जाता है। इस समय में नकुल, अश्व चिकित्सा तथा सहदेव गोचिकित्सा के विशेषज्ञ थे। इस काल में विभिन्न प्रकार की औषधियों से घायल सैनिकों के उपचार का वर्णन मिलता है।
चरक संहिता के रचियता महर्षि चरक, महर्षि आत्रेय, महामेघा, अग्निवेश तथा दृढबल रहे है मगर महर्षि चरक का नाम विशेष रूप से प्रतिष्ठित हो गया। ये संहिताकार ऋषि एक उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे। महर्षि चरक ने वनस्पतिजन्य विभिन्न दवाओं के निर्माण एवं उन्हें लिपिवद्ध करने के अतिरिक्त उनका घूम-घूमकर प्रचार-प्रसार भी किया। इसी कल्याकारी विचरण क्रिया से उनका नाम चरक विश्व प्रसिद्ध हो गया। चरक संहिता के अध्ययन से पूरी जीवन शैली आहार चर्या ऋतु चर्या, रात्रि चर्या आदि का सम्यक ज्ञान हो जाता है तथा तदनुसार यदि व्यक्ति अनुसारण करे तो वह सदा निरोग रह सकता है। यह काल गुप्त वंश के शासन काल का रहा है व सन् 300 से 500 ई0 के बीच का है।
आचार्य सुश्रुत प्राचीन काल के एक उच्च कोटि के आयुर्वेदाचार्य एवं शल्य चिकित्सक थे। सुश्रत महर्षि विश्वामित्र के पुत्र थे तथा इन्होने धन्वन्तरि से शल्य-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। ऐसा विश्वास है कि पृथ्वी पर शल्य तन्त्र के जनक यही सुश्रुत है। इन्होने भी एक ग्रन्थ की रचना की जिसका शीर्षक ‘सुश्रुत संहिता‘ रखा। इस पुस्तक में 5 अध्याय हैं जिनमें सूत्र स्थान, निदान स्थान, शरीर स्थान, चिकित्सा स्थान तथा कल्प स्थान आदि शामिल है। सुश्रुत के अनुसार मन एवं शरीर को पीड़ित करने वाली वस्तु को 'शल्य' कहा जाता है। तथा इस शल्य को निकालने के साधन 'यंत्र' कहलाते है। आयार्य सुश्रुत ने अपने इस ग्रंथ में 100 से भी अधिक शल्य यंत्रों का वर्णन किया है तथा उनके गुणों के विषय में विस्तार से प्रकाश डाला है। आचार्य सुश्रुत आँखों के मोतियाबिन्द की शल्य क्रिया के विशेषज्ञ थे। यदि माता के गर्भ से शिशु योनि मार्ग से न आता हो तो गर्भस्थ शिशु को शल्य क्रिया द्वारा माता के गर्भ से सुरक्षित निकालने की कई विधियों सुश्रुत अच्छी तरह जानते थे। आजकल जिन यंत्रों का उपयोग शल्य क्रिया में होता है उनमें से अधिकांश यंत्रों का वर्णन सुश्रुत संहिता में मिलता है। आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है। आयुर्वेद तथा शल्य-चिकित्सा शास्त्र के आचार्य गणों का जगत पर महान उपकार है। इनके नाम इस प्रकार है।
ब्रहमा  --  आचार्य सिद्ध नागार्जुन
दक्ष प्रजापति  --  आचार्य क्षारपाणि
भगवान भाष्कर  --  आचार्य निमि
अश्वनी कुमार  --  आचार्य भद्रशौनक
इन्द्र  --  आचार्य काकांयन
महर्षि कश्यप  --  आचार्य गार्म्य
महर्षि अत्रि  --  आचार्य गालव
महर्षि भृगु  --  आचार्य सात्यकि महर्षि अंगिरा  --  आचार्य औषधेनव
महर्षि वरिष्ठ  --  आचार्य सौरभ
महर्षि अगस्त्य  --  आचार्य पौठक लावत
महर्षि पुलस्त्य  --  आचार्य करवीर्य
ऋषि वाम देव  --  आचार्य गोपरु रंक्षित
ऋषि गौतम  --  आचार्य वैतरण
ऋषि असित  --  आचार्य भोज
ऋषि भरद्वाज  --  आचार्य भालुकी आचार्य धन्वन्तरि  --  आचार्य दारूक
आचार्य पुनर्वसु आत्रेय  --  आचार्य कौमार भृत्य
आचार्य अग्निवेश  --  आचार्य जीवक
आचार्य भेल  --  आचार्य काश्यप
आचार्य जतूकर्ण  --  आचार्य उशना
आचार्य पाराशर  --  वृहस्पति
आचार्य हारीत  --  आचार्य पतजंलि
आयुर्वेद के इतिहास पुरूष जीवक कौमारभच्च का कालखण्ड लगभग 500 वर्ष ई0 पू0 माना जाता है, जब मगध के सम्राट बिम्विसार थे। सम्राट बिम्विसार को भगन्दर हो गया। परन्तु जीवक द्वारा निर्मित औषध के एक ही लेप से सम्राट ने रोग से मुक्ति पा ली। इसी प्रकार जीवक ने नगर सेठ की खोपड़ी का सफल आपरेशन (शल्य क्रिया) कर फिर सी दिया व उसमें से मवाद और कीड़े निकाल दिये। सभवतः यह मस्तिष्क की पहल शल्य क्रिया होगी। जीवक की शल्य चिकित्सा के विषय में और भी प्रमाण मिलते है। उन्होने वाराणसी के नगर सेठ के पेट से आँतों की गाँठों का शल्य क्रिया द्वारा सफल उपचार किया। पेट को चीरकर आँतें बाहर निकाली तथा आँतों के खराब भाग को काटकर फैंक दिया तथा शेष को पुनः सीकर ठीक कर दिया। जीवक ने भगवान बुद्ध का भी उपचार किया था।
आयुर्वेद में जिन तीन आचार्यो की गणना मुख्यरूप से होती है उनमें चरक, सुश्रुत के बाद वाग्भट का नाम आता है। इन्होने अष्टांग हृदय ग्रन्थ की रचना की। इनका कालखण्ड छठी सदी का माना जाता है। यह पूरा ग्रन्थ सूत्र स्थान, शरीर स्थान, निदान स्थान, चिकित्सा स्थान, कल्प स्थान तथा उत्तर स्थान आदि में विभक्त है। यह ग्रन्थ आयुर्वेद का सार माना जाता है। आचार्य वाग्भट का कहना है कि इस ग्रन्थ में कोई कपोल कल्पित बात नहीं कही गयी है बल्कि यह ग्रन्थ पूर्वाचार्यों के अभिमतों तथा अनुभव के आधार पर किया गया है। इस ग्रन्थ के पठन-पाठन, मनन एवं प्रयोग करने से निश्चय ही दीर्घ जीवन आरोग्य धर्म, अर्थ, सुख तथा यश की प्राप्ति होती है।
आचार्य माधव ने एक विशिष्ट ग्रन्थ का लेखन किया जिसका नाम ‘रोग विनिश्चय‘ रखा। यह ग्रन्थ माधव निदान के नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य माधव ने रोग ज्ञान के पाँच साधन बताये है। निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय तथा सम्प्राप्ति। आचार्य माधव का समय छठी सदी के अन्त का बताया जाता है। आचार्य माधव ने अतिसार, पाण्डुरोग, क्षय रोग आदि का विस्तृत वर्णन किया है। आचार्य शार्ङ्गधर को नाड़ी शास्त्र का विशेषज्ञ माना गया है। इन्होने 13 वीं - 14वीं सदी के दौरान दो ग्रन्थों ‘शार्ङ्गधर संहिता' तथा 'शार्ङ्गधर पद्धति‘ की रचना की। आचार्य हाथ में कच्चे धागे के सूत्र के एक सिरे को बांधकर दूसरे सिरे को पकड़कर नाड़ी गति का ज्ञान करके रोग एवं रोगों के सम्बन्ध में सब कुछ सत्य-सत्य बना देते थे।
आयुर्वेद की आचार्य परम्परा में श्री भावमिश्र का नाम भी विशेष महत्व रखता है। इन्होने भाव प्रकाश ग्रन्थ की रचना की। इनका कालखण्ड 16वीं सदी का माना गया है। इन्होंने समस्त व्यक्तियों को दो भागों में विभक्ति किया- (1) कर्मज अर्थात जो दुष्कर्म के पश्रिणामस्वरूप फलित होती है तथा भोग/प्रायश्चित से उनका विनाश होता है। (2) इसके विपरीत दूसरे प्रकार की दोषज व्यधियाँ हैं जो मिथ्या आहार-विहार करने से कुपित हुए बात, पित्त एवं कफ से होती है।
सोलहवीं शताब्दी में रचित ‘वैद्यचिन्तामणि‘ का आयुर्वेद में विशेष रूप से आन्ध्र प्रदेश में। क्योंकि यह आचार्य बल्लभाचार्य द्वारा तेलगु लिपि में लिखी गयी है। यह ग्रन्थ 26 भागों में विभक्त है। मंगलाचारण के बाद पंच निदान के साथ-साथ अष्ट स्थान परीक्षा का विवरण है जिसमें पहले नाड़ी परीक्षा है। नाड़ी का जितना विस्तार से वर्णन यहीं मिलता है उतना अन्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में शायद नहीं मिलता। हाथ के साथ-साथ पाँव के मूल नाड़ी परीक्षा, स्त्रियों के बायें तथा पुरूषों के दांये हाथ की नाड़ी परीक्षा का विधान बताया गया है। प्रत्येक रोग की चिकित्सा के लिए चूर्ण, कषाय, वटी, अवलेह, घृत, तेल, अर्जन तथा धूम का उल्लेख है। ग्रन्थ के तेइस भागों में विभिन्न प्रकार के रोगों को वर्णन है व क्षय रोग के उपचार का विस्तृत उल्लेख मिलता है।
वैद्य लोलिम्बराज का समय 17वीं शताब्दी के पूर्वार्थ का माना गया है। इन्होने 'वैद्य जीवन' नामक शास्त्र की रचना की। लोलिम्बराज कवित्व सम्पन्न व्यक्ति थे। उन्होने वैद्य-जीवन पाँच भागों में विभक्त है इसमें ज्वर, ज्वरातिसार, ग्रहणी, कास-श्वास, आमवात, कामला, स्तन्यदुष्टि, प्रदर, क्षय, व्रण, अम्लपित्त, प्रमेह आदि रोगों तथा वाजीकरण और विविध रसायनों का उल्लेख है। वैद्य लोलिम्बराज रोगी के लिए पथ्य सेवन अतिहितकर बताते हुए कहते हैं कि रोगी यदि पथ्य सेवन से रहे तो उसे औषध सेवन से क्या प्रयोजन।
धनुर्विद्या
किसी निश्चित लक्ष्य पर धनुष की सहायता से बाण चलाने की कला को धनुर्विद्या (Archery) कहते हैं। विधिवत् युद्ध का यह सबसे प्राचीन तरीका माना जाता है। धनुर्विद्या का जन्मस्थान अनुमान का विषय है, लेकिन ऐतिहासिक सूत्रों से सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग पूर्व देशों में बहुत प्राचीन काल में होता था। संभवत: भारत से ही यह विद्या ईरान होतेggg हुए यूनान और अरब देशों में पहुँची थी। fax no
इतिहास
भारतीय सैन्य विज्ञान का नाम धनुर्वेद होना सिद्ध करता है कि वैदिककाल से ही प्राचीन भारत में धनुर्विद्या प्रतिष्ठित थी। संहिताओं और ब्राह्मणों में वज्र के साथ ही धनुष बाण का भी उल्लेख मिलता है। कौशीतकि ब्राह्मण में लिखा है कि धनुर्धर की यात्रा धनुष के कारण सकुशल और निरापद होती है। जो धनुर्धर शास्त्रोक्त विधि से बाण का प्रयोग करता है, वह बड़ा यशस्वी होता है। भीष्म ने छह हाथ लंबे धनुष का प्रयोग किया था। रघुवंश में राम और लक्ष्मण के धनुषों के टंकार का वर्णन और अभिज्ञानशाकुंतलम् में दुष्यंत के युद्धकौशल का वर्णन सिद्ध करता है कि कालिदास को धनुर्विद्या की अच्छी जानकारी थी। भारत के पुराणकालीन इतिहास में धनुर्विद्या के प्रताप से अर्जित विजयों के लिए राम और अर्जुन का नाम सदा आदर से लिया जाएगा। विलसन महोदय का कथन सच है कि हिंदुओं ने बहुत ही परिश्रम और अध्यवसाय पूर्वक धनुर्विद्या का विकास किया था और वे घोड़े पर सवार होकर बाण चलाने से सिद्धहस्त थे।
धनुषबाण की एक विशेषता यह थी कि इसका उपयोग चतुरंगिणी सेना के चारों अंग कर सकते थे। भारत में धनुष की डोरी जहाँ कान तक खींची जाती थी वहाँ यूनान में सीने तक ही खींची जाती थी।
अग्निपुराण में धनुर्विद्या की तकनीकी बारीकियों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। बाएँ हाथ में धनुष और दाएँ हाथ में बाण लेकर, बाण के पंखदार सिरे को डोरी पर रखकर ऐसा लपेटना चाहिए कि धनुष की डोरी और दंड के बीच बहुत थोड़ा अवकाश रह जाए। फिर डोरी को कान तक सीधी रेखा से अधिक खींचना चाहिए। बाण छोड़ते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। किसी वस्तु विशेष पर बाण का लक्ष्य करते समय त्रिकोणात्मक स्थिति में खड़े रहना चाहिए। धनुर्विज्ञान में इसके अतिरिक्त अन्य स्थितियों का भी उल्लेख है, जो निम्नलिखित हैं :
(क) समपद या खड़ी स्थिति, में पैर, हथेली, पिंडली और हाथ के अँगूठे एक दूसरे से घने सटे रहते हें।
(ख) वैशाख स्थिति में पंजों के बल खड़ा रहा जाता है, जाँघे स्थिर रहती हैं और दोनों पैरों के बीच थोड़ी दूरी रहती है।
(ग) मंडल में वृत्ताकार या अर्धवृत्ताकार स्थिति में खड़ा रहा जाता है। इस स्थिति में वैशाख स्थिति की अपेक्षा पैरों में अधिक अंतर रहता है।
(घ) आलीढ़ स्थिति में दाईं जाँघ और घुटने को स्थिर रखकर बाएँ पैर को पीछे खींच लिया जाता है।
(ङ) प्रत्यालीढ़ उपर्युक्त स्थिति से विपरीत स्थिति है।
(च) स्थानम् में अंगुलियों के बराबर स्थान घेरा जाता है, अधिक नहीं।
(छ) निश्चल स्थिति में बाएँ घुटने को सीधा रखा जाता है और दाएँ घुटने को मुड़ा हुआ।
(ज) विकट स्थिति में दायाँ पैर सीधा रहता है।
(झ) संपुट में दोनो टाँगें उठी हुई और घुटने मुड़े होते हैं।
(ञ) स्वस्तिक स्थिति में दोनों टाँगें सीधी फैली होती हैं और पैर के पंजे बाहर की ओर निकले होते हैं।
बाण चलाते समय धनुष को लगभग खड़ी स्थिति में पकड़ते हैं, जैसा आज भी होता है और तदनुसार ही अंग को ऊपरी या निचला
तीर यदि टागेंट के केंद्र से नीचे बेघता है, तो लक्ष्यविंदु टार्गेट की ओर और वह यदि केद्र से ऊपर पड़ता है, तो लक्ष्यविंदु धनुर्धारी की ओर खिसकना चाहिए। धनुष के सिरों पर सींग या लकड़ी से अधिक मजबूत और टिकाऊ किसी अन्य पदार्थ को जड़कर, सिरों को दृढ़ बनाया जात हा है। डोरी को मजबूती से चढ़ाने के लिए सिरों पर खाँचा होता है। बाण को छोड़ने से पहले उस प्रत्यंचा पर रखकर साधने के लिए बाण पर भी खाँचा बना रहता है। प्रत्यंचा खींचते समय धनुष की पीठ उत्तल और पेट अवतल होता है। धनुष के मध्यभाग में, जो दृढ़ होता है और मोड़ा नहीं जा सकता, धनुष की मूठ होती है। मूठ के ठीक ऊपर एक ओर अस्थि, सीग या हाथीदाँत की बाणपट्टिका जड़ी होती है। बाण को पीछे की ओर तानने पर पट्टिका पर बाण फिसलता है और बाण को छोड़ने से पहले इसी पर उसका सिरा स्थिर होता है। प्रत्यंचा के दोनों सिरों पर फंदे होते हैं, जिनसे वह दोनों सिरों पर दृढ़ता से आबद्ध होती है। निर्मुक्त धनुष को मोड़कर, फंदे को ऊपर सरकाकर, ऊपरी खाँचे में गिराने की क्रिया को धनुष कसना कहते हैं। धनुष को प्राय: इतनी लंबी डोरी से कसते हैं कि कसने की ऊँचाई, यानी डोरी से मूठ के भीतरी भाग तक की दूरी, धनुर्धर के खुले अँगूठे सहित मुट्ठी के बराबर हो। धनुर्धर के डीलडौल पर निर्भर यह दूरी छह और सात इंच के बीच होती है। जिस समय धनुष का उपयोग नहीं करना होता है उस समय इसकी विपरीत क्रिया करके धनुष को ढीला कर देते हैं और इस प्रकार उपयोग के समय ही धनुष तनाव की स्थिति में रहता है।
नीतिप्रकाशिका में धनुष की निम्नलिखित चालों का वर्णन है :
1. लक्ष्यप्रतिसंधान, 2. आकर्षण, 3. विकर्षण, 4. पर्याकर्षण, 5. अनुकर्षण, 6. मंडलीकरण, 7. पूरण,
8. स्थारण, 9. धूनन, 10. भ्रामण, 11. आसन्नपात, 12. दूरपात, 13. पृष्ठपात तथा 14. मध्यमपात।
परशुराम इस धरती पर ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनकी धनुर्विद्या की कोई पौराणिक मिसाल नहीं है। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य और खुद कर्ण ने भी परशुराम से ही धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी। बेशक इस मामले में कर्ण थोड़े अभागे रहे थे। क्योंकि अंत में परशुराम ने उनसे ब्रह्मास्त्र ज्ञान वापस ले लिया था।
शास्त्रों के अनुसार चार वेद हैं और तरह चार उपवेद हैं। इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद है। दूसरा शिल्प वेद है। तीसरा गंधर्व वेद और चौथा धनुर्वेद है। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है। ये अलग बात है कि अब ये धनुर्वेद अपने मूल स्वरुप में कहीं नहीं है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि धनुर्वेद इस देश से खत्म हो गई है।
वैमानिक शास्त्र
वैमानिक शास्त्र में निरूपित 'शकुन विमान'
'द विमानिक शास्त्र' नाम से सन् १९७३ में प्रकाशित 'वैमानिक शास्त्र' का अंग्रेजी अनुवाद
वैमानिक शास्त्र, संस्कृत पद्य में रचित एक ग्रन्थ है जिसमें विमानों के बारे में जानकारी दी गयी है। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में वर्णित विमान रॉकेट के समान उड़ने वाले प्रगत वायुगतिकीय यान थे।
इस पुस्तक के अस्तित्व की घोषणा सन् 1952 में आर जी जोसयर (G. R. Josyer) द्वारा की गयी। जोसयर ने बताया कि यह ग्रन्थ पण्डित सुब्बाराय शास्त्री (1866–1940) द्वारा रचित है जिन्होने इसे 1918–1923 के बीच बोलकर लिखवाया। इसका एक हिन्दी अनुवाद 1959 में प्रकाशित हुआ जबकि संस्कृत पाठ के साथ अंग्रेजी अनुवाद 1973 में प्रकाशित हुआ।
इसमें कुल ८ अध्याय और 3000 श्लोक हैं। पण्डित सुब्बाराय शास्त्री के अनुसार इस ग्रंथ के मुख्य जनक रामायणकालीन महर्षि भारद्वाज थे।
भारद्वाज ने 'विमान' की परिभाषा इस प्रकार की है-
वेग-संयत् विमानो अण्डजानाम्
( पक्षियों के समान वेग होने के कारण इसे 'विमान' कहते हैं।)


संरचना
वैमानिक शास्त्र में कुल ८ अध्याय और 3000 श्लोक हैं।
अध्याय १
1. मंगलाचरणम्
2. विमानशब्दार्थाधिकरणम्
3. यन्तृत्वाधिकरणम्
4. मार्गाधिकरणम्
5. आवर्ताकरणम्
6. अंकाकरणम्
7. वस्त्राकरणम्
8. आहाराकरणम्
9. कर्माधिकाराधिकरणम्
10. विमानाधिकरणम्
11. जात्याधिकरणम्
12. वर्णाधिकरणम्
अध्याय २
1. संज्ञाधिकरणम्
2. लोहाधिकरणम्
3. संस्काराधिकरणम्
4. दर्पणाधिकरणम्
5. शक्त्यधिकरणम्
6. यन्त्राधिकरणम्
7. तैलाधिकरणम्
8. ओषध्यधिकरणम्
9. घाताधिकरणम्
10. भाराधिकरणम् अध्याय ३
1. भ्रामण्यधिकरणम्
2. कालाधिकरणम्
3. विकल्पाधिकरणम्
4. संस्काराधिकरणम्
5. प्रकाशाधिकरणम्
6. उष्णाधिकरणम्
7. शैत्याधिकरणम्
8. आन्दोलनाधिकरणम्
9. तिर्यन्धाधिकरणम्
10. विश्वतोमुखाधिकरणम्
11. धूमाधिकरणम्
12. प्राणाधिकरणम्
13. सन्ध्यधिकरणम्
अध्याय ४
1. आहाराधिकरणम्
2. लगाधिकरणम्
3. वगाधिकरणम्
4. हगाधिकरणम्
5. लहगाधिकरणम्
6. लवगाधिकरणम्
7. लवहगाधिकरणम्
8. वान्तर्गमनाधिकरणम्
9. अन्तर्लक्ष्याधिकरणम्
10. बहिर्लक्ष्याधिकरणम्
11. बाह्याभ्यन्तर्लक्ष्याधिकरणम् अध्याय ५
1. तन्त्राधिकरणम्
2. विद्युत्प्रसारणाधिकरणम्
3. व्याप्त्यधिकरणम्
4. स्तम्भनाधिकरणम्
5. मोहनाधिकरणम्
6. विकाराधिकरणम्
7. दिंनिदर्शनाधिकरणम्
8. अदृष्याधिकरणम्
9. तिर्यंचाधिकरणम्
10. भारवहनाधिकरणम्
11. घण्टारवाधिकरणम्
12. शुक्रभ्रमणाधिकरणम्
13. चक्रगत्यधिकरणम्
अध्याय ६
1. वर्गविभाजनाधिकरणम्
2. वामनिर्णयाधिकरणम्
3. शक्त्युद्गमाधिकरणम्
4. सूतवाहाधिकरणम्
5. धूमयानाधिकरणम्
6. शिखोद्गमाधिकरणम्
7. अंशुवाहाधिकरणम्
8. तारमुखाधिकरणम्
9. मणिवाहाधिकरणम्
10. मतुत्सखाधिकरणम्
11. शक्तिगर्भाधिकरणम्
12. गारुडाधिकरणम् अध्याय ७
1. सिंहिकाधिकरणम्
2. त्रिपुराधिकरणम्
3. गूढचाराधिकरणम्
4. कूर्माधिकरणम्
5. ज्वालिन्यधिकरणम्
6. माण्डलिकाधिकरणम्
7. आन्दोलिकाधिकरणम्
8. ध्वजांगाधिकरणम्
9. वृन्दावनाधिकरणम्
10. वैरिंचिकाधिकरणम्
11. जलदाधिकरणम्
अध्याय ८
1. दिंनिर्णयाधिकरणम्
2. ध्वजाधिकरणम्
3. कालाधिकरणम्
4. विस्तृतक्रियाधिकरणम्
5. अंगोपसहाराधिकरणम्
6. तमप्रसारणाधिकरणम्
7. प्राणकुण्डल्यधिकरणम्
8. रूपाकर्षणाधिकरणम्
9. प्रतिबिम्बाकर्षणाधिकरणम्
10. गमागमाधिकरणम्
11. आवासस्थानाधिकरणम्
12. शोधनाधिकरणम्
13. परिच्छेदाधिकरणम्
14. रक्षणाधिकरणम्
विमान के ३२ रहस्य
इस ग्रन्थ में विमानचालक (पाइलॉट) के लिये ३२ रहस्यों (systems) की जानकारी आवश्यक बतायी गयी है। इन रहस्यों को जान लेने के बाद ही पाइलॉट विमान चलाने का अधिकारी हो सकता है। ये रहस्य निम्नलिखित हैं-
मांत्रिक, तान्त्रिक, कृतक, अन्तराल, गूढ, दृश्य, अदृश्य, परोक्ष, संकोच, विस्तृति, विरूप परण, रूपान्तर, सुरूप, ज्योतिर्भाव, तमोनय, प्रलय, विमुख, तारा, महाशब्द विमोहन, लांघन, सर्पगमन, चपल, सर्वतोमुख, परशब्दग्राहक, रूपाकर्षण, क्रियाग्रहण, दिक्प्रदर्शन, आकाशाकार, जलद रूप, स्तब्धक, कर्षण।
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परमार भोज
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(राजा भोज से अनुप्रेषित)
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चक्रवर्ती सम्राट राजा परमार भोज
Statue of Raja Bhoja 02.jpg
चक्रवर्ती सम्राट राजा परमार भोज
शासनावधि सन् १०१०-१०५५ ई.
पूर्ववर्ती सिंधुराज
उत्तरवर्ती जयसिंह प्रथम
जन्म सन् १००० ई.
मालवा
निधन सन् १०५५ ई.
धार
पिता सिंधुराज
धर्म हिन्दू
राजा भोज परमार या पंवार वंश के नवें राजा थे। परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उनमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उन्होंने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है।

कहा जाता है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को राजा भोज ने ही बसाया था , तब उसका नाम भोजपाल नगर था , जो कि कालान्तर में भूपाल और फिर भोपाल हो गया। राजा भोज ने भोजपाल नगर के पास ही एक समुद्र के समान विशाल तालाब का निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था। आज भी भोजपुर जाते समय , रास्ते में शिवमंदिर के पास उस तालाब की पत्थरों की बनी विशाल पाल दिखती है। उस समय उस तालाब का पानी बहुत पवित्र और बीमारियों को ठीक करने वाला माना जाता था। कहा जाता है कि राजा भोज को चर्म रोग हो गया था तब किसी ऋषि या वैद्य ने उन्हें इस तालाब के पानी में स्नान करने और उसे पीने की सलाह दी थी जिससे उनका चर्मरोग ठीक हो गया था। उस विशाल तालाब के पानी से शिवमंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग का अभिषेक भी किया जाता था।

राजा भोज स्वयं बहुत बड़े विद्वान थे और कहा जाता है कि उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी विद्यमान हैं। इनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। उन्होने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई- कहाँ राजा भोज, कहाँ गांगेय,तैलंग। धार में भोज शोध संस्थान में भोज के ग्रन्थों का संकलन है। भोज रचित 84 ग्रन्थों में दुनिया में केवल 21 ग्रन्थ ही शेष है। भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, और गुणग्राही थे। इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकण्ठाभरण, शृंगारमञ्जरी, चम्पूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रन्थ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पण्डितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था-

अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पण्डित आदृत हैं।)

जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया -

अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवं गते ॥
(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है ; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)तिलक मंजरी ..


अनुक्रम
1 परिचय
2 कथा
3 साम्राज्य
4 कृतियाँ
5 विद्वानों का उपनाम भोज
6 भोज के समय में भारतीय विज्ञान
7 भोज की कीर्ति
7.1 भोज की दान-कीर्ति
8 सन्दर्भ
9 इन्हें भी देखें
10 बाहरी कड़ियाँ
परिचय
भोज, धारा नगरी के 'सिन्धुल' नामक राजा के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सावित्री था । जब ये पाँच वषं के थे, तभी इनके पिता अपना राज्य और इनके पालनपोषण का भार अपने भाई मुंज पर छोड़कर स्वर्गवासी हुए थे ।

मुंज इनकी हत्या करना चाहता था, इसलिये उसने बंगाल के वत्सराज को बुलाकर उसको इनकी हत्या का भार सौंपा । वत्सराज इन्हें बहाने से देवी के सामने बलि देने के लिये ले गया । वहाँ पहुँचने पर जब भोज को मालूम हुआ कि यहाँ मैं बलि चढ़ाया जाऊँगा, तब उन्होंने अपनी जाँघ चीरकर उसके रक्त से बड़ के एक पत्ते पर दो श्लोक लिखकर वत्सराज को दिए और कहा कि थे मुंज को दे देना । उस समय वत्सराज को इनकी हत्या करने का साहस न हुआ और उसने इन्हें अपने यहाँ ले जाकर छिपा रखा । जब वत्सराज भोज का कृत्रिम कटा हुआ सिर लेकर मुंज के पास गया, और भोज के श्लोक उसने उन्हें दिए, तब मुंज को बहुत पश्चाताप हुआ । मुंज को बहुत विलाप करते देखकर वत्सराज ने उन्हें असल हाल बतला दिया और भोज को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया । मुंज ने सारा राज्य भोज को दे दिया और आप सस्त्रीक वन को चले गए ।
राजा भोज को इस असार संसार से विदा हुए करीब पौने नौ सौ वर्ष से अधिक बीत चुके हैं , परन्तु फिर भी इसका यश भारत के एक सिरे से दूसरे तक फैला हुआ है । भारतवासियों के मतानुसार यह नरेश स्वयं विद्वान और विद्वानों का आश्नयदाता था । इसीसे हमारे यहाँ के अनेक प्रचलित किस्से - कहानियों के साथ इसका नाम जुड़ा हुआ मिलता है । राजा भोज यह राजा परमार वंश में उत्पन्न हुआ था । यद्यपि इस समय मालवे के परमार अपने को विक्रम संवत् के चलाने वाले प्रसिद्ध नरेश विक्रमादित्य के वंशज मानते हैं।

कहते हैं, भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, पंडित और गुण-ग्राही थे । इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था । इनका समय १० वीं ११ वीं शताब्दी माना गया है । ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे । सरस्वतीकण्ठाभरण, शृंगारमञ्जरी, चम्पूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहार-समुच्चय आदि अनेक ग्रन्थ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं । इनकी सभा सदा बड़े बड़े पण्डितों से सुशोभित रहती थी । इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी ।

रोहक इनका प्रधानमंत्री और भुवनपाल मंत्री था। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इनके सेनापति थे जिनकी सहायता से भोज ने राज्यसंचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति यह भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इन्हें अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमार बहुत ही उत्तेजित थे और इसीलिये परमार भोज चालुक्यों से बदला लेन के विचार से दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई करने को प्रेरित हुए। उन्होंने ने दाहल के कलबुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेन्द्र चोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय[सोलंकी] ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् 1044 ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालवा राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिय। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परन्तु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया। सन् 1018 ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवत: कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, हराया था

जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाई और पहले लाट नामक राज्य पर, जिसका विस्तार दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत तक था, आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया और भोज ने कुछ समय तक उसपर अधिकार रखा। इसके बाद लगभग सन् 1020 ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया और उनके सामंतों के रूप में शिलाहारों ने यहाँ कुछ समय तक राज्य किया। सन् 1008 ई. में जब महमूद गज़नबी ने पंजाबे शाही नामक राज्य पर आक्रमण किया, भोज ने भारत के अन्य राज्यों के साथ अपनी सेना भी आक्रमणकारी का विरोध करने तथा शाही आनंदपाल की सहायता करने के हेतु भेजी परंतु हिंदू राजाओं के इस मेल का कोई फल न निकला और इस अवसर पर उनकी हार हो गई। सन् 1043 ई. में भोज ने अपने भृतिभोगी सिपाहियों को पंजाब के मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली के राजा के पास भेजा। उस समय पंजाब गज़नी साम्राज्य का ही एक भाग था और महमूद के वंशज ही वहाँ राज्य कर रहे थे। दिल्ली के राजा को भारत के अन्य भागों की सहायता मिली और उसने पंजाब की ओर कूच करके मुसलमानों को हराया और कुछ दिनों तक उस देश के कुछ भाग पर अधिकार रखा परंतु अंत में गज़नी के राजा ने उसे हराकर खोया हुआ भाग पुन: अपने साम्राज्य में मिला लिया।

भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी चढ़ाई कर दी जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा। सन् 1055 ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहा था कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।

उत्तर में भोज ने चंदेलों के देश पर भी आक्रमण किया था जहाँ विद्याधर नामक राजा राज्य करता था। परंतु उससे कोई लाभ न हुआ। भोज के ग्वालियर पर विजय प्राप्त करने के प्रयत्न का भी कोई अच्छा फल न हुआ क्योंकि वहाँ के राजा कच्छपघाट कीर्तिराज ने उसके आक्रमण का डटकर सामना किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भोज ने कुछ समय के लिए कन्नौज पर भी विजय पा ली थी जो उस समय प्रतिहारों के पतन के बादवाले परिवर्तन काल में था।

भोज ने राजस्थान में शाकंभरी के चाहमनों के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा चाहमान वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानों के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा।

भोज ने गुजरात के चौलुक्यों [सोलंकी ] से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य सोलंकी नरेश मूलराज प्रथम के पुत्र चंमुदराज को वाराणसी जाते समय मालवा में परमार भोज के हाँथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को इसपर बड़ा क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने भोज के विरुद्ध एक बड़ी सेना तैयार की और भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपन हाथों में ली। कुछ समय बाद भाज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, जब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी। जैसा ऊपर बताया जा चुका है, सन् 1055 ई. के थोड़े ही पहले भीम ने कलचुरी कर्ण से संधि करके मालवा पर आक्रमण कर दिया था परन्तु भोज के रहते वे उस प्रदेश पर अधिकार न पा सके।

कथा
राजा भोज से सम्बन्धित अनेक कथाएँ हैं। अलबेरूनी ने अपने भ्रमण वृत्तान्त में एक अद्भुत कथा लिखी है । वह लिखता है कि 'मालवे की राजधानी धार में , जहाँ पर इस समय भोजदेव राज्य करता है , राज-महल के द्वार पर, शुद्ध चांदी का एक लंबा टुकड़ा पड़ा है । उसमें मनुष्य की आकृति दिखाई देती है । लोग इसकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार बतलाते हैं' - "प्राचीन काल में किसी समय एक मनुष्य कोई विशेष प्रकार का रासायनिक पदार्थ लेकर वहाँ के राजा के पास पहुँचा । उस रासायनिक पदार्थ का यह गुण था कि उसके उपयोग से मनुष्य अमर , विजयी , अजेय और मनोवाञ्छित कार्य करने में समर्थ हो सकता था । उस पुरुष ने , राजा को उसका सारा हाल बतला कर , कहा कि आप अनुक समय अकेले आकर इसका गुण आजमा सकते हैं । इस पर राजा ने उसकी बात मान लीं और साथ ही उस पुरुष की चाही हुई सब वस्तुऐं एकचित्र कर देने की , अपने कर्मचारियों को आज्ञा दें दी । इसके बाद वह पुरुष कई दिनों तक एक बड़ी कड़ाही में तेल गरम करता रहा । और जब वह गाड़ा हो गया तब राजा से बोला कि , अब आप इस में कूद पड़ें , तो मैं बाकी की क्रियाएँ भी समाप्त कर डालू । परन्तु राजा की उसके कथनानुसार जलते हुए तेल में कूदने की हिम्मत न हुई । यह देख उसने कहा कि , यदि आप इसमें कूदने से डरते है , तो मुझे आने दीजिये ताकि मैं यह सिद्धि प्राप्त कर लू । राजा ने यह बात मान ली । इस पर उस पुरुष ने औषधियों की कई पुड़ियाँ निकाल कर राजा को दी और समझा दिया कि इस इस प्रकार के चिह्न दिखाई देने पर वे अन्य पुड़िया तेल में डाल दे । इस प्रकार राजा को समझा बुझाकर वह पुरुष उस कड़ाही में कूद पड़ा और क्षण भर में ही गलकर एक गाढ़ा तरल पदार्थ बन गया । राजा भी उसकी बतलाई विधि के अनुसार एक एक पुड़िया उसमें डालने लगा । परन्तु जब बह एक पुड़िया को छोड़कर बाकी सारी की सारी पुड़ियाएँ डाल चुका तब उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि , यदि वास्तव में ही यह पुरुष अमर , विजयी , और अजेय होकर जीवित हो गया , तो मेरी और मेरे राज्य की क्या दशा होगी । ऐसा विचार उत्पन्न होते ही उसने वह अन्तिम पुड़िया तेल में न डाली । इससे वह कड़ाही ठंडी हो गई और वह घुला हुआ पुरुष चांदी के उपर्यत टुकड़े के रूप में जम गया ।"

साम्राज्य
भोज का साम्राज्य : उदयपुर की ग्वालियर प्रशस्ति में लिखा है कि सम्राट भोज का राज्य उत्तर में हिमालय से, दक्षिण में मलयाचल तक और पूर्व में उदयाचल से पश्चिम में अस्ताचल तक फैला हुआ था। इस सम्बन्ध में निम्न श्लोक इस प्रकार है -

आकैलासान्मलयर्गिरतोऽ स्तोदयद्रिद्वयाद्वा।
भुक्ता पृथ्वी पृथुनरपतेस्तुल्यरूपेण येन॥१७॥
कुछ विद्वानों का मत है कि सम्राट भोज का राज्य लगभग संपुर्ण भारतवर्ष पर ही था। उसका अधिकार पूर्व में डाहल या चेदि, कन्नौज, काशी, बंगाल, बिहार, उड़ीसा और आसाम तक था । दक्षिण में विदर्भ, महाराष्ट्र, कर्णाट और कांची तक तथा पश्चिम में गुजरात, सौराष्ट्र और लाट तक, तथा उत्तर में चित्तौड़ साँभर और काश्मीर तक था। चम्पू रामायण में भोज को विदर्भ का राजा कहाँ गया है और विदर्भराज की उपाधि से विभुषित किया गया है। भोज के राज्य विस्तार को दर्शाता हुआ और एक श्लोक इस प्रकार है -

केदार-रामेश्वर-सोमनाथ-सुण्डीर-कालानल-रूद्रसत्कैः ।
सुराश्रयैर्व्याप्य च यःसमन्ताद्यथार्थसंज्ञां जगतीं चकार ॥२०॥
इसी से स्पष्ट है कि भोज ने अपने साम्राज्य के पूर्वी सीमा पर सुंदरबन स्थित सुण्डिर, दक्षिणी सीमा पर रामेश्वर, पश्चिमी सीमा पर सोमनाथ तथा उत्तरी सीमा पर केदारनाथ सरिख विख्यात मंदिरों का निर्माण तथा पुर्ननिर्माण किया था। भोज ने काश्मीर में कुण्ड भी बनवाया था। भोज के साम्राज्य विस्तार पर विद्वानों में थोडा मतभेद हो सकता है क्योंकि भोज की साम्राज्य सीमाएं विस्तिर्ण किंतु थोड़ी अस्थिर रही। [9] भोज का काश्मीरराज्य भी इतिहास में दर्ज है। विश्वेश्वरनाथ रेउ ने राजा भोज से सम्बन्धित राज्यों की सुचि में काश्मीरराज्य के विषय में लिखा है कि राजा भोज ने सुदूर काश्मीरराज्य के कपटेश्वर ( कोटेर ) तीर्थ में पापसूदन का कुण्ड बनवाया था और वह सदा वहीं के लाए हुए जल से मुँह धोया करता था । इसके लिये वहाँ का जल मंगवाने का पूरा पूरा प्रबन्ध किया गया था ।

कृतियाँ
राजा भोज बहुत बड़े वीर और प्रतापी होने के साथ-साथ प्रकाण्ड पंडित और गुणग्राही भी थे। इन्होंने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

राजा भोज ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में रचनाएँ की हैं। उन्होने कोई ८४ ग्रन्थों की रचना की है। उनमें से प्रमुख हैं-

राजमार्तण्ड (पतंजलि के योगसूत्र की टीका)
सरस्वतीकंठाभरण (व्याकरण)
सरस्वतीकण्ठाभरण (काव्यशास्त्र)
शृंगारप्रकाश (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र)
तत्त्वप्रकाश (शैवागम पर)
वृहद्राजमार्तण्ड (धर्मशास्त्र)
राजमृगांक (चिकित्सा)
विद्याविनोद
युक्तिकल्पतरु - यह ग्रन्थ राजा भोज के समस्त ग्रन्थों में अद्वितीय है। इस एक ग्रन्थ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति, वास्तु, रत्नपरीक्षा, विभिन्न आयुध, अश्व, गज, वृषभ, महिष, मृग, अज-श्वान आदि पशु-परीक्षा, द्विपदयान, चतुष्पदयान, अष्टदोला, नौका-जहाज आदि के सारभूत तत्त्वों का भी इस ग्रन्थ में संक्षेप में सन्निवेश है। विभिन्न पालकियों और जहाजों का विवरण इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रकार के खड्गों का सर्वाधिक विवरण इस पुस्तक में ही प्राप्त होता है।
डॉ महेश सिंह ने उनकी रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है-

संकलन : सुभाषितप्रबन्ध
शिल्प : समरांगणसूत्रधार
खगोल एवं ज्योतिष : आदित्यप्रतापसिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगांक, विद्वज्ञानवल्लभ (प्रश्नविज्ञान)
धर्मशास्त्र, राजधर्म तथा राजनीति : भुजबुल (निबन्ध) , भुपालपद्धति, भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय
चाणक्यनीति या दण्डनीति : व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड, राजनीतिः
व्याकरण : शब्दानुशासन
कोश : नाममालिका
चिकित्साविज्ञान : आयुर्वेदसर्वस्व,
विद्वानों का उपनाम भोज
विजयनगर का सम्राट कृष्णदेवराय स्वयं उच्चकोटि का विद्वान और प्रतिभासंपन्न कवि था । उसे आंध्र का भोज कहा गया है।

भोज के समय में भारतीय विज्ञान
समराङ्गणसूत्रधार का ३१वां अध्याय ‘यंत्रविज्ञान’ से सम्बन्धित है। इस अध्याय में यंत्र, उसके भेद और विविध यंत्रनिर्माण-पद्धति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यंत्र उसे कहा गया है जो स्वेच्छा से चलते हुए (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि) भूतों को नियम से बांधकर अपनी इच्छानुसार चलाया जाय ।

स्वयं वाहकमेकं स्यात्सकृत्प्रेर्यं तथा परम् ।
अन्यदन्तरितं बाह्यं बाह्यमन्यत्वदूरत: ॥
इन तत्वों से निर्मित यंत्रों के विविध भेद हैं, जैसे :- (1) स्वयं चलने वाला, (2) एक बार चला देने पर निरंतर चलता रहने वाला, (3) दूर से गुप्त शक्ति से चलाया जाने वाला तथा (4) समीपस्थ होकर चलाया जाने वाला।

राजा भोज के भोजप्रबन्ध में लिखा है –

घटयेकया कोशदशैकमश्व: सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या ।
वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्त्रम ॥
भोज ने यंत्रनिर्मित कुछ वस्तुओं का विवरण भी दिया है। यंत्रयुक्त हाथी चिंघाड़ता तथा चलता हुआ प्रतीत होता है। शुक आदि पक्षी भी ताल के अनुसार नृत्य करते हैं तथा पाठ करते है। पुतली, हाथी, घोडा, बन्दर आदि भी अंगसंचालन करते हुए ताल के अनुसार नृत्य करते मनोहर लगते है। उस समय बना एक यंत्रनिर्मित पुतला नियुक्त किया था। वह पुतला वह बात कह देता था जो राजा भोज कहना चाहते थे ।।

भोज की कीर्ति
सम्राट भोज जहां कुशल प्रशासक और सेनापति था वहीं विद्या प्रेमी और कवि भी था।

भोज की दान-कीर्ति
विल्हण ने अपने विक्रमाङ्कदेवचरित् में लिखा है कि, अन्य नरेशों की तुलना राजा भोज से नहीं की जा सकती। इसके अलावा उस समय राजा भोज का यश इतना फैला हुआ था कि अन्य प्रान्तों के विद्वान् अपने यहाँ के नरेशों की विद्वत्ता और दान शीलता दिखलाने के लिये राजा भोज से ही उनकी तुलना किया करते थे। राजतरङ्गिणी में लिखा है कि उस समय विद्वान् और विद्वानों के आश्रयदाता क्षीतिराज ( क्षितपति ) और भोजराज ये दोनों ही अपने दान की अधिकता से संसार में प्रसिद्ध थे। विल्हण ने भी अपने विक्रमांकदेवचरित् में क्षितिपति की तुलना भोजराज से ही की है। उसमें लिखा है कि लोहरा का राजा वीर क्षी

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